आहो-रंजो-मलाल का हक़ था।

कल हमें भी सवाल का हक़ था।।


इल्म हर नौनिहाल का हक़ था।

सब को ताजा ख़याल का हक़ था।।


जो सरेराह कर रहे हो तुम

क्या कभी यूँ बवाल का हक़ था।।


हुस्न को था उरूज़ का हक़ तो

इश्क़ को भी जवाल का हक़ था।।


आज वो सब ज़लील हैं उनसे

जिनको सच में जलाल का हक़ था।।


अब तो फ़रियाद पर भी बन्दिश है

कल हमें अर्ज़े-हाल का हक़ था।।


आज तुम भीख कह के देते हो

कल इसी रोटी दाल का हक़ था।।


तुमने रातों की नींद क्यों छीनी

ख़्वाब में तो विसाल का हक़ था।।


चाय वाला भी बन सके हाकिम

क्या ये कुछ कम कमाल का हक़ था।।


सुरेश साहनी, कानपुर

9451545132

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