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Showing posts from May, 2024
आपकी बदमाशियों पे फ़ख्र है।। आपकी लफ़्फ़ाज़ियाँ भी खूब हैं आपकी बूबासियों पे फ़ख्र है।। काश मिल जाती फ़क़ीरी आपकी आप से सन्यासियो पे फ़ख्र है।। बस गये वो  जाके  इंग्लिस्तान में  कह रहे ब्रजबसियो पे  फ़ख्र है।। आप के दोहरे चरित पर नाज है आप से बकवासियों पर फ़ख्र है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 जिंदगानी यूँ खतम करते नहीं। हाँ कहानी यूँ खतम करते नहीं।। सल्तनत दिल की बढ़े चाहे घटे राजधानी यूँ खतम करते नहीं।। सूख जाए ना समन्दर ही कहीं  ये रवानी यूँ  खतम करते नही।।  कुछ अना से कुछ ख़ुदा से भी डरो हक़बयानी यूँ ख़तम करते नहीं।। शक सुब्ह नजदीकियों में उज़्र है शादमानी यूँ खतम करते नहीं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 हर एक शख़्स में इंसान नहीं होता है। जो समझ ले वो परेशान नही होता है।। तुम उसे पूज के भगवान बना देते हो कोई पत्थर कभी भगवान नही होता है।। पशु व पक्षी भी समझते हैं मुहब्बत की जुबाँ कौन कहता है उन्हें ज्ञान नहीं होता है।। आज विज्ञान ने क्या ख़ाक तरक्की की है मौत का आज भी इमकान नही होता है।। ये सियासत है यहां और मिलेगा सबकुछ इनकी दुनिया में इक इमान नहीं होता है।। देश-दुनिया के मसाइल तो पता हैं इनको इनसे रत्ती भी समाधान नहीं होता है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 प्यार सौदा तो नहीं है ,शर्त है तो प्रीत कैसी ? प्यार केवल है समर्पण ,हार कैसा जीत कैसी? उर्मिला के प्रेम का मूल्यांकन कैसे करोगे ? या लखन की वेदना को जानकर भी क्या करोगे ? दूर से हम क्या बताएं ,प्यार की है रीत कैसी ? सुरेशसाहनी, कानपुर
 #सख्तमनाहै सत्ता से पहले विनम्र थे आज उन्हें इतना घमंड है। आज सब्सिडी छीन रहे है जाने कैसा मापदंड है।। कल कह देंगे सख्त मना है खुली हवा में सांसे लेना घर से बाहर कहीं निकलना दुःख तकलीफ में रोना धोना आज़ादी का अनुभव करना उल्लंघन पर कड़ा दंड है।। सुरेशसाहनी
 जब हमें चुभने लगी  थी उम्र  की वह धूप। छांव जैसे दे गया उनका सलोना रूप।। हाय अंधे प्रेम के होते नहीं जब पाँव। कैसे चल कर आ गया मेरे हृदय के छाँव।।
 ए हो सुकुल जी का हो तिवारी का  चीज ढाँकी  केंहर उघारी अपने दुआरे भिखारी बा राजा आने दुआरी पे राजा भिखारी गाँवे में मूवल भी निम्मन लगेला जीयल शहरिया में लागेला गारी छाइब  पलानी जां  बईठब दुआरी
 ऐ ख़ुदा मालिके ज़हां होकर। क्यों भटकता है लामकां होकर।। तू यहां से पनाह मांगेगा एक दिन देख तो अयां होकर।। हाथ खाली गया सिकंदर भी क्या मिला रुस्तमे ज़मां होकर।। उस अलॉ  ने भरम ही तोड़ दिया जब मिला वह मुझे फलां होकर।। चार दिन की चमक पे शैदा शय एक दिन रहती है धुआं होकर।। सिर्फ़ दो गज ज़मीन दे पाया शख्सियत से वो आसमां होकर।। मौत के साथ ही निकल भागी बेवफा जीस्त मेरी जां होकर।। सुरेश साहनी कानपुर
 ऐसा नहीं कि तौर तरीके पता नहीं बाहर ज़रा हुआ हूँ ज़माने के दौर से।।SS
 हम सरमायेदारों को कितना रिस्क उठाना पड़ता है। इस दर्द को सत्तर सालों में पहले नेता ने समझा है।। तुम सब को केवल एक फ़िकर वेतन बोनस या पेंशन है पर हम को तो दुनिया भर के रगड़े झगड़े औ टेंशन है इन सब में कुछ को सुलटाना कुछ को निपटाना पड़ता है।। तुमको मालुम है भारत की जनता भारत की आफत है दस बीस करोड़ गरीब अगर ना हो तो भी क्या दिक्कत है जाने कितना सरकारों को इन सब पे लुटाना पड़ता है।। फिर तुम सबको हर हालत में जीने की गंदी आदत है शहरों से लेकर गांवों तक हर जगह तुम्हारी ताकत है तुम सब के कारण ही हमको चंदा पहुँचाना पड़ता है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 कितने चलते फिरते मुरदे। ढूंढ़   रहे हैं     दूजे कंधे ।। इसकी हद तय करना लाज़िम आख़िर कोई कितना लादे।। तन से योगी मन से भोगी दुनिया भर के गोरख धंधे।। धन को मैल बताने वाले छुप छुप लेते ऊँचे चंदे ।। नेता अफसर योगी भोगी तन के उजले मन के गंदे।। गंगा क्यों ना मैली होती नहलाने पर ऐसे बन्दे।। सब बारी बारी गिरने हैं अंधा गुरू शिष्य भी अंधे।। हंसते हंसते फँसे साहनी नैतिक हैं माया के फंदे।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 अन्ततः एक दिन तो मरना था। इसमें फिर क्या किसे अखरना था।।  रंज-ए-शीशा-ए-दिल नहीं वाज़िब यूँ भी इकदिन उसे बिखरना था।। ज़ेरो-बम  ज़िन्दगी के  मानी हैं  हुस्न ढलने तलक निखरना था।। लाख जलवे उरूज़ पर पहुंचे इक न इकदिन नशा उतरना था।। अब तो मैयत क़याम करती है आपको आज ही सँवरना था।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 मयकदे में ना तो शराबों में कैफ़ जब भी मिला ख़राबों में ताज है इक फ़कीर की ठोकर लोग गाफ़िल हैं कुछ खिताबों में
 दिन कभी आख़िरी नहीं होते। लफ़्ज कुछ शायरी नहीं होते।। कानपुर में सुखन कहाँ दिखता यां अगर कम्बरी नहीं होते।।
 तीर उनके कमान अपनी थी। उनकी बाज़ी पे जान अपनी थी।। सबने नाहक़ हवा पे तंज़ किये शौक़ उनके उड़ान अपनी थी।। वो दवा की जगह ज़हर वाली माल उनका दुकान अपनी थी।। हम तो मोहरा थे ऐसे हाथों के जीत गैरों की शान अपनी थी।। हम भी मेड इन जापान रखते थे आन अपनी थी बान अपनी थी।। अपनी ग़ैरत पे रख के हार गये बात उनकी ज़ुबान अपनी थी।। सुरेश साहनी, कानपुर
 अपने हाथों उसकी बाड़ लगाई थी नागफनी जब तब जो मुझको चुभती है।।साहनी
 मत पूछो वे मेरे क्या थे। कुछ कुछ मेरी भी दुनिया थे।। खाक़ करीबी नापे जोखें तुम कितने थे हम कितना थे।। कितनों को आशीष  मिला था  कितनों के पोषण कर्ता थे।। यति गति लय से युत प्रवाहमय वे कवि थे या ख़ुद कविता थे।। बन्धु मित्रवत मित्र बन्धुवत भ्रात तात गुरु पितु माता थे।। विषय विशेष विशेषण अनुपम क्या कमलेश महज संज्ञा थे।। ब्रम्ह लीन हो गए ब्रम्ह ख़ुद क्या वे एक सुखद सपना थे।। कमलेश जी के सम्मान में सुरेश साहनी, कानपुर
 सबको बेहतर से भी बेहतर चाहिए। किसको हम जैसा सुखनवर चाहिए।। चाहते हैं कुछ मदारी कहन के  कुछ को लफ़्ज़ों के कलंदर चाहिए।। चाहते हो ख़ुद में ग़ालिब मीर तो लेखनी मँजनी निरन्तर चाहिए।।
 मुहब्बत आजमाना चाहती है। तबीयत कुछ यगाना चाहती है।। वो मुझ से जीत जाए इस खुशी में  मुहब्बत हार जाना चाहती है।। भले ही आग लग जाए ज़हां में जवानी आग पाना चाहती है।। जो सहराओं में सागर ढूंढ लाए कहानी वो तराना चाहती है।। चलो रोते हैं हम एक दूसरे पर मुहब्बत मुस्कुराना चाहती है।।
 वो मुझे समझा रहा है ज़िंदगी के मायने। जिसको मालुम ही नहीं है बंदगी के मायने।। तुमने उसके होठ देखे ही नहीं है इसलिए तुम नहीं समझोगे मेरी तिश्नगी के मायने।। तुमने ढूंढा हैं कभी सहराओ में सागर कोई खाक समझोगे मेरी दीवानगी के मायने।। हुस्न पर वहशी निगाहें डालने वाले बशर कब समझते हैं नज़र की गंदगी के मायने।। शख्स जो झिलमिल सितारों में रहा है उम्र भर उसको क्या मालूम क्या हैं तिरगी के मायने।। मौत से अकड़े बदन को देखकर हैरां है वो पूछता है जीस्त की अफसूर्दगी के मायने।। घर से मस्जिद और फिर मस्जिद से घर करता नहीं जो समझता इश्क में आवारगी के मायने।। सुरेश साहनी कानपुर
 अपनी आंखों में सौ सौ मैखाने रखता है। और गुलाबी होठों के पैमाने रखता है।। नीम खुमारी उन आंखों में अक्सर दिखती है जाने कैसे अपना होश ठिकाने रखता है।। बेशक उसकी प्रेम कहानी सुनी नहीं लेकिन उसका चर्चा उसका परचम ताने रखता है।। कोई राब्ता कोई तअल्लुक होगा ही होगा क्यों कोई तस्वीर मेरी सिरहाने रखता है।। लाख हसीं हो ये दुनिया उसकी दीवानी हो पर सुरेश का शायर होना माने रखता है।।
 साथ आना है तो आ चल मिरे क़िरदार के साथ। बेवफ़ा रह तो कभी मुझ से वफ़ादार के साथ।। फिर अगर इश्क़ ज़रूरत है ले ले मुझसे वरना कल मैं भी नज़र आऊंगा अगियार के साथ।।साहनी
 उजाला कुछ घरों बंट रहा है। चलो कुछ तो अँधेरा छँट रहा है।। शराफ़त है अगर कमजर्फ होना तो अब इस से मेरा मन हट रहा है।। हुकूमत हर तरफ इब्लिस की है भरोसा उस खुदा पर घट रहा है।। जुबां जिसकी कटी सच बोलने में ज़माना भी उसी से कट रहा है।। बढ़े जाते हैं नफ़रत के कबीले मुहब्बत का पसारा घट रहा है।। जुबां शीरी कपट है जिसके दिल मे ज़माना भी उसी से सट रहा है।। साहनी सुरेश
 उनको खुद्दारियां पसंद नहीं। मुझको मक्कारियां पसंद नहीं।। क्या ज़रूरी है राब्ते उनसे जब उन्हें यारियां पसंद नहीं।। सिर्फ सिजदे हैं दीन की चाहत उसको सरदारियां पसंद नहीं।।
 सिर्फ़ यादों के कारवां लेकर। ख़ुद को जाएं कहां कहां लेकर।। फेल करता तो कुछ सूकू रहता कुछ न बोला वो इम्तेहां लेकर।। उसने मेरी जमीन भी ले ली मेरे हिस्से का आसमां लेकर।। जबकि दुनिया सराय -फानी है क्या करेंगे भला मकां लेकर।। अब उसे मांहताब क्या बोलें वो जो मिलता है कहकशां लेकर।।
 इतनी शिद्दत से भुलाया करिये। फिर कभी याद न आया करिये।। हम तेरे गैर भी ना रह पाए कम से कम इतना पराया करिये।। आपके ज़ुल्म मेरे हासिल हैं ये कहीं और न ज़ाया करिये।।
 राजा भी चौपट मिला नगरी भी अंधेर। अब अन्धों के हाथ में दिल्ली लगे बटेर।।
 बिना कहे कितनी सारी पाबंदी है। शासन का मतलब ही गुंडागर्दी है।। मज़लूमों मजबूरों को लतिआएगा इसीलिए तो उसने पहनी वर्दी है।।
 दुःशासन पर उठने वाली आवाजें अब दब जायेंगी फिर  कुरुकुल के  सेंगोल भवन में कृष्ण न आएंगे तय है।। साहनी
 #एकपावबिजलीदेना। आंधी पानी  आने के बाद पूरे कानपुर शहर की नागरिक व्यवस्थाएं अस्त व्यस्त हो गयी थी।कानपुर अपनी हरियाली के लिए जाना जाता है।लेकिन इस चक्रवाती हमले से सर्वाधिक नुकसान पेड़-पौधों को ही हुआ।कानपुर नगर निगम के साथ नागरिक प्रशासन ने पूरी तन्मयता से अभियान चलाकर जगह जगह गिरे पेड़ पौधे, और उनके अवशेषों का संग्रह विसर्जन किया।ठेके पर कार्य करने वालों ने अपने अनावश्यक व्यय, मानव श्रम और डीजल आदि संसाधन खूब बचाये।सरकारी सफाई कर्मियों ने जनता को राहत पहुचाते हुए कूड़ा कर्कट जहाँ है जैसा है के आधार पर बरसात का इंतज़ार करने के लिए कह कर छोड़ दिया।हमें वे लोग और हमारी जनता भी तुलसी बाबा से प्रेरित लगते हैं।होइहिं सोई जो राम रचि राखा।।'की भावना हमारे यहां जनजन में विद्यमान है। खैर हमारा असली मकसद विद्युत् व्यवस्था पर लिखना था। क्योंकि आँधी तूफान के बाद विद्युत व्यवस्था भी लड़खड़ा जाती है।जगह जगह पेड़ों के गिरने से तार टूटते हैं ,खम्भे गिरते हैं।शार्ट सर्किट होते हैं ,और ट्रांसफार्मर बिगड़ते हैं।ऐसे में विद्युत अधिकारीयों से लेकर कर्मचारियों तक की हालत खराब हो जाती है।विद्युत उपकेंद्रों...
