एक प्रायोजित विज्ञापन सुन रहा था। जिसमें अरबी-फारसी के कुछ कम प्रचलित और क्लिष्ट शब्दों में कहे गये कुछ शेर पढ़कर पूछा जा रहा है कि नहीं समझे ना। अगर आपको इन अल्फाजों के मआनी मालूम होते तो ये आसानी से समझ मे आते ,और आप इन खूबसूरत शेरों का आनंद ले सकते थे।

 अब ये तो एक विज्ञापन था , लेकिन किसी भी अजनबी ज़बान को नहीं समझ पाने का मतलब हम अज्ञानी तो नहीं हुये ना। और आप फ्रेंच में कोई कविता या आलेख सुनाकर मुझसे उसे समझने की उम्मीद भी कैसे कर लेते हैं। ये तो उसी प्रकार की शठता , धूर्तता या मूढ़ता है जैसे कि कोई अंग्रेजीदां किसी गाँव देहात में गिटपिटाता फिरे, और स्वयम को विद्वान समझने की भूल करे। ऐसी प्रवृत्ति के लोग ही प्यास लगने पर आब आब कहते हुये चल निकलते हैं।बिल्कुल कुछ ऐसे जैसा कि कहा गया है:-

 

   काबुल गए मुग़ल बन आए, बोलन लागे बानी।

 आब आब कर मर गए, सिरहाने रहा पानी।।


  भाई मेरा तो साफ मानना है कि मैं जिस माटी में पला बढ़ा हूँ, या जिस माटी के जनसामान्य से मेरे/हमारे  सरोकार जुड़े हैं , मैं उनके लिये लिखता हूँ और उनके लिए ही लिखते रहने की तमन्ना है।

  भाषायी क्लिष्टता लिये चाहे वह गूढ़ अरबी-फ़ारसी के अल्फ़ाज़ हों या कठिन संस्कृतनिष्ठ शब्द हों , मुझे नहीं सुहाते। मुझे हिन्दवी ,हिन्दी और उर्दू इसलिये पसंद क्योंकि इन्हीं के बढ़ने से, फलने फूलने से हमारी विविधताएं, हमारी सांस्कृतिक समरसताएँ  और हमारी वह विरासत मज़बूत हुयी है, जिसके चलते आज हम भारत और उसके आसपास यानी वृहत्तर भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक एकता के तानेबाने के मजबूत होने की कल्पना को शनैः शनैः साकार होता हुआ देख सकते हैं।

  वह कल्पना जिस से आने वाले समय मे हम " आयान्तु सर्वे पुत्रा ये पृथ्वीव्यः, का आह्वान करके वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा को स्थापना का आकार दे सकेंगे।

सुरेश साहनी, कानपुर

9451545132

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