उन ख़्वाबो-ख्यालों में उलझने से रहे हम।

उल्फ़त के सवालों में उलझने से रहे हम।।


अब सेब से गालों पे फिसलने नहीं वाले

फिर अबरयी बालों में उलझने से रहे हम।।


तक़दीर के साहिल पे यां गिरदाब है इतने

दुनिया तेरी चालों में उलझने से रहे हम।।


दुनिया के फ़रेब हैरतो-अंगेज हैं यूँ भी

सो  हुस्न के जालों में उलझने से रहे हम।।


अब शहरे-ख़मोशा के अंधेरे हैं नियामत

इन स्याह उजालों में उलझने से रहे हम।।


जब साहनी उलझे हैं मसाइल में ज़हां के

तब और बवालों में उलझने से रहे हम।।


सुरेश साहनी, कानपुर

9451545132

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