 हम अलग हैं वे अलग हैं सोच ये हावी रही। दूसरे  सारे ही ठग हैं, सोच ये हावी रही।। हमने अपने घर को अपने मुल्क को माना नही एक अमरीका स्वरग है सोच ये हावी रही।। सुरेशसाहनी
 जिनकी आँखों में हम अपने ख़्वाब तलाशते हैं दरअसल उन्हें पता ही नहीं कि छोटी छोटी उन खुशियों के क्या मायने हैं जिनसे हम जी पाते हैं कैशलेस नहीं  प्राइजलेस ज़िन्दगी!!!!
 भारत में कितने भारत हैं। तुम क्या हो यदि हम भारत हैं।। गांवों में बसता है भारत कुटियों में रहता है भारत दूर गांव से आते आते कैसे खो जाता है भारत क्या दिल्ली में कम भारत हैं।। भारत गांवों से बनता है पर ऐसा क्यों हो जाताहै गांवों से चलकर शहरों में  वही इण्डिया हो जाता है कैसे कह दें हम भारत हैं।। मरते सीमा पर जवान हैं खेतों में मिटते किसान हैं हमसे सौतेलापन क्यों हैं  हम भारत के नवजवान हैं सपने और भरम भारत हैं।। रोज निर्भया रोज दामिनी बन नालों की अंकशायिनी गंगा होती रोज पतित है मोक्षदायिनी खुद दूषित है क्या क्लब और हरम भारत हैं।।
 सत्य कहाँ कोई सुनता है अब गाऊंगा झूठ बिकेगा। आडम्बर से मढ़कर खुद को  जब बेचूंगा टूट बिकेगा।।...... कीमत अब आदमी की नहीं पर पद का सम्मान बड़ा है पद पाकर हैं मूढ़ प्रतिष्ठित पर कागज़ पर ज्ञान बड़ा है जितना भारी पद पा लूंगा उतना महंगा सूट बिकेगा।।...... .... सुरेश साहनी
 सफ़र तवील से थककर मैं सो गया जानम  तुम्हारा ऐसे में रोना भला नहीं लगता।।SS
 उसने देखा है मेरा मोम सा पैकर यारों वो समझता है मुझे आज भी पत्थर यारों।। जिसकी आंखों में भड़कते थे वफ़ा के शोले उसने मारा है मेरी पीठ पे खंज़र यारों।।
 हो सके तो ध्यान से सुनना समय को दे रहा है वह तुम्हें आवाज़ कब से
 मैं एक आदमी हूँ कितने ग्रुपों में जाऊँ किस किस के पेज देखूँ क्या ख़ुद को भूल जाऊँ।। एक एक घण्टे वाले चालीस वीडियो हैं। ग्रुप चैट के हज़ारों मैसेज हैं आडियो हैं।। जो मुझको चाहते हैं सौ से अधिक नहीं हैं। क्या मेरी ज़िम्मेदारी कुछ उनके प्रति नहीं हैं।। टैगासुरों के हमले बढ़ते ही जा रहे हैं। कर दूँ अमित्र सिर पर चढ़ते ही जा रहे हैं।।  कुछ वक्त अपनी ख़ातिर मैं भी निकाल पाऊं। उतना ही मुझ पे लादो जितना सम्हाल पाऊं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 ज़ीस्त कब तक गुजारते तन्हा। किसलिए ख़ुद को मारते तन्हा।। दिल उजड़ना है खुद में तन्हाई ख़ुद को कितना उजाड़ते  तन्हा।। अश्क़ बनकर गिरे निगाहों से जिस्म कैसे उतारते तन्हा।। तुम मेरे पास थे चलो माना फिर भी कब तक पुकारते तन्हा।। आईना था तुम्हारी आँखों मे खुद को कैसे संवारते तन्हा।। मेरी नज़रे तुम्हारी आदी है और किसको निहारते तन्हा।। मय न होती तो साहनी ख़ुद को ग़म से कैसे उबारते  तन्हा।। सुरेश साहनी, कानपुर
 पिताजी पहलवान नही थे पर, जिन हल्के फुल्के बोझों को हम ढोने में थक जाते हैं इस से बढ़कर जिम्मेदारी के बोझ उन्होंने ढोये हैं होते तो अब भी हँस हँस कर वो बोझ मेरा ढो सकते थे......
 ठीक वैसे ही हम यहाँ आये। जैसे मक़तल में मेहमां आये।। आप रोते हुए ही आये थे मत कहें हम थे शादमा आये।। आपके पास भूल आये हम या कहीं और दिल गुमां आये।। अपनी ऊंचाईयों के रस्ते में कोई दूजा न आसमां आये।। गुफ्तगू आपसे हमारी हो ग़ैर क्यों अपने दरमियाँ आये।। चार दिन में बुला लिया मालिक हम तो नाहक़ तेरे ज़हां आये।। सुरेश साहनी कानपुर
 मीर गालिब के हम चचा न हुए। क्या कहें क्या हुए कि क्या न हुए।। ख़ाक हो के भी मुतमइन हैं हम उनको गम है कि लापता न हुए।। जाने कैसे खुदा खुदा है पर हम नहीं होके भी खुदा न हुए।। हर बुराई में यूं तो अव्वल हैं इक कमी है कि हम वबा न हुए।।
 फिर हमें याद कौन रखता है। ख़ुद को नाशाद कौन रखता है।।  ज़िन्दगी तक सम्हाल कर रखिये जीस्त के बाद कौन रखता है।।
 क्या कभी वे इधर नहीं आते। क्यों उन्हें हम नज़र नहीं आते।। महज़बीनों को देख लेते हैं दीद में हम मगर नहीं आते।। भर मुहल्ले में झांकते हैं वो सिर्फ़ अपने ही घर नहीं आते।। कशमकश में है अबकी ईद अपनी वे जो अब बाम पर नहीं आते।। सल्तनत होती यदि ग़ज़लगोई दाग़ आते जिगर नहीं आते।। ऐसे ख़्वाबों की उम्र होती है ख़्वाब ये उम्र भर नहीं आते।। साहनी क्यों न छोड़ दें उनको वे अगर राह पर नहीं आते।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कोई मंज़िल न शहर याद रहा। जब रहा सिर्फ सफ़र याद रहा।। उस अनारो को भुला बैठे हम बादशाहों का गजर याद रहा।।
 ख़ुद को नाशाद  तो नहीं करते। जीस्त  बरबाद  तो नहीं करते।। हुस्न जव्वाद हो न हो यारब हम भी फ़रयाद तो नहीं करते।। हिचकियाँ अब भी मुझको आती हैं तुम मुझे  याद तो नहीं करते।। आदतन दिल की राजधानी को दौलताबाद  तो  नहीं  करते।। हुस्न माना कि माबदौलत है इश्क़ मुनकाद तो नहीं करते।। इश्क़ हरदम जवान रहता है इश्क़ अज़दाद तो नहीं करते।। इश्क़ के साथ ये ज़हां वाले कोई बेदाद तो नहीं करते।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 बड़ी महफ़िल है लेकिन अज़नबी है। यहां सब कुछ है अपनों की कमी है।। सभी के पास ऊँचे ओहदे हैं हमारे पास खाली पोटली है।। इरादे   कायरों के   डोलते हैं हमारी नाव डगमग डोलती है।। हमारा दिल समन्दर की तरह है हमारी आरजू प्यासी नदी है।। सुरेशसाहनी
 दुनिया में दहशतगर्दी है होने दो। जो है उस प्रभु की मर्जी है होने दो।। दुनिया में शैतान हुकूमत करता है इसमें उसकी क्या गलती है होने दो।। फर्जी राशन कार्ड बहुत है दिक़्क़त है नेता की डिग्री फर्जी है होने दो।। अपने बारी आने तक चुप रहती है दुनिया कितनी अलगर्जी है होने दो।। प्यार मुहब्बत धीरे धीरे होती है फिर ऐसी भी क्या जल्दी है होने दो।। मेरे ऐसा लिखने पर नाराज़ न हो अपनी आदत ही ऐसी है होने दो।। सुरेशसाहनी
 मैं अपने एकाकीपन को  किधर छोड़ दूं कहाँ झटक दूँ जहाँ गया मैं वहीं आ गया  मेरा दामन पकड़े पकड़े  कभी कभी अपने बेटे को  किसी शाम जब ले आता हूँ इसी पार्क में  वह अंगुली थामे रहता है  उसे पता है उसकी सारी  उत्कंठाओं का मैं हल हूँ एक बार वह भटक गया था हम दोनों ने बहुत देर तक एक दूसरे को खोजा था और पसीने की बूंदे तब  मेरे माथे से टपकी थी  उस सर्दी में  शायद मेरा- बेटा भी कुछ सहम गया था खैर आज वह साथ हमारे पुलकित मन से टहल रहा है मुझे पता है जब तक मैं हूँ वह एकाकी नहीं रहेगा किन्तु मेरे एकाकीपन को  लौटा कर मेरे बचपन को सिर्फ पिता ही भर सकते हैं जो अब मेरे साथ नहीं हैं दूर अकेले आसमान में  एक सितारा देख रहा है शायद वह ही मेरे पिता हैं.....
