कैसे मानूं कि है जहान तेरा।
जब कहीं भी पता मिला न तेरा।।
क्या है तेरा यहाँ पे क्या न तेरा।
ये ज़मी है कि आसमान तेरा।।
इक ज़रा रह ज़मीन पर कुछ दिन
टूट जाएगा हर गुमान तेरा।।
जबकि दुनिया सराय फ़ानी है
क्यों बनाते हैं सब मकान तेरा।।
साहनी किस यक़ीन से लिखता
जब मिला ही नहीं निशान तेरा।।
सुरेश साहनी
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