सम्हल भी रहे हैं मचल भी रहे हैं।

कदम डगमगाते हैं चल भी रहे हैं।।


ज़फ़ा छोड़ कर भागना चाहती है

वफ़ा वाले रहबर उछल भी रहे हैं।।


कोई तूर ग़ैरत का कैसे दबेगा

शुआओं के चश्मे उबल भी रहे हैं।।


यक़ीनन यहाँ ग़र्क़ होगा अंधेरा

मशालों के लश्कर निकल भी रहे हैं।।


खरामा खरामा बदलना है मंज़र

के हालात करवट बदल भी रहे हैं।।


सुरेश साहनी कानपुर

9451545132

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