 मैं अपना संकुचित हृदय ले आऊंगा जब प्यार जताने तब तुम अपने पूरे हक़ से  प्रणय निवेदन ठुकरा देना मैंने कब चाहा तुम जाओ बागों में वन या उपवन में  तुमको चूमे मलय समीरें आग लगायें मेरे मन में ऐसे दृष्टिकोण से तुमको जब जब आऊं प्यार जताने तुमको हक़ है  तब तुम मुझको बिन देखे ही लौटा देना..... तुम सा सुन्दर साथी प्रियतम कौन नहीं पाना चाहेगा कौन नहीं तव अन्तस् प्रिय आलय बनवाना चाहेगा प्रेम कसौटी पर कसना तुम  जो आये अधिकार जताने मैँ भी अगर खरा ना उतरूँ हक़ से खोटा ठहरा देना.......
 करके घात नहीं आये हो।। फिर क्यों साथ नहीं आये हो। आख़िर किसके साथ कटी है पूरी रात नहीं आये हो।। सूख रहीं हैं भीगी पलकें कब से याद नहीं आये हो।। खुद में भी तुम को ही देखूं इतने पास नहीं आये हो।। आँखे तो  बरसी हैं हाँ तुम इस बरसात नहीं आये हो।। इश्क़ तकल्लुफ़ कब चाहे हैं मुद्दत बाद नहीं आये हो।। *सुरेशसाहनी* कानपुर
 आईना हूँ जिसको पत्थर समझे हो। क्या तुम मुझको मीत बराबर समझे हो।। मैं इंसां हूँ कैसे तुमको समझाऊं तुम तो मुझको खालिश शायर समझे हो।। अपने घर में यार तकल्लुफ ठीक नहीं मेरे घर को कब अपना घर समझे हो।। मेरे उनके सबके घर धरती पर हैं एक तुम्हीं खुद को अम्बर पर समझे हो।। करते हो जितनी बातें बेमतलब हैं क्या तुम अपने को मतलब भर समझे हो।।
 फिर मेरे सब्र का पारा टूटा। कस्रे-दिल जबकि दुबारा टूटा।। इक नदी टूट के रोई फिर से फिर तसल्ली का किनारा टूटा।। वो ख़ुदा भी रहा आदम की पनह जब ख़ुदा का था पसारा टूटा।। मैंने दिल तुमको दिया था यारब ये भी टूटा तो तुम्हारा टूटा ।। फिर ख़ुदा ने दिया धोखा शायद फिर ख़ुदाई का सहारा टूटा।। कोई तो बात हुई है घर मे कैसे आंगन से ओसारा टूटा।। मेरी आँखों मे अंधेरा चमका और क़िस्मत का सितारा टूटा।। तेरी तस्वीर भी होगी ज़ख्मी शीशाए-दिल जो हमारा टूटा।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 अंधेरों से उजाला चाहते हैं। जो गिद्धों से निवाला चाहते हैं।। तबाही ही मिली डिस्टेनसिंग से मगर वो अब भी पाला चाहते हैं।। बनाना चाहते हैं मुल्क़ ग्लोबल  हमारा घर निकाला चाहते हैं।। हम उनके हैं यकीं करने की ज़िद में वो इन पैरों में छाला चाहते हैं।। वो कैसे मान लें नानी का घर है कि बच्चे चार खाला चाहते हैं।। कफ़न मुर्दों पे होना चाहिए था जिसे सिस्टम पे डाला चाहते हैं।। चमन अपना उजड़ जाने से पहले परिंदे भी उठाला चाहते हैं।। जहर देगा हमें मालुम है फिर भी उन्हीं हाथों से हाला चाहते हैं।। कि यूँ लूटा है उजले दामनों ने हम अपना दिल भी काला चाहते हैं।। सुरेश साहनी कानपुर
 मंत्र बहुत मेरे मन भाया बुद्ध शरणम गच्छामि बार बार मैने दोहराया बुद्धम शरणम गच्छामि मन बोला जब संकट आया बुद्धम शरणम गच्छामि कड़ी धूप में जैसे छाया बुद्धम शरणम गच्छामि हर हिंसा से बचना है तो चौर्य वृत्ति छल तजना है काम क्रोध से  झूठ कपट कम करना है तो चलो नशा व्यसन ने दुख उपजाया बुद्धम शरणं गच्छामि।।
 दोस्त बन कर वो हमारे सामने आया भी है। पीठ पीछे दोस्तों को खूब बहकाया भी है।। वो शरीके गम रहा है यूं तो सबके सामने दुश्मनों के पास जाके खूब इतराया भी हैं।।
 न जाने क्या जताने आ रहा है। मुहब्बत के बहाने आ रहा है।। अक़ीदा तो नहीं फिर किस गरज़ से मुसलसल आस्ताने आ रहा है।। उसे ख़ुद पर यकीं है कैसे मानें मुझे जो आज़माने आ रहा है।। मैं रूठा भी नहीं उस बेवफ़ा से मुझे  वह क्यों मनाने आ रहा है।। मेरे हरजाई की जुर्रत तो देखो मुझे उल्फ़त सिखाने आ रहा है।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 ठीक वैसे ही हम यहां आए। जैसे मकतल में मेहमां आए।। आप रोते हुए ही आए थे मत कहें हम थे शादमां आए।। आप के पास भूल आए हम या कहीं और दिल गुमां आए।।   अपनी ऊंचाइयों के रस्ते में कोई दूजा न आसमां आए।। गुफ्तगू आपसे हमारी हो  गेर क्यों अपने दरमियां आए।। चार दिन में बुला लिया मालिक  हम तो नाहक तेरे ज़हां आए।। सुरेश साहनी
 दिल बहला कर चल देते हो। बात  बना कर   चल देते हो।। दिल का दर्द कहें क्या तुमसे तुम कतरा कर चल देते हो।। दिन  भर यहाँ वहाँ भटकोगे रात बिताकर   चल देते हो ।। हम   खोये  खोये  रहते हैं तुम क्या पाकर चल देते हो।। क्यों उम्मीद जगाते हो जब हाथ बढ़ा कर चल देते हो ।। ख़ाक मुहब्बत को समझे हो आग लगा कर चल देते हो।। अब ख़्वाबों में यूँ मत आना नींद उड़ा कर चल देते हो ।।
 मैं क्या लिखता तुम क्या पढ़ते मैं क्या कहता जो तुम सुनते प्रेम कहाँ कागज पर उतरा मौन कहाँ कानों में गूंजा तुम भी कब इस दिल मे उतरे थाह प्रेम की कैसे लेते  मैं क्या लिखता..... देह प्रेम का प्रथम चरण है देह मृत्यु का सहज वरण है देह न हो पर प्रेम रहेगा काश तुम्हे यह समझा सकते मैं क्या  लिखता......... सुरेशसाहनी, कानपुर
 मत सोचो नदिया बन सागर में खो जाऊंगा। जो भी प्यार करेगा मैं उसका हो जाऊंगा।। बाद मेरे जीवन के पथ पर फूल न पाओगे स्मृतियों के शूल निगाहों में बो जाऊंगा।। तुम क्या कभी किसी से कोई चाह नहीं रखता अपनी अर्थी तक अपने कांधे ढो जाऊंगा।। जो भी याद करे ख़्वाबों में आऊंगा उसके चुपके चुपके आकर अंतर्मन टो जाऊंगा।। आज तुम्हारे आँगन में हूँ प्रेम गीत गा लो कल गाना क्या रो न सकोगे यदि रो जाऊंगा।। रात मुकम्मल करने को ही जाग रहा हूँ मैं इसकी सुबह नहीं होगी यदि मैं सो जाऊंगा।। दो दिन के जीवन मे आओ दो युग जी जाएं किसे पता कल किधर कौन नगरी को जाऊंगा।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 आते आते ही मुहब्बत आएगी। फिर वफ़ा आएगी उल्फ़त आएगी।। हर्फ़ आएंगे इबारत आएगी। तब ज़ेहन में एक आयत आएगी।। कौम में जब भी सियासत आएगी। तब ज़ेहन में आप नफ़रत आएगी।। मजलिसों में जब जमाअत आएगी। राह पर कैसे न् उम्मत आएगी।।
 खरामा खरामा शहर छोड़ देंगे गली भूल जायेंगे दर छोड़ देंगे।। तेरे गम की दौलत से निसबत है हमको सिवा इसके हर मालोजर छोड़ देंगे।। पुकारा करोगे न आयेंगे तब हम तेरे दिल की दुनिया अगर छोड़ देंगे।। घड़ी दो घड़ी का सफर साथ रह लो परिंदे सुबह तक शज़र छोड़ देंगे।।
 तुम्हारी वफ़ा से दमकने लगा हूँ। गुलाबों के जैसा महकने लगा हूँ।। निगाहें तुम्हारी नशीली नशीली कदम दर कदम मैं बहकने लगा हूँ।। तेरी सांस की गर्मियां उफ खुदारा खरामा खरामा टहकने लगा हूँ।। तेरे जिस्म का शाखे- गुल सा लचकना तेरी ओर मैं भी लहकने लगा हूँ।। जो देखीं तेरी मोरनी सी  अदाएं  परिंदों  सा मैं भी चहकने लगा हूँ।।.... सुरेश साहनी, कानपुर
 कौन कहता है हुनर बिकता है। जब भी बिकता है बशर बिकता है।। कब दवा खाने शिफा देते हैं  हर कहीं मौत का डर बिकता है।। है सियासत की गिरावट बेशक़ गाँव बिकता है शहर बिकता है।। पहले बिकते थे ज़मी और मकां अब सहन बिकते हैं घर बिकता है।। तब धरोहर थे गली के बरगद आज आँगन का शज़र बिकता है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 नादां से अल्हड़ होने तक  जीवन ही मेरा जीवन था जीवन के उस हिस्से पर तुम मत अपना अधिकार जताना।। आंगन से  कस्बे तक जाना कस्बे से शहरी बन जाना रसना का चूरन कम्पट से पानीपूरी तक आ जाना फिर काफी पिज़्ज़ा बर्गर से गुपचुप याराना हो जाना।। जीवन के उस हिस्से पर तुम मत अपना...... अक्सर कॉलेज आते जाते उसका राहों में दिख जाना कभी मुहल्ले के नुक्कड़ पर उसका सारी शाम बिताना धीरे धीरे उसे देखना अपनी भी आदत बन जाना।। जीवन के उस हिस्से पर तुम मत अपना.... परिस्थिति वश छूट गए सब गुड्डे गुड़िया खेल खिलौने छूट गया अपना घर आंगन स्वप्न बिके सब औने पौने अब  तुम ही हो मेरा जीवन तुमसे है हर ताना बाना।। अब जीवन के उस हिस्से पर  मत अपना.....
