आपकी बदमाशियों पे फ़ख्र है।। आपकी लफ़्फ़ाज़ियाँ भी खूब हैं आपकी बूबासियों पे फ़ख्र है।। काश मिल जाती फ़क़ीरी आपकी आप से सन्यासियो पे फ़ख्र है।। बस गये वो जाके इंग्लिस्तान में कह रहे ब्रजबसियो पे फ़ख्र है।। आप के दोहरे चरित पर नाज है आप से बकवासियों पर फ़ख्र है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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Showing posts from May, 2024
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जिंदगानी यूँ खतम करते नहीं। हाँ कहानी यूँ खतम करते नहीं।। सल्तनत दिल की बढ़े चाहे घटे राजधानी यूँ खतम करते नहीं।। सूख जाए ना समन्दर ही कहीं ये रवानी यूँ खतम करते नही।। कुछ अना से कुछ ख़ुदा से भी डरो हक़बयानी यूँ ख़तम करते नहीं।। शक सुब्ह नजदीकियों में उज़्र है शादमानी यूँ खतम करते नहीं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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हर एक शख़्स में इंसान नहीं होता है। जो समझ ले वो परेशान नही होता है।। तुम उसे पूज के भगवान बना देते हो कोई पत्थर कभी भगवान नही होता है।। पशु व पक्षी भी समझते हैं मुहब्बत की जुबाँ कौन कहता है उन्हें ज्ञान नहीं होता है।। आज विज्ञान ने क्या ख़ाक तरक्की की है मौत का आज भी इमकान नही होता है।। ये सियासत है यहां और मिलेगा सबकुछ इनकी दुनिया में इक इमान नहीं होता है।। देश-दुनिया के मसाइल तो पता हैं इनको इनसे रत्ती भी समाधान नहीं होता है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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ऐ ख़ुदा मालिके ज़हां होकर। क्यों भटकता है लामकां होकर।। तू यहां से पनाह मांगेगा एक दिन देख तो अयां होकर।। हाथ खाली गया सिकंदर भी क्या मिला रुस्तमे ज़मां होकर।। उस अलॉ ने भरम ही तोड़ दिया जब मिला वह मुझे फलां होकर।। चार दिन की चमक पे शैदा शय एक दिन रहती है धुआं होकर।। सिर्फ़ दो गज ज़मीन दे पाया शख्सियत से वो आसमां होकर।। मौत के साथ ही निकल भागी बेवफा जीस्त मेरी जां होकर।। सुरेश साहनी कानपुर
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हम सरमायेदारों को कितना रिस्क उठाना पड़ता है। इस दर्द को सत्तर सालों में पहले नेता ने समझा है।। तुम सब को केवल एक फ़िकर वेतन बोनस या पेंशन है पर हम को तो दुनिया भर के रगड़े झगड़े औ टेंशन है इन सब में कुछ को सुलटाना कुछ को निपटाना पड़ता है।। तुमको मालुम है भारत की जनता भारत की आफत है दस बीस करोड़ गरीब अगर ना हो तो भी क्या दिक्कत है जाने कितना सरकारों को इन सब पे लुटाना पड़ता है।। फिर तुम सबको हर हालत में जीने की गंदी आदत है शहरों से लेकर गांवों तक हर जगह तुम्हारी ताकत है तुम सब के कारण ही हमको चंदा पहुँचाना पड़ता है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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कितने चलते फिरते मुरदे। ढूंढ़ रहे हैं दूजे कंधे ।। इसकी हद तय करना लाज़िम आख़िर कोई कितना लादे।। तन से योगी मन से भोगी दुनिया भर के गोरख धंधे।। धन को मैल बताने वाले छुप छुप लेते ऊँचे चंदे ।। नेता अफसर योगी भोगी तन के उजले मन के गंदे।। गंगा क्यों ना मैली होती नहलाने पर ऐसे बन्दे।। सब बारी बारी गिरने हैं अंधा गुरू शिष्य भी अंधे।। हंसते हंसते फँसे साहनी नैतिक हैं माया के फंदे।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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तीर उनके कमान अपनी थी। उनकी बाज़ी पे जान अपनी थी।। सबने नाहक़ हवा पे तंज़ किये शौक़ उनके उड़ान अपनी थी।। वो दवा की जगह ज़हर वाली माल उनका दुकान अपनी थी।। हम तो मोहरा थे ऐसे हाथों के जीत गैरों की शान अपनी थी।। हम भी मेड इन जापान रखते थे आन अपनी थी बान अपनी थी।। अपनी ग़ैरत पे रख के हार गये बात उनकी ज़ुबान अपनी थी।