फरीहा नक़वी फरमाती हैं,"
हम तोहफ़े में घड़ियाँ तो दे देते हैं
इक दूजे को वक़्त नहीं दे पाते हैं ।।
माज़रत के साथ कहना पड़ रहा है,
"वक़्त बहुत है हम लोगों के पास मगर
तोहफे में इक घड़ी नहीं दे पाते हैं।।,
अब होना तो यही चाहिये था कि मामला शांत करने या कराने के लिए कुछ बड़ी लेखिकायें घड़ी दे सकती थीं। लेकिन फेसबुक को घड़ी विवाद में अखाड़ा बना दिया। जिसमें बड़े तो बड़े हम जैसे छुटभैये कवि भी कूद पड़े।लेकिन एक बात मेरी भी समझ में नहीं आयी कि हम भारतीय घड़ी को इतना उपयोगी क्यों मानते हैं। जापान का प्रधानमंत्री सोचता है जहाँ चार घण्टा लोग आरती नमाज में गुजार देते हैं ,वहाँ बुलेट ट्रेन की ज़रूरत आश्चर्य का विषय है। हमारे यहाँ तो लोग सालोसाल साधना में गुजार देते हैं। मुनव्वर साहब ने कहा भी है कि,
" ये सोच कर कि तिरा इंतिज़ार लाज़िम है
तमाम-उम्र घड़ी की तरफ़ नहीं देखा।।,
और हम है कि घड़ी को लेकर घड़ियाल हुए जा रहे हैं।हमारे शहर में दसियों घण्टाघर थे। आज शायद दो एक की सुईयाँ सही सलामत हों , और हम है कि एक घड़ी को लेकर खुद बिगबेन हुये जा रहे हैं।अरे इतना महत्वपूर्ण है तो कबीर की तरह "एक घड़ी आधी घड़ी , आधी से पुनि आधि, करके दोनों में बांट दिया जाये।बस्स!!!
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