 हम थे किस को तलाशने निकले। कब थे ख़ुद को तलाशने निकले।। अपने दिल मे न झाँक पाये हम और उसको तलाशने निकले।। हम थे पागल सराय-फानी में अपने घर को तलाशने निकले।। क्यों न मिलता सुरेश दुख तुमको तुम थे सुख को तलाशने निकले।।
 भले  कोई भी दल भारी रहेगा। ये जन संघर्ष तो जारी रहेगा।। तरक्की लाख कर ले मुल्क अपना मगर ढर्रा तो सरकारी रहेगा।। मुझे मोदी बहुत भाने लगा है वो अगले दो दशक भारी रहेगा।।
 ख़्वाब पलकों पे सजाये मिलना। दिल में उम्मीद जगाये मिलना।। हसरतें रखना दबाकर लेकिन हौसले खूब बढ़ाये मिलना।। उठ गईं फिर तो क़यामत होगी अपनी पलकों को झुकाये मिलना।। हर्ज़ है आज अगर मिलने में आपके दिल मे जब आये मिलना।। वस्ल वाजिब है ज़रूरी तो नहीं देखना जान न जाये मिलना।। क्या ज़रूरी है क़यामत में मिलो जब कभी याद सताए मिलना।। मेरे महबूब हो ये याद रहे भूल से भी न पराये मिलना।। सुरेश साहनी, कानपुर  9451545132
 एक चम्मच प्यार वाली चाय हो। फिर भले पत्ती उबाली चाय हो। हर सुबह बस इतनी ख्वाहिश है मेरी आप हों और एक प्याली चाय हो।। चाय के संग मुस्कुराते यार हों फिर भले पत्ती उबाली चाय हो।। काश वो दिन लौट आएं प्यार के फिर वही कमबख्त काली चाय हो।। शाम को अंगूर की बेटी भली पर सुबह रिश्ते में साली चाय हो।। सुरेश साहनी कानपुर
 जो भी  है सरकार के हक़ में। क्यों जाएं हक़दार के हक़ में।। सत्ता का अपराधी है वो जो बोला अधिकार के हक़ में।। वो है उसका जात बिरादर क्यों बोले अगियार के हक़ में।। मां को चिंता है आँगन की बेटे हैं दीवार के हक़ में।। वही करेंगी सरकारें अब जो होगा बाज़ार के हक़ में।। अखबारों को भी मालूम है क्या है अब अख़बार के हक़ में।। दुनिया भर के व्यापारी हैं झूठों के सरदार के हक़ में।। अत्याचार सहेगी जनता  जब तक है अवतार के हक़ में।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 इब्ने हिंदोस्तान है उर्दू। हां यहीं की जुबान है उर्दू।। और होंगे किरायेदार यहां यां तो मालिक मकान है उर्दू।।
 हो ना हो पर सबसे बेहतर अपनी बीनाई समझ। कर तमाशा ख़ुद को दुनिया को तमाशाई समझ।। मेरी नज़रे तेरी नजरों से फिसल कर जिस्म पर पड़ गई तो क्या हुआ बस हुस्न आराई समझ।। है शहर भर आशना तो क्या करे तेरा अदीब कुछ समझ पर अपने शायर को न हरजाई समझ।।
 भले दक्षिणा  में लगे सौ दो सौ की चोट। पर जजमान न दीजिये दो हज़ार का नोट।। साहनी
 क्या करें डर जाएं सब से और जीना छोड़ दें। डर से मैखाने न जायें और पीना छोड़ दें। हद है इक बातिल से डरकर क्यों न् बोलें हक़ हुसैन क्या करें मक्का न् जायें या मदीना छोड़ दें।।साहनी
 कौन फरियाद कर रहा होगा। ख़ुद को नाशाद कर रहा होगा।। सिर्फ़ दिलशाद कर रहा होगा। वज़्म आबाद कर रहा होगा।। काम ये तंगदिल नहीं करते कोई जव्वाद कर रहा होगा।। मैं उसी हौसले  पे हूँ कायम तब जो फरहाद कर रहा होगा।। ऐसा दुश्मन भी अब नहीं कोई कौन फिर याद कर रहा होगा।। क्या कोई इश्क़ के लिए ख़ुद को अब भी बरबाद कर रहा होगा।। कब है दुनिया अदीब की दुश्मन कोई मुनकाद कर रहा होगा।। सुरेश साहनी अदीब  कानपुर 94515452
 तुम्हें देखता हूँ तो लगता है जैसे जन्नत यहाँ से हसीं तो न होगी।। sahani
 बच के रहिएगा हमसे ख्वाबों में ख़्वाब में हम शरीर होते हैं।।साहनी शरीर/,शरारती
 तुमको  हक़ था कि सताते मुझको। कम से कम छोड़ न जाते मुझको।। रात ख़्वाबीदा हुई थी माना शोर कर देते जगाते मुझको।। फिर सफ़र लाख कड़ा हो जाता हर कदम साथ ही पाते मुझको।। मान लेता कि मुझे भूल गए तुम अगर याद न आते मुझको।। रूठते तुम तो मनाता मै भी यूँ ही कुछ तुम भी मनाते मुझको।। हुस्न को तुम नहीं समझे शायद इश्क़ होता तो बुलाते मुझको।। जैसे दिल मे हो मेरे कुछ यूँ ही अपने दिल मे भी बसाते  मुझको ।। सुरेश साहनी, कानपुर
 और  रोया गया नहीं  मुझसे। दर्द ढोया गया नहीं मुझसे।। चाहता अश्कबार कर देता दिल भिगोया गया नहीं मुझसे।। एक मनका जो मन से टूट गया फिर पिरोया गया नहीं मुझसे।। रात ख्वाबों में तुम नहीं आए और सोया गया नहीं मुझसे।। टूट कर मैं संवर भी सकता था पर संजोया  गया नहीं  मुझसे।। सुरेश साहनी कानपुर
 इक नज़र से गुनाह थे फिर भी। यार हम बेगुनाह थे फिर भी।। हमने माना कि हम बुरे होंगे काबिले रस्मो-राह थे फिर भी।। दो कदम साथ चल तो सकते थे हम भले ही तबाह थे फिर भी।। दाग वो ढूंढते रहे  मुझमें जिनके दामन सियाह थे फिर भी।। तुम ने समझा महज़ फ़कीर हमें दिल के हम बादशाह थे फिर भी।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कहाँ धूप ने सुनी अर्ज़ियाँ कहाँ छांव ने सुनी व्यथायें बंधी फाइलों में दफ्तर की गूँगी बन रह गयी कथायें।। नारों जैसे चमकीले थे किन्तु शिथिल पड़ गए कथानक जिन आंखों के उजियारे थे उनमें गड़ने लगे अचानक क्या बदला जब लोकतंत्र में वही नियन्ता वहीं प्रथायें।। आशाओं की नयनज्योति में  तम के बादल लगे घुमड़ने शीश उठाये हाथ चले थे दुनिया को मुठ्ठी में करने कुछ बाधा बन गयी दूरियाँ कुछ आड़े आ गयी जथायें।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 सनम के तर्जुमा होने लगे हैं। ज़मीं पर भी ख़ुदा होने लगे हैं।। तुम्हें चाहा ही क्यों था सोच कर अब हमीं हम से ख़फ़ा होने लगे हैं।। बड़ी हैरत है किस दुनिया मे हैं हम यहाँ वादे वफ़ा होने लगे हैं।। हमें इतना दबाया जा चुका है कि अब हम भी ज़िया होने लगे हैं।। वजू करते हैं हर दिन मयकदे में सो हम भी पारसा होने लगे हैं।। सुरेश साहनी कानपुर
सब स्वयं से आज हारे कौन अब किसको पुकारे।। देखकर मैं थक चुका हूं स्वप्न कितने ढेर सारे ।। जीत लेंगे युद्ध सोचा एक दूजे के सहारे।। हौसलों ने हार मानी स्वार्थपरताओं के मारे।।
 ज़िंदगी है तो हैं सफ़र में हम। मौत के बाद होंगे घर में हम।। जो खुमारी सी दिल पे छाई है हैं तेरे ख़्वाब के असर में हम।। जान कर राख मत कुरेद हमें मिल न जाएं कहीं शरर में हम।। ढूंढते हो मेरी नज़र में किसे अब अगर हैं तेरी नजर में हम ।।
 कहानी को यहीं पर छोड़ते हैं। मुहब्बत से तअल्लुक़ तोड़ते हैं।। खुशी कब छोड़ दे दामन हमारा तुम्हारे ग़म से रिश्ता जोड़ते हैं।। न कतरा कर निकल जाएं चुनांचे चलो तूफान का रुख मोड़ते हैं।। पुरानी डायरी को अब न खोलें हमारे ज़ेहन को झिंझोड़ते हैं।। नई किश्ती से उतरे हैं नदी में चलो इक नारियल ही फोड़ते हैं।। तो आओ मौत का डर खत्म कर दें चलो मक़तल की जानिब दौड़ते हैं।। सुरेश साहनी कानपुर .....