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मत पूछो वे मेरे क्या थे। कुछ कुछ मेरी भी दुनिया थे।। खाक़ करीबी नापे जोखें तुम कितने थे हम कितना थे।। कितनों को आशीष मिला था कितनों के पोषण कर्ता थे।। यति गति लय से युत प्रवाहमय वे कवि थे या ख़ुद कविता थे।। बन्धु मित्रवत मित्र बन्धुवत भ्रात तात गुरु पितु माता थे।। विषय विशेष विशेषण अनुपम क्या कमलेश महज संज्ञा थे।। ब्रम्ह लीन हो गए ब्रम्ह ख़ुद क्या वे एक सुखद सपना थे।। कमलेश जी के सम्मान में सुरेश साहनी, कानपुर
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वो मुझे समझा रहा है ज़िंदगी के मायने। जिसको मालुम ही नहीं है बंदगी के मायने।। तुमने उसके होठ देखे ही नहीं है इसलिए तुम नहीं समझोगे मेरी तिश्नगी के मायने।। तुमने ढूंढा हैं कभी सहराओ में सागर कोई खाक समझोगे मेरी दीवानगी के मायने।। हुस्न पर वहशी निगाहें डालने वाले बशर कब समझते हैं नज़र की गंदगी के मायने।। शख्स जो झिलमिल सितारों में रहा है उम्र भर उसको क्या मालूम क्या हैं तिरगी के मायने।। मौत से अकड़े बदन को देखकर हैरां है वो पूछता है जीस्त की अफसूर्दगी के मायने।। घर से मस्जिद और फिर मस्जिद से घर करता नहीं जो समझता इश्क में आवारगी के मायने।। सुरेश साहनी कानपुर
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अपनी आंखों में सौ सौ मैखाने रखता है। और गुलाबी होठों के पैमाने रखता है।। नीम खुमारी उन आंखों में अक्सर दिखती है जाने कैसे अपना होश ठिकाने रखता है।। बेशक उसकी प्रेम कहानी सुनी नहीं लेकिन उसका चर्चा उसका परचम ताने रखता है।। कोई राब्ता कोई तअल्लुक होगा ही होगा क्यों कोई तस्वीर मेरी सिरहाने रखता है।। लाख हसीं हो ये दुनिया उसकी दीवानी हो पर सुरेश का शायर होना माने रखता है।।
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उजाला कुछ घरों बंट रहा है। चलो कुछ तो अँधेरा छँट रहा है।। शराफ़त है अगर कमजर्फ होना तो अब इस से मेरा मन हट रहा है।। हुकूमत हर तरफ इब्लिस की है भरोसा उस खुदा पर घट रहा है।। जुबां जिसकी कटी सच बोलने में ज़माना भी उसी से कट रहा है।। बढ़े जाते हैं नफ़रत के कबीले मुहब्बत का पसारा घट रहा है।। जुबां शीरी कपट है जिसके दिल मे ज़माना भी उसी से सट रहा है।। साहनी सुरेश
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#एकपावबिजलीदेना। आंधी पानी आने के बाद पूरे कानपुर शहर की नागरिक व्यवस्थाएं अस्त व्यस्त हो गयी थी।कानपुर अपनी हरियाली के लिए जाना जाता है।लेकिन इस चक्रवाती हमले से सर्वाधिक नुकसान पेड़-पौधों को ही हुआ।कानपुर नगर निगम के साथ नागरिक प्रशासन ने पूरी तन्मयता से अभियान चलाकर जगह जगह गिरे पेड़ पौधे, और उनके अवशेषों का संग्रह विसर्जन किया।ठेके पर कार्य करने वालों ने अपने अनावश्यक व्यय, मानव श्रम और डीजल आदि संसाधन खूब बचाये।सरकारी सफाई कर्मियों ने जनता को राहत पहुचाते हुए कूड़ा कर्कट जहाँ है जैसा है के आधार पर बरसात का इंतज़ार करने के लिए कह कर छोड़ दिया।हमें वे लोग और हमारी जनता भी तुलसी बाबा से प्रेरित लगते हैं।होइहिं सोई जो राम रचि राखा।।'की भावना हमारे यहां जनजन में विद्यमान है। खैर हमारा असली मकसद विद्युत् व्यवस्था पर लिखना था। क्योंकि आँधी तूफान के बाद विद्युत व्यवस्था भी लड़खड़ा जाती है।जगह जगह पेड़ों के गिरने से तार टूटते हैं ,खम्भे गिरते हैं।शार्ट सर्किट होते हैं ,और ट्रांसफार्मर बिगड़ते हैं।ऐसे में विद्युत अधिकारीयों से लेकर कर्मचारियों तक की हालत खराब हो जाती है।विद्युत उपकेंद्रों...
