सच मे होते सभी अगर अपने।
यूँ नहीं घोलते ज़हर अपने।।
आदमी का कोई भरोसा क्या
आज होते हैं जानवर अपने।।
ज़िन्दगी चार दिन का डेरा है
छूट जाते हैं दैरो-दर अपने।।
ग़ैर की बदनिगाह क्या देखें
अब तो होते हैं बदनज़र अपने।।
कोई मरहम असर नहीं करता
चाक करते हैं जब ज़िगर अपने।।
तेरी दुनिया मे अजनबीपन है
लौट जाऊंगा मैं शहर अपने।।
थे सुकूँ की तलाश में लेकिन
साहनी लौट आये घर अपने।।
14/04/2019
सुरेश साहनी,कानपुर
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