 आओ लेकर चाँद सितारे  चलते हैं। पार नदी के साथ तुम्हारे चलते हैं।। कल की फिक्रें उलझन दुनियादारी सब छोड़ चलें जैसे बंजारे चलते हैं।। दुनियावी बातों की बहती धारा से तुम कह दो तो दूर किनारे चलते हैं।। जीत के  दिल की दौलत क्या पा जाओगे उल्फ़त में दिल हारे हारे चलते हैं।। तुम्हीं कमल हो मन के मानसरोवर के हम  तन मन धन तुम पर वारे चलते हैं।। अन्तर्मन में एक तुम्हारी छवि है प्रिय नयन मूंद बस तुम्हे निहारे चलते हैं।।
 पिता दुआ में मांगते हो सुत उम्रदराज। किन्तु पुत्र करते उन्हें आज नज़रअंदाज़ ।। कुछ ऐसे हालात में पिता हुआ बीमार। पुत्र पिता को छोड़कर घर से हुआ फरार।। पहुँचा पत्नी साथ ले सास ससुर के द्वार। बेटी औ दामाद का स्वागत हुआ अपार।।
 हम हमें कैसे भला भूल गए। आज अपना ही  पता भूल गए।। तुमको देखा तो कहाँ याद रहा शर्म भूले कि हया भूल गए।। जीस्त की शाम कहाँ ले आयी हाय हम अहदे-वफ़ा भूल गए।। हम तो इक भूल पे शर्मिंदा है आप हैं कर के ख़ता भूल गए।। अब की उल्फ़त में वो तासीर कहाँ आज हम ग़म का मज़ा भूल गए।। इश्क़ अपना है अज़ल से क़ायम हुस्न वाले ही सदा भूल गए।। बेख़ुदी में ये कहाँ याद रहा शेर छूटा कि क़ता भूल गए।। मौत के बाद हमें याद आया थे मुहब्बत में क़ज़ा भूल गए।। वो दवा भूल गए ले के दुआ हम दुआ ले के दवा भूल गए।। मग़फ़िरत इनको कोई क्या देगा इश्क़ वाले तो ख़ुदा भूल गए।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तन्हा होकर बैठे हो तुम  ऐसा क्या कर बैठे हो तुम।।  दुनिया बाहर घूम रही है ऐसे में घर बैठे हो तुम।। क्या तुमको आभास नहीं है कितने ऊपर बैठे हो तुम।।
 मैं गीत सुनाना चाहूंगा तुम सुनने को तैयार तो हो। मैं दिल की दिल से कह पाउँ  मेरा इतना अधिकार तो हो मैं दिल की बात बताऊं तो तुम दुनिया को बतला दोगे मैं तुम पर प्यार जताऊं तो तुम ग़ैरों को जतला दोगे। हर राज छुपा ले जाओगे मन से इतने तैयार तो हो।।
कहां कहां से मुहब्बत न तार तार हुई। ये तेरे  बाद तो रुसवा हजार बार हुई।। न तेरे बाद कोई जुस्तजू रही दिल में न तेरे बाद तमन्ना ही बेकरार हुई।। कि अहले हुस्न ने समझा महल जिसे अक्सर हम इश्क वालों की आगे वही मजार हुई।। नहाते अपने पसीने में जो रहा दिन भर हमारे दहका की अक्सर यही पगार हुई।। दराज उम्र तो की है सनम तेरे गम ने हमारी ज़िंदगी इतनी तो कर्जदार हुई।। हम अपनी लाश उठाए कहां कहां न गए हमारी ज़िंदगी गोया कोई कहार हुई।। अदीब तुझको भरम था कि आशना है सब तो तेरे बाद न इक आंख अश्कवार हुई।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर 9451545132
 इतनी नफ़रत सजा के बैठे हो। दिल को ये क्या बना के बैठे हो।। दिल की दुनिया लुटा के बैठे हो। सच मे कितना गंवा के बैठे हो।।
 पंख हैं आकाश घटता जा रहा है। क्या उड़ें अभ्यास घटता जा रहा है।। सोच को विस्तार देकर क्या करेंगे कुछ न कुछ सायास घटता जा रहा है।। आज रिश्तों में तपन है गर्मियों की प्रेम का मधुमास घटता जा रहा है।। हो गए हैं आप माया दास गोया आप में सन्यास घटता जा रहा है।। कुछ शिकायत तो नहीं है आईने से आपका विन्यास घटता जा रहा है।। सुरेश साहनी कानपुर
 सुबह ड्यूटी जाता हूँ शाम को वापस आता हूँ शाम से रात तक  ढेर सारे काम  साग सब्जी लाना बीबी बच्चों को घुमाना टहलाना देर रात गए सोना फिर सुबह वही जद्दोजहद इस बीच  कविता कहाँ गयी खोज रहा हूँ!!!
 कब दूर रहा तुमसे कब पास रहा  बोलो कब तुमको मेरे ग़म का एहसास रहा बोलो हम साथ में रहकर भी तनहा ही रहे बरसों घर घर न रहा क्यों कर वनवास रहा बोलो दौलत से कहीं बढ़कर घर प्यार से बनता है क्या तुमको कभी यह भी आभास रहा बोलो
 आपसे वादा वफ़ा होता रहा और पत्थर देवता होता रहा ये ज़मीं शैतान के बस में रही आसमानों पर ख़ुदा होता रहा रोज़ हम ज़ंज़ीर को तोड़ा किये रोज़ आलम पींजरा होता रहा इस कदर हमने शिवाले गढ़ लिए आदमी पत्थरनुमा होता रहा हम भी क्या लिखना था क्या कुछ लिख गए शेख़ रह रह कर ख़फ़ा होता रहा सुरेश साहनी,अदीब कानपुर
तेरे एहसान हम पर  कम नहीं है। तेरा ग़म है तो कोई ग़म नहीं है।। हमारे खैरख्वाह हो तुम ये माना मगर दामन तुम्हारा नम नहीं है।। करे थे   किसलिए  दावे हवाई जो तेरी कोशिशों में दम नहीं है ।। जिन्हें तुम  देख शायर हो रहे हो मेरे आंसू हैं ये शबनम नहीं है।। कहा अच्छे दिनों के चारागर ने गरीबी का कोई मरहम नहीं है।। Suresh Sahani
 किसी प्रभंजन की तरह चला झूठ का दौर। टूटे पत्ते की तरह सत्य हुआ बेठौर।।SS
 हर सख़्श यहाँ गाफ़िल है दीन ओ ईमां से अल्लाह मदद करता ऐसे में भला किसकी।। इक चाहे घटा बरसे इक धूप कड़ाके की अल्लाह दुआ सुनता ऐसे में भला किसकी।।  सुरेश साहनी
 करना है यदि देश को,सुख समृद्धि से युक्त। प्रथम कृषि को कीजिये,उर्वरकों से मुक्त।।SS
 यूँ कब तलक सताएगी ये ज़िन्दगी हमें। या राह कुछ बताएगी ये ज़िन्दगी हमें।। बेघर थे आज बे दरो-दीवार भी हुए क्या राह पर सुलाएगी ये ज़िन्दगी हमें।।
 जब सेवा का भार उठाना। बनकर जिम्मेदार उठाना।। हर सर को  छत देना लेकिन मत दिल मे दीवार उठाना।  प्रश्न कोई यदि जनपक्षिय  हो संसद में सौ बार उठाना।। पहले पढ़ लेना संसद में जब कोई अख़बार उठाना।। जितने हल कर सकना उतने प्रश्नों के अंबार उठाना।। जन के सरोकार से जुड़कर गिरे पड़े लाचार उठाना।।
 शब्द की बाज़ीगरी होने लगी। अब ग़ज़ल भी तेवरी होने लगी।। हम पुनः हैं सृष्टि के आरंभ में सभ्यता दिक्अम्बरी होने लगी।। अब कहाँ कोमल हृदय वाले बचे आज पीढ़ी  बर्बरी होने लगी।। क्यों न मधुशाला खुले राजस्व का आधार जब कादम्बरी होने लगी।। मृत्यु खा पीकर के मोटी क्या हुई ज़िंदगानी अधमरी होने लगी।। सच यही हैं सांवरे के प्रेम में इक सलोनी सांवरी होने लगी।। दिल ने बोला ज़िन्दगी से राग कर और रुत आसावरी होने लगी।। सुरेश साहनी, कानपुर
 अँजुरी भर क्या धूप मिल गयी तुम समझे सूरज गुलाम है। और तुम्हारी सेवा करना  सूरज का इक यही काम है ।। तुमने सोचा चाँद सितारे  तुम कह दो तो रोशन होंगे तुम कह दो तो हवा बहेगी तुम कह दो गुल गुलशन होंगे।। तुमसे होगी फस्ले-बहारा तुम बिन रुत पतझार रहेगी तुमसे नाव चलेगी जग की तुम बिन भव मझधार रहेगी इस भ्रम तुम में तुम फूले ऐंठे इस भ्रम में तुम में बल निकले और एक दिन अहंकार में साँस थमी औ तुम चल निकले।। सुरेश साहनी, कानपुर
 बहरे गम को भी थाह सकता हूं। जीस्त तन्हा निबाह सकता हूं।। क्या ज़रूरी है तू मिले मुझको मैं तुझे यूं भी चाह सकता हूं।। ये ज़रूरी नहीं कि दिल आए डाल सब पर निगाह सकता हूं।। खूबसूरत तो और भी शय हैं बाद तेरे सराह सकता हूं।। तेरे वादे जो कर्ज है तुझ पर बोल कब तक उगाह सकता हूं।। सुरेश साहनी कानपुर
 हार बैठा था पर तलाश लिया। आखिरश दिल ने दर तलाश लिया।। हुस्न ऐयारियों पे आया तो इश्क ने भी  हुनर तलाश लिया।। मरहले रास्ते भी हैरां  हैं मंजिलों ने सफ़र तलाश लिया।। सोच अंजाम तिरगी कांपी हौसलों ने शरर तलाश लिया।। गांव फिर गांव ख़ाक रह पाता जब से उसने शहर तलाश लिया।। अम्न का कारवां न लुट जाए ये किसे राहबर तलाश लिया।। इश्क को जाम की ज़रूरत थी नफरतों ने जहर तलाश लिया।। वो निगाहों से दिल में उतरा है दिल ने दिल में ही घर तलाश लिया।। डरने वाले खड़े हैं साहिल पे साहनी ने भंवर तलाश लिया।।
 मर्ज़  तो  लाइलाज  है  वरना। क्यों ये कहता न  हुस्न पर मरना।। दिल ही पहुंचा है खुदकुशी करने कितना बोला था प्यार मत करना।। मकतबे इश्क का सबक पहला हुस्न वालों की जात से डरना।।
 बेझिझक बेहिसाब देखे  थे। हमने उल्फ़त के ख्वाब देखे थे।। खार कब थे मेरे तसव्वुर में हमनें हर सू गुलाब देखे थे।। फ़र्ज़ था आगही  ज़रूरत  भी आपने तो अज़ाब देखे थे।। आके तुर्बत में इतनी हैरत क्यों क्या न खानाख़राब देखे थे।। हम नये थे हिसाबे- दुनिया से कैसे कहते जनाब देखे थे।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कहाँ तक बेनियाज़ी  सहन करते। हम अपने आप को ही दहन करते।। हमारा दूर होना ही उचित था कहाँ तक बोझ दिल पर वहन करते।। यूँही ये ज़िन्दगी इतनी गझिन है इसे हम और कितना गहन करते।। तुम्हारे ग़म न होते तो यकीनन कहीं तन्हाइयों में रहन करते।। तुम्हें नज़्में हमारी चुभ रही थीं बताओ और कैसी कहन करते।।
 है मेरी ज़ीस्त में बशर कोई। जैसे साहिल पे दीपघर कोई।। एक मुद्दत से मुन्तज़िर है दिल कब से आया नहीं इधर कोई।। आशना होगा मुझसे वो वरना क्यों झुकाकर गया नज़र कोई।। मंजिलें तक सवाल करती हैं अब भी बाकी है क्या सफर कोई।। जब उबरता हूँ मैं तभी दिल में बैठ जाता है फिर से डर कोई।। आदमी हूँ गए ज़माने का जैसे वीरान खंडहर कोई।। ज़िन्दगी धूप से मुतास्सिर थी किसलिए ढूंढ़ते शज़र कोई।। मुझको अपनों के गाँव जाना था उसकी आँखों मे था शहर कोई।। साहनी तुम कहो कि क्यों तेरी आज लेता नहीं ख़बर कोई।। सुरेश साहनी, कानपुर।