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भारत में कितने भारत हैं। तुम क्या हो यदि हम भारत हैं।। गांवों में बसता है भारत कुटियों में रहता है भारत दूर गांव से आते आते कैसे खो जाता है भारत क्या दिल्ली में कम भारत हैं।। भारत गांवों से बनता है पर ऐसा क्यों हो जाताहै गांवों से चलकर शहरों में वही इण्डिया हो जाता है कैसे कह दें हम भारत हैं।। मरते सीमा पर जवान हैं खेतों में मिटते किसान हैं हमसे सौतेलापन क्यों हैं हम भारत के नवजवान हैं सपने और भरम भारत हैं।। रोज निर्भया रोज दामिनी बन नालों की अंकशायिनी गंगा होती रोज पतित है मोक्षदायिनी खुद दूषित है क्या क्लब और हरम भारत हैं।।
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मैं एक आदमी हूँ कितने ग्रुपों में जाऊँ किस किस के पेज देखूँ क्या ख़ुद को भूल जाऊँ।। एक एक घण्टे वाले चालीस वीडियो हैं। ग्रुप चैट के हज़ारों मैसेज हैं आडियो हैं।। जो मुझको चाहते हैं सौ से अधिक नहीं हैं। क्या मेरी ज़िम्मेदारी कुछ उनके प्रति नहीं हैं।। टैगासुरों के हमले बढ़ते ही जा रहे हैं। कर दूँ अमित्र सिर पर चढ़ते ही जा रहे हैं।। कुछ वक्त अपनी ख़ातिर मैं भी निकाल पाऊं। उतना ही मुझ पे लादो जितना सम्हाल पाऊं।। सुरेश साहनी, कानपुर
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ज़ीस्त कब तक गुजारते तन्हा। किसलिए ख़ुद को मारते तन्हा।। दिल उजड़ना है खुद में तन्हाई ख़ुद को कितना उजाड़ते तन्हा।। अश्क़ बनकर गिरे निगाहों से जिस्म कैसे उतारते तन्हा।। तुम मेरे पास थे चलो माना फिर भी कब तक पुकारते तन्हा।। आईना था तुम्हारी आँखों मे खुद को कैसे संवारते तन्हा।। मेरी नज़रे तुम्हारी आदी है और किसको निहारते तन्हा।। मय न होती तो साहनी ख़ुद को ग़म से कैसे उबारते तन्हा।। सुरेश साहनी, कानपुर
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ठीक वैसे ही हम यहाँ आये। जैसे मक़तल में मेहमां आये।। आप रोते हुए ही आये थे मत कहें हम थे शादमा आये।। आपके पास भूल आये हम या कहीं और दिल गुमां आये।। अपनी ऊंचाईयों के रस्ते में कोई दूजा न आसमां आये।। गुफ्तगू आपसे हमारी हो ग़ैर क्यों अपने दरमियाँ आये।। चार दिन में बुला लिया मालिक हम तो नाहक़ तेरे ज़हां आये।। सुरेश साहनी कानपुर
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क्या कभी वे इधर नहीं आते। क्यों उन्हें हम नज़र नहीं आते।। महज़बीनों को देख लेते हैं दीद में हम मगर नहीं आते।। भर मुहल्ले में झांकते हैं वो सिर्फ़ अपने ही घर नहीं आते।। कशमकश में है अबकी ईद अपनी वे जो अब बाम पर नहीं आते।। सल्तनत होती यदि ग़ज़लगोई दाग़ आते जिगर नहीं आते।। ऐसे ख़्वाबों की उम्र होती है ख़्वाब ये उम्र भर नहीं आते।। साहनी क्यों न छोड़ दें उनको वे अगर राह पर नहीं आते।