 तुम्हें ही ऑक्सीजन चाहिए क्या। कि इक तुमको ही जीवन चाहिए क्या।। मुसलसल पेड़ काटे जा रहे हो तुम्हें कंक्रीट का वन चाहिए क्या।। कभी देखो तो उपवन का भरम हो तुम्हें इक ऐसा  दरपन चाहिए क्या।। दवा भी और चिकित्सा कक्ष सघन भी तुम्हें ही सारे साधन चाहिए क्या।। अभी तुम ठीक हो तो क्यों रुके हो मरीजों वाला वाहन चाहिए क्या।।
 हुस्न का एतबार मत करना। इश्क में जांनिसार मत करना।। फिर मुहब्बत से कह दिया उसने अब मेरा इंतजार मत करना।। इश्क करना भले गुनाह न हो ये खता बार बार मत करना।। हुस्न को कैफियत से जी लेना दिल मगर सोगवार मत करना।।
 झूठ  सच मुश्किल सहल कहने लगे। इस तरह हम भी ग़ज़ल कहने लगे।। उम्र भर घर से रहे महरूम फिर अपने तकिए को महल कहने लगे।। जानते थे हुस्न की ऐय्यारियां इश्क का फिर भी बदल कहने लगे।। आजकल के हुक्मरां फिरओन हैं दौरे- हाज़िर को अजल कहने लगे।।
 रहे अजाने दांव पेंच से कर न सके तिकड़म। इसीलिए तो रंगमंच तक पहुंच न पाए हम । हम सकुचाए बता न पाए उन्हें व्यथा अपनी फिर किसकी थी फुरसत सुनता कौन कथा अपनी सब अपनी उलझन में उलझे सब के अपने गम।।
 ख़यालों में मुसलसल आ रहे हो। सता कर यूँ भला क्या पा रहे हो।। हमें रह रह के रोना आ रहा है तुम्हें क्या मुस्कुराते जा रहे हो।।
 आप ताजा तरीन हो फिर भी। माहरुख महजबीन हो फिर भी।। आपमें सादगी गज़ब की है आप जबकि हसीन हो फिर भी।।
 चलो उनको मना लेते हैं फिर से। नया मौसम बना लेते हैं फिर से।। तअल्लुक़ तर्क हो जाने से बेहतर तसद्दुद हर  मिटा लेते हैं फिर से।। अनाये उनकी हों उनको मुबारक हमीं हम को झुका लेते हैं फिर से।। कोई रिश्ता नहीं उनका वफ़ा से चलो हम आज़मा लेते हैं फिर से।। अगर क़ातिल की मेरे आरज़ू है   तो हम मक़तल में आ लेते हैं फिर से।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 ज़ुबाँ के ऐब छुप कर भी अयाँ हैं।   न जाने कितनी कड़वी गोलियां हैं।। ज़रा सी भूल की कीमत सदी भर सज़ा से कम हमारी गलतियां हैं।। हमारे दिन अगर हैं अज़नबी से तो क्यों रातों में इतनी यारियां हैं।। हमें इतनी मुहब्बत क्यों है तुमसे तुम्हारा फ़न अगर मक्कारियाँ हैं।। हमारे दिल में रहकर भी नहीं हो यहाँ नजदीकियां ही  दूरियाँ हैं।।
 सिर्फ़ मुक़म्मल तन्हाई हो। पास न  मेरे परछाई हो।। ना भूली बिसरी यादें  हों ना यादों की रानाई  हो।। मौसम हो तो ऐसा जैसे धुन्ध अचानक घिर आई हो।। अब उससे क्या लेना देना बाद भले वो पछताई हो।। उम्मीदों अब दामन छोड़ो नाहक़ क्यों कर रुसवाई हो।। कुछ तो जान सकूं दुनिया को मौला इतनी बीनाई हो।। मेरी दुनिया हो इतनी सी मैं हूँ मेरी कविताई हो।। सुरेश साहनी कानपुर
 कोई तो मेरी उलझन सुलझाता सहल करता।। कोई तो मेरी मुश्किल राहों को सरल करता।। वो प्यास बुझाता मेरी आँखों की दरश देकर आना मेरा दुनिया मे एक बार सफल करता।। कुछ ख़ास नहीं फिर भी हम आम नहीं रहते जब मेरी कहानी में वो फेरबदल करता।। ये प्यार भरी नज़रें जिस दम वो फिरा देता  बेदम को अदम करता फ़ानी को अज़ल करता।। मुरझाई कली दिल की खिलकर के कँवल होती मन्दिर सा मेरा मन तो तन  ताजमहल करता।। कान्हा की तरह लगता निर्धन के गले दिल से कोई तो सुदामा की कुटिया को महल करता।। कैसे न लजाऊँ मैं कैसे नहीं झिझकूँ मैं मेरी भी अना रहती कुछ तो वो पहल करता।। वंशी हूँ मैं छलिया की एक बार मुहब्बत से अधरों पे मुझे धरता फिर  लाख वो छल करता।। सुरेश साहनी
 मैंने तो पहल की थी तुमने ही सहेजा कब इक दिल था दिया दिल से तुमने ही सम्हाला कब मैंने तो पुकारा था  तुम्हें प्यार की राहों में सोचा था तुम्हें ले लें उल्फ़त की पनाहों में चाहा था तुम्हें दिल से तुमने मुझे चाहा कब
 फिर तुम्हें  क्यों न भूल जायें हम। किसलिए अपना दिल जलाएं हम।। हाथ तुमने किसी का थाम लिया क्यों न अपना ज़हां बसाएं हम।। क्यों तेरा नाम लेके आह भरें किसलिए अश्क से नहाये हम।। ग़म के नगमों से बेहतर होगा कुछ नए गीत गुनगुनाएं हम।। तुमसे मरहम की क्यों उम्मीद करें तुम तो चाहोगे टूट जाये हम।। हम भी माज़ी को  भूल जाते हैं क्या गए वक़्त को बुलायें हम।। किस खुशी में दें इम्तिहान नए किसलिए ख़ुद को आज़माएँ हम।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 अब मेरी सोच में नहीं आती कोई कविता जो तुम्हारे जैसी हो सुगढ़ घरेलू या तुम्हारे जैसी ही अनगढ़  एकदम बिंदास भुच्च देहाती या नूरजहां की तरह मासूम  जो एक कबूतर कैसे उड़ा  यह बताने के लिए दूसरा भी उड़ा दे दरअसल अब ऐसी कविता होती ही नहीं कम से कम मेरी सोच वालों के लिए तो बिल्कुल नहीं कल एक कविता को  जाते हुए देखा पर वो नाजुक तो बिल्कुल नहीं थी वो  एक कवि के कलमदान से निकलकर किसी दूसरे कवि की जेब मे जा रही थी शायद उसे बहर में रहना पसंद न  हो
 उसने बाहों में भर लिया था फिर। क्या बताएं कि क्या हुआ था फिर।। उन निगाहों से मय बरसती थी उसकी बातों में भी नशा था फिर।। रात इक ख्वाब सी सुहानी थी और उस रात जागना था फिर।। इंतेजारी में लुत्फ था बेशक उससे मिलना तो कुछ जुदा था फिर।। ख़्वाब की कैफियत जुदा थी पर क्या हक़ीक़त में कम मज़ा था फिर।। सुरेश साहनी कानपुर
 जहाँ तक हो सके दस्तक न देना तुम्हारे ख्वाब ले कर सो रहा हूँ।।साहनी
 बस दीवानावार बनाना चाहे हो। या सचमुच का यार बनाना चाहे हो।। सच मे अपना प्यार बनाना चाहे हो। या ख़ाली बीमार बनाना चाहे हो।। इतना पागल होना अच्छी बात नहीं बेशक़ घर संसार बनाना चाहे हो।। इतराये फिरते हो हाथों में लेकर क्या ख़त को अखबार बनाना चाहे हो।। इतना मत चाहो बस इंसा रहने दो क्यों मुझको अवतार बनाना चाहे हो।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 अब मजदूरों पर दया नहीं आती। आज ये मजबूर हैं वरना ये  ख़ुद को मजदूर कहने में शर्माते हैं इनसे पूछो ये अपनों से  कैसे पेश आते हैं ये इनके हक़ की बात कहने वालों से दूरी बनाते हैं ये किसी मजदूर को वोट तक नहीं देते नहीं पढ़ते ये ऐसे घोषणा पत्र जिसमें सिर्फ इनकी बात लिखी हो ये पैसे लेकर रैलियों में जाते हैं लुभावने वादों पर तालियां बजाते हैं और तो और ये मजदूर हैं यह बात भूल जाते हैं और औक़ात भूलकर बाभन चमार या हिन्दू मुसलमान हो जाते हैं एक बोतल और हजार पाँच सौ के एवज में अपना वोट ईमान सब बेच आते हैं काश इन्हें पता होता कि ये  हजार पाँच रुपये के मोहताज नहीं ये इस देश के पाँच सौ लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था के मालिक हैं तब ये भी अपना वोट  लक्जरी कार मालिक की बजाय  किसी मजदुर को दे रहे होते। सुरेश साहनी कानपुर
कौन नफ़रत का उजाला कर गया। रोशनी का मुंह जो काला कर गया।। है मुहब्बत से भला नफ़रत किसे गर्क जो दिल का शिवाला कर गया।। उस गली की धूल थी चंदन मगर कोई  बारूदी  मसाला  कर गया।।
 शम्स से क्या कोई रफ़ाक़त है। जुगनुओं से अगर शिकायत है।।
 कल तलक थी हरी भरी दुनिया। आज क्यों है डरी डरी दुनिया।। जिसके कारण हैं नफ़रतें इतनी सच में है क्या वो दूसरी दुनिया।।साहनी
 दस्तकें क्यों मुझे नहीं मिलतीं क्या मैं अब भी तुम्हारे दिल में हूँ।।साहनी
 प्यार दुनिया है रज़्म है दुनिया। हद से बढ़कर तिलस्म है दुनिया।। इसमें सख्ती गुलों के जैसी है खार  जैसी  ही  नर्म है  दुनिया।। भीड़ के लोग कितने तन्हा है क्या खलाओं की बज़्म है दुनिया।। कैसे कह दें वो इस ज़हां से है उसकी मुझमें ही ख़त्म है दुनिया।। सिरफिरा है अदीब कहता है बस ग़ज़ल और नज़्म है दुनिया।। सुरेश साहनी अदीब
 मौत का एक दिन मुअय्यन है नींद क्यों रात भर नहीं आती।। मिर्जा ग़ालिब ने जब ये कहा होगा ,उस रात यक़ीनन वे सो नहीं पाए होंगे। अब किस कारण उन्हें नींद नहीं आयी होगी,यह अलग विषय है।एक नौकरीपेशा को नींद नहीं आने के तमाम कारण हो सकते हैं। फिर दिल्ली सरकार की नौकरी तो भगवान ही मालिक है। वो तो बादशाह पढ़े लिखे थे वरना कब नोटबन्दी हो गयी या कब सरकार से अडानी के मुलाजिम हो गए वाली स्थिति बनते देर नहीं लगती। किन्तु एक सबसे बड़ा कारण उनका स्वास्थ्य गड़बड़ होना भी रहा होगा।जिसके चलते वो रातभर सो नहीं पाए होंगे। जैसे कि मैं डाइबिटीज का मरीज हूँ और गैस्ट्रिक ट्रबल के चलते नींद नहीं आने पर चचा को याद कर रहा हूँ।   खैर चाचा बड़े वाले शायर थे सो उनके अशआर रात में भी नाज़िल होते रहे होंगे ।उन्हें पता था कि इस शासन में आम आदमी की परेशानियों का कोई इलाज नहीं है। जब तक जीवन है बीमारियां आती जाती रहेंगी।उन्होंने कहा भी है    ग़मेहस्ती का असद कैसे हो बज़ुज़मर्ग इलाज    शम्आ  हर रंग में जलती है सहर होने तक।। अभी मैं भी जाग रहा हूँ।ऑप्शन फार्म आने वाले हैं।परन्तु हमारा एंटायर पोलिटिकल कैल...
 साथ निभाना हो तो बोलो। वापस आना  हो तो बोलो।। हाथ पकड़ लो हिम्मत है तो या घबराना हो तो बोलो।। रोज बनाते आये हो तुम और बहाना हो तो बोलो।। सब कुछ मेरा जान चुके हो कुछ अनजाना हो तो बोलो।। चार कदम ही साथ चले हो मुड़ कर जाना है बोलो।।
 हुस्न वालों के हवाले क्या करें। सोचते हैं इश्क़ वाले क्या करें।।    तीरगी हो तो जला दें कुछ दिये नूर के आगे उजाले क्या करें।।साहनी
 प्यार के देवता तुम्हीं हो क्या। दर्द का वास्ता तुम्हीं हो क्या।। जिसने वादे किए थे जन्मों के यार वो बेवफ़ा तुम्हीं हो क्या।। जिस की ख़ातिर सज़ा मिली मुझको  हाय अहले-खता तुम्हीं हो क्या।।
 दौलते-हुस्न लुट भी सकता है इश्क़ कासा है कौन ले लेगा।। sahani
वही गया था कभी ज़िद में छोड़कर मुझको। उठा रहा है जो इतना झिंझोड़कर मुझको।।,  कभी उम्मीद कभी जर्फ और कभी दिल से कहां कहां से गया गम ये तोड़कर मुझको।। मैं रेत की तरह बिखरा हूं टूट कर लेकिन वो कह रहा है कि जायेगा जोड़कर मुझको।। निकल चुका हूं बहुत दूर हर तमन्ना से भला कहां से वो लायेगा मोड़कर मुझको।। कहां से अश्क इन आंखों में लेके आऊं अदीब गमों ने रख दिया जैसे निचोड़कर मुझको।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर 9451545132
 ख़ुद को ढूंढ़ें ज़रा कहाँ हैं हम। यां नहीं हैं तो क्या वहाँ हैं हम।। हर सु अपने निशान मिलते हैं कैसे कह दें कि बेनिशाँ हैं हम।।

ख़्वाजा

 दरे ख़्वाजा से बेहतर कोई ख़ाका हो नहीं सकता। मेरे मौला के जैसा कोई आका हो नहीं सकता।। मेरे ख्वाज़ा  वली-ए-हिन्द हैं जब  तक पासवां  अपने मेरे हिन्दोस्तां का बाल बांका हो नहीं सकता।। साहनी
 ज़िन्दगी क्या है फलसफा समझो उम्र भर ज़िन्दगी नही मिलती।। सुरेश साहनी
 आदमी लाचार है यारों बवा के सामने। हर कोई बीमार है यारों बवा के सामने।। अब हवा है हर दवा नकली हवा के सामने साँस तक व्यापार है यारों बवा के सामने।। ये न सोचो आदमी डर जायेगा मर जायेगा  युद्ध को तैयार है यारों हवा के सामने।। दूसरी सरकार है उस राज्य में दोषी यहाँ कौन जिम्मेदार है यारों बवा के सामने।। अब न कोरोना बचेगा क्योंकि लड़ने के लिए देश ख़ुद तैयार है यारों बवा के सामने।। सुरेश साहनी, कानपुर
 मीर गालिब से मुतास्सिर इक गजल। आपकी खिदमत में हाज़िर इक ग़ज़ल।। फिर ग़ज़ल कहने की ख़ातिर इक ग़ज़ल। हो  गई  बे पैर ओ सिर  इक  ग़ज़ल।। क्या ज़रूरी है रदीफो- काफिया क़ैद से निकली है शातिर इक ग़ज़ल।। लड़खड़ा कर हो गयी है बे बहर मयकदे  से लौटकर फिर इक ग़ज़ल।। शेख का इस्लाम ख़तरे में न हो रोज कहता है ये काफ़िर इक ग़ज़ल।। गिर चुके हैं जब सहाफी औ अदीब शोर क्यो है जो गयी गिर इक ग़ज़ल।। साहनी सुरेश 9451545132
 लोग मुहब्बत को रुसवा भी करते हैं। और मुहब्बत को तरसा भी करते हैं।।   बेशक़ प्यार न पाएं सब  कुछ खो कर भी ये दिल वाले प्यार वफ़ा भी करते हैं।।साहनी
 बेटियों को कब बचाओगे लिखो। बेटियों को क्या पढ़ाओगे लिखो।  चुप थे तुम जब रो रही थी बेटियाँ कल समय को क्या बताओगे लिखो।। साहनी
 एक गुंडा तुम्हारी जात का है। एक गुंडा हमारी जात का है।। बेटियां एक घर की होती हैं गुंडा हर दल का है जमात का है।।साहनी
 आम आदमी के बारे में भी लिक्खो। और गरीबी के बारे में भी लिक्खो ख़्वाब बड़े सुन्दर सुन्दर लिख लेते हो कभी ज़िन्दगी के बारे में भी लिक्खो।।साहनी
 परिंदे ठीक से तो सो रहे हैं। शज़र किस बात पर फिर रो रहे हैं।। उधर कुछ बेटियां सहमी हुई हैं उधर मंत्री जी क्यों खुश हो रहे हैं।। जो हम पर कर्ज बढ़ता जा रहा है तो धन पशुओं को हम क्यों ढो रहे हैं।। उधर देखो सचिन भगवान है ना खिलाड़ी क्यों सड़क पर सो रहे हैं।। वो अपराधी हमारी जाति का है हम अपनी सोच में क्या बो रहे हैं।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कहो तो मुस्कुरा कर क्या करोगे। हमारा दिल चुरा कर क्या करोगे।। जिसे तुम आज़माना कह रहे हो सताना है सता कर क्या करोगे।। किसी की जान जा सकती है जानम न जाओ दूर जा कर क्या करोगे।। अज़ल से है ज़माना दुश्मने-जां ज़माने को बता कर क्या करोगे।। क़यामत दूर से भी ढा  रहे हो सनम पहलू में आ कर क्या करोगे।।  सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 सोच रहा हूँ कुछ दिन ख़ुद को ख़ुद से दूर रखूँ सोच रहा हूँ कुछ दिन अपने मन के पास रहूँ।। मेरे दर्पण  में वैसे मेरा ही चेहरा है उस पर मेरी आत्म मुग्धता का भी पहरा है मुझमें मैं हूँ या मेरे जैसा ही कोई है कैसे पूछूँ मन गूंगा है दर्पण बहरा है दर्पण  के बाहर जो मैं हूँ कैसा दिखता हूँ उसे देखने को निज अन्तर्मन के पास रहूँ।। मोह जगा तो मुझे लगा हर कोई अपना है जब विरक्त मन हुआ लगा जग सारा सपना है अनासक्ति का भाव अगर मुझसे जग जाता तो कौन  बताता किसको तजना किसको जपना है प्रभु कस्तूरी गंध कहाँ है कौन बतायेगा वन वन भटकूँ या फिर भाव हिरन के पास रहूँ
 खार फिर भी निबाहते आये। गुल फ़क़त ख़ुद को चाहते आये।। हुस्न वाले उरूज पर अपने कस्रेदिल कितने ढाहते  आये।। एक जैसे थे ज़ख़्म  दोनों के हुस्न वाले कराहते आये।। मुस्कुराने का दोष था हममें हम कहाँ किसको डाहते आये।। हम थे ख़ामोश दर्द सहकर भी जबकि क़ातिल उलाहते आये।। हर अदा उनकी जानलेवा थी हर अदा हम सराहते आये।। आपके ग़म लिए थे बदले में आप क्या क्या उगाहते आये।। सुरेश साहनी कानपुर
 ग़ज़ल मेरी कहाँ थी वो तुम्हारी तर्जुमानी थी। कहो क्यों तर्क की तुमने तुम्हारी तो कहानी थी।। मुझे महफ़िल से क्या लेना किसी को क्यों बताए हम तुम्हीं से अपनी रौनक थी तुम्ही तो जिंदगानी थी।। कभी खट्टी कभी मीठी कई बातें ज़रूरत बिन तुम्हारे साथ गुज़रे पल तुम्हारे साथ बीते दिन वो पगडंडी वो मेड़ों पर गुज़ारी लंतरानी थी।। झगड़ना शाम बंधे पर सुबह हँस कर बुला लेना चलो स्कूल चलना है ये कहकर साथ चल देना न शर्माना न इतराना न मन में गांठ आनी थी।। अभी मैं आप हूँ शायद अभी तुम भी कहाँ तुम हो कहाँ ढूंढू स्वयं को मैं अभी तुम भी कहीं गुम हो समय था पास क्यों लाया अगर दूरी बनानी थी।।साहनी
 हम भी किन से आस लगाए रहते हैं। जो अपनों का दर्द बढ़ाये रहते हैं।। वे आतुर हैं हमें दबा कर रखने को हम जिनको सिर पर बैठाए रहते हैं।। शर्म नहीं आती सरमायेदारों को हम हर धंधे से शरमाये रहते हैं।। हम ही चुनते हैं अपराधी को नेता फिर उनसे हम ही घबराए रहते हैं।। गुण्डों बदमाशों की जाति नहीं होती लोग न जाने क्यों अपनाए रहते हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 मस्त रहो चिंता छोड़ो ना! डरना क्या। क्या कर लेगा ये कोरोना डरना क्या।। एहतियात रक्खो दो गज की दूरी भी अपने घर बिंदास रहो ना! डरना क्या।। हाथ जोड़ कर राम राम प्रणाम करो हाथ मिलाना अब छोड़ो ना! डरना क्या।। बाहर से आने पर इतना ध्यान रहे पहले तुरत नहाना धोना डरना क्या।। सेनेटाइज करना घर की चीज़ों को खुद भी सेनेटाइज होना डरना क्या।।
 बाँध लगभग तैयार हो चुका था। ठेकेदार  अब मज़दूरों के पीछे पड़ गया था।उसे शायद बहुत जल्दी थी।या ऊपर से आदेश था कि मंत्री जी चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पहले उद्घाटन करना चाहते थे।    ठेकेदार, बाँध निर्माण निगम के अफसरान और सम्बंधित समितियों की आवाजाही बढ़ गयी थी। बाँध निर्माण में बाधाएं भी आई थीं।कभी बारिश कभी मिट्टी धसकना कभी अन्य प्राकृतिक आपदा और कभी पर्यावरणवादियों के दवाब ने कार्य लंबित होते रहे।मंत्री जी ठेकेदार पर मेहरबान थे अतः निर्माण लागत से दुगुने रकम की स्वीकृति भी मिल गयी थी।अब केवल उस अतिरिक्त रकम के बंदरबांट को लेकर ही उहापोह चल रही  थी। क्योंकि मंत्री जी अगले चुनाव की व्यवस्था इसी राशि के अंतर्गत चाह रहे थे।  उधर इन सब गतिविधियों से अलग वे मजदूर जो इस बाँध के निर्माण की शुरुआत से कार्यरत थे।वे ज़रूर चिंतित थे।एक लंबे अरसे से वे सब इस प्रोजेक्ट से जुड़े थे।अब क्या होगा!क्या नए ठेके में काम मिलेगा!क्या ठेकेदार पिछले बकाए का भुगतान करेगा!!!  ऐसी तमाम चिंताएं मजदूरों की नींद उड़ा चुकी थीं।     दीनानाथ इन कामगारों की बात आगे बढ़ के रखता...
 मेरे चेहरे पे जो नूर आया है। ये मुहब्बत से हुज़ूर आया है।। a मुझको देखा है मेरे साक़ी ने मेरी आँखों मे सुरूर आया है
 कहन तो ठीक है उसकी मग़र न जाने क्यों।। वो झूठ बोल के लगता है मुस्कुराने क्यों।। न जाने उसने हुनर ये कहाँ से सीखा है ज़रा सा बोल के लगता है सच छुपाने क्यों।। उसे गिला किसी दुश्मन से है नहीं मालूम तो दोस्तों को ही लगता है आज़माने क्यों।। किसी की फ़िक्र में रोता नहीं मग़र अक्सर उदासियों में वो लगता है गुनगुनाने क्यों।। कि नफ़रतें तो जलाती हैं बस्तियाँ लेकिन मुहब्बतों में उजड़ते हैं आशियाने क्यों।। सभी कहे हैं ये उजड़े हुओं की है महफ़िल तो ज़िंदाबाद हैं इनसे शराबखाने क्यों।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 किसी के सर पे मयस्सर नहीं है छत कोई किसी की शान पे लगते हैं शामियाने क्यों।।
 क्यों न ये राह अख्तियार करें। जितना कर पायें ख़ुद से प्यार करें।। दूसरों पर भले भरोसा है अपनी हस्ती पे एतबार करें।। सब ये कहते हैं अब सुधर जाओ बिगड़े कब थे जो अब सुधार करें।। कैसा लोनिक है सबको खुश रखें अपनी खुशियों का इंतज़ार करें।। अपनी तस्वीर भी बदल डालें पहले चलकर ज़रा सिंगार करे।। साहनी सुरेश 9451545132
 न कुछ पूछा गया मुझसे न कुछ बताया गया। तो किस गुनाह पे मुजरिम मुझे ठहराया गया।। मुझे सजा मिली हैरत नही मलाल नहीं मेरा कातिल मेरा मुंसिफ़ अगर बनाया गया।। मेरा वकील भला था मगर ग़रीब भी था मुझे पता है उसे किस तरह पटाया गया।। सुरेश कौम ने अब देवता क़ुबूल किया पता चला मुझे जब दार पे चढ़ाया गया।। सुरेश साहनी,कानपुर मुन्सिफ़-न्यायाधीश ^दार-सूली
 दुनिया के मजदूरों एक हो ! कहते कहते हम थक गए , लेकिन एक नहीं हुए . मार्क्स को एंजेल्स ने समझा , एंजेल्स की औलादों ने समझा ' और दुनिया भर के सरमायेदार- एक हो गए । सब जहाँ से कमाते हैं , पैसा वहां से दूर रखते हैं , दूर मतलब विदेश । विदेश केवल हमारे लिए , उनका तो ग्लोबल मार्किट है ।
 दिल की किश्ती को किसी और किनारे ले चल। चल जहाँ ले के चलें वक़्त के धारे ले चल।। आंधियां तेज हैं तूफां भी अड़े हैं ज़िद पर चल इन्हीं तुंद हवाओं के सहारे ले चल।। मुझको उनके लिए जीना भी है मरना भी है चल कि रहते हैं जहाँ वक़्त के मारे ले चल।। ज़ुल्म की उम्र है दो चार बरस बीस बरस इसके आगे तो सिकन्दर भी हैं हारे ले चल।। तुझको लगता है कि तू बांध के ले जाएगा तुझसे बेहतर भी गए हाथ पसारे ले चल।। नेकियां साथ में जाएंगी ये तदफीन नहीं मेरे आमाल हैं बेहतर तो उघारे ले चल।। तेरी ज़ुल्फ़ों के तो सर होने के  इमकान नहीं कौन उलझी हुई किस्मत को सँवारे ले चल।।  शाम होती है हर इक ज़ीस्त की रोता क्यों है वक़्त से पहले भी डूबे हैं सितारे ले चल।। चल जहाँ राम नहीं सारी अयोध्या डूबी साहनी को उसी सरजू के किनारे ले चल।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 औरों के सुख के लिए सदा जिये बेचैन। आज वही बेचैन जी नहीं रहे बेचैन।।साहनी
 हम उनको ख़ुदा मान लें हमसे तो न होगा। बेशक़ वो मेरी जान लें हमसे तो न होगा।। हम उनके किसी कुफ़्र पे हामी न भरेंगे वो तेग भले तान लें हमसे तो न होगा।।
 कुछ ऐसी बीमारी भी। कुछ तन की लाचारी भी।। फिर अपने ही ऊपर है घर की जिम्मेदारी भी।। खुद ही रुकना पड़ता है अपने फ़र्ज़ निभाने को ख़ुद ही करनी पड़ती है चलने की तैयारी भी।। अपनों ने ठुकराया जब ग़ैरों ने समझाया तब माना फ़र्ज़ बड़ा है पर सीखो दुनिया दारी भी।।
 इंद्रप्रस्थ की खुशियों को युग तक्षक ने काटा है। उपहासों से एक रुदाली ने घर को बांटा है।। संस्कार पड़ गया जहाँ पर किसी शकुनि के हाथों वहाँ पितामह को भी अक्सर पुत्रों ने डांटा है।। किसी महाभारत को रोके जाने की   कोशिश में कृष्ण नीति है पाँच गांव देने मे क्या घाटा है।। युद्ध बहुत से हुए किन्तु क्या घृणा खत्म हो पाई सदा प्रेम ने ही नफ़रत की खाई को पाटा है।। आज ऑक्सीजन की खातिर वो भी भटक रहे हैं जिनके घर में एसी है कूलर है फर्राटा है।। सदा नहीं रहने पर उनके लाभ समझ मे आये लगता था जिनका होना ही जीवन का घाटा है।।  सब कहते हैं शोर बहुत है कोरोना के कारण मुझे दिख रहा बस्ती में मरघट का सन्नाटा है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 ये खता एक बार करके हम। ख़ूब पछताए प्यार करके हम।। फिर किसी और के न हो पाए आपका इंतजार करके हम।। आपको दिल नगद ही दे बैठे अपनी खुशियां उधार करके हम।। रह न पाए यकीन के काबिल आप पर एतबार करके हम।। आज खानाखराब बैठे हैं उनकी दुनिया संवार करके हम। सुरेश साहनी कानपुर
 फिर मैं दर्द सुनाता किसको। दिल के जख्म दिखाता किसको।। पीड़ाओं को जीता किसकी पीड़ाओं में गाता किसको।।
 बेशक इंकलाब को हम बेकार समझते हैं। उसकी ताकत तो सरमायेदार समझते हैं।। आख़िर मेहनत की ताकत  तुम किस दिन समझोगे पूँजी वाले तो तुमको बेकार समझते हैं।। वो कल का लइमार हमें लइमार बताता है और उसे अब हम अपनी सरकार समझते हैं।। हम गरीब हैं मेहनतकश ही जात हमारी है हम पागल ख़ुद को सैयद अंसार समझते हैं।। हम अपने वोटों की ताकत  कब पहचानेंगे जिसकी कीमत हम दारू की धार समझते हैं।। हम खुद को मजदूर बताते हैं तो शर्माकर शायद हम सब खुद को ओहदेदार समझते हैं।। सुरेश साहनी कानपुर
 हम मीलों दूर निकल आये हासिल दो चार  कदम था बस। हम भटके ख़ुद की लाश लिये जीना भी एक वहम था बस।
 ज़ख़्म  थे तो नहीं हरे फिर भी। जाने क्यों कर नहीं भरे फिर भी।। वार उसके लिहाज में झेले जबकि आते थे पैंतरे फिर भी।। जबकि मालूम था न सुधरेंगे हम पे माइल थे दूसरे फिर भी।। हमसे छूटी न कोशिशे-ताबीर ख़्वाब सब फूल से झरे फिर भी।।  ज़िन्दगी ग़म से दूर करती क्या मौत तो ले गयी परे फिर भी।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
सच बड़े नामुराद हैं बैंगन इनसे बेहतर हैं सन्तरे फिर भी।। जबकि दावा है स्वच्छ शासन का आमजन हैं डरे डरे फिर भी।।
 इसने इक अपनापन माना बेशक़ अपना दुश्मन माना उनसे तो बेहतर ये ठहरा जिनको अपना जीवन माना
 मजदूर कौन से मजदूर जाति के नाम पर लड़ने वाले मजदूर या मज़हब के नाम पर नफरत करने मजदूर मुर्गा दारू लेकर बहकने वाले मजदूर या पाँच किलो राशन ,केरोसिन और  चिलम तम्बाकू पर वोट बेचने वाले मंज़ूर कौन से मजदूर मेहनत की कमाई दारू में डुबाने वाले मजदूर या देर रात पतुरिया का नाच देखते मजदूर घर मे आटा दाल नहीं होने पर पत्नी को पीटते मजदूर या अपने बच्चे को शिक्षा से दूर रखकर बाल श्रमिक बनने    को मजबूर करते मजदूर कौन से मजदूर जुल्म सहकर प्रतिरोध नहीं करने वाले मजदूर या जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने वाले साथी का साथ नहीं देने वाले मजदूर या हक़ के लिए लड़ने वाले साथी के खिलाफ  चुगली करते मजदूर या किसी मज़दूर साथी के विरुद्ध मालिकों से गठजोड़ करते मजदूर आप किनके एक होने की बात करते हैं ये डंडों झंडों में बंटे मजदूर या बेगारी करते अंधभक्ति में डूबे मजदूर छोड़िए भी अब मजदूर नही  दुनिया भर के मालिकान एक हो चुके हैं..... सुरेश साहनी ,कानपुर
 क्या मिला आपको अलम लेकर। बस भटकते रहे कदम लेकर।। घुट गया दम किसी मुहब्बत का इश्क़ में इक ज़रा वहम लेकर।।
 फिर बटाटा कि सन्तरे रहिये। जो भी रहिये मग़र खरे रहिये।। राम का ही लिहाज़ कर लीजै मत किसी से डरे डरे रहिये।।
 किस ज़हाँ में यार मैं तुमसे बिछड़ कर जाऊंगा। ये तो तय है तुमसे बिछडूंगा तो मैं मर जाऊंगा।। तुम न तन्हा रह सकोगे वस्ल इक होने के बाद जीस्त के  हर खालीपन में मैं ही में भर जाऊंगा।।साहनी
 कहन तो ठीक है उसकी मग़र न जाने क्यों।। वो झूठ बोल के लगता है मुस्कुराने क्यों।। न जाने उसने हुनर ये कहाँ से सीखा है ज़रा सा बोल के लगता है सच छुपाने क्यों।। उसे गिला किसी दुश्मन से है नहीं मालूम तो दोस्तों को ही लगता है आज़माने क्यों।। किसी की फ़िक्र में रोता नहीं मग़र अक्सर उदासियों में वो लगता है गुनगुनाने क्यों।। कि नफ़रतें तो जलाती हैं बस्तियाँ लेकिन मुहब्बतों में उजड़ते हैं आशियाने क्यों।। सभी कहे हैं ये उजड़े हुओं की है महफ़िल तो ज़िंदाबाद हैं इनसे शराबखाने क्यों।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132