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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ख़ुद को नाशाद तो नहीं करते। जीस्त बरबाद तो नहीं करते।। हुस्न जव्वाद हो न हो यारब हम भी फ़रयाद तो नहीं करते।। हिचकियाँ अब भी मुझको आती हैं तुम मुझे याद तो नहीं करते।। आदतन दिल की राजधानी को दौलताबाद तो नहीं करते।। हुस्न माना कि माबदौलत है इश्क़ मुनकाद तो नहीं करते।। इश्क़ हरदम जवान रहता है इश्क़ अज़दाद तो नहीं करते।। इश्क़ के साथ ये ज़हां वाले कोई बेदाद तो नहीं करते।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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दुनिया में दहशतगर्दी है होने दो। जो है उस प्रभु की मर्जी है होने दो।। दुनिया में शैतान हुकूमत करता है इसमें उसकी क्या गलती है होने दो।। फर्जी राशन कार्ड बहुत है दिक़्क़त है नेता की डिग्री फर्जी है होने दो।। अपने बारी आने तक चुप रहती है दुनिया कितनी अलगर्जी है होने दो।। प्यार मुहब्बत धीरे धीरे होती है फिर ऐसी भी क्या जल्दी है होने दो।। मेरे ऐसा लिखने पर नाराज़ न हो अपनी आदत ही ऐसी है होने दो।। सुरेशसाहनी
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मैं अपने एकाकीपन को किधर छोड़ दूं कहाँ झटक दूँ जहाँ गया मैं वहीं आ गया मेरा दामन पकड़े पकड़े कभी कभी अपने बेटे को किसी शाम जब ले आता हूँ इसी पार्क में वह अंगुली थामे रहता है उसे पता है उसकी सारी उत्कंठाओं का मैं हल हूँ एक बार वह भटक गया था हम दोनों ने बहुत देर तक एक दूसरे को खोजा था और पसीने की बूंदे तब मेरे माथे से टपकी थी उस सर्दी में शायद मेरा- बेटा भी कुछ सहम गया था खैर आज वह साथ हमारे पुलकित मन से टहल रहा है मुझे पता है जब तक मैं हूँ वह एकाकी नहीं रहेगा किन्तु मेरे एकाकीपन को लौटा कर मेरे बचपन को सिर्फ पिता ही भर सकते हैं जो अब मेरे साथ नहीं हैं दूर अकेले आसमान में एक सितारा देख रहा है शायद वह ही मेरे पिता हैं.....
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मैं अपना संकुचित हृदय ले आऊंगा जब प्यार जताने तब तुम अपने पूरे हक़ से प्रणय निवेदन ठुकरा देना मैंने कब चाहा तुम जाओ बागों में वन या उपवन में तुमको चूमे मलय समीरें आग लगायें मेरे मन में ऐसे दृष्टिकोण से तुमको जब जब आऊं प्यार जताने तुमको हक़ है तब तुम मुझको बिन देखे ही लौटा देना..... तुम सा सुन्दर साथी प्रियतम कौन नहीं पाना चाहेगा कौन नहीं तव अन्तस् प्रिय आलय बनवाना चाहेगा प्रेम कसौटी पर कसना तुम जो आये अधिकार जताने मैँ भी अगर खरा ना उतरूँ हक़ से खोटा ठहरा देना.......
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करके घात नहीं आये हो।। फिर क्यों साथ नहीं आये हो। आख़िर किसके साथ कटी है पूरी रात नहीं आये हो।। सूख रहीं हैं भीगी पलकें कब से याद नहीं आये हो।। खुद में भी तुम को ही देखूं इतने पास नहीं आये हो।। आँखे तो बरसी हैं हाँ तुम इस बरसात नहीं आये हो।। इश्क़ तकल्लुफ़ कब चाहे हैं मुद्दत बाद नहीं आये हो।। *सुरेशसाहनी* कानपुर
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आईना हूँ जिसको पत्थर समझे हो। क्या तुम मुझको मीत बराबर समझे हो।। मैं इंसां हूँ कैसे तुमको समझाऊं तुम तो मुझको खालिश शायर समझे हो।। अपने घर में यार तकल्लुफ ठीक नहीं मेरे घर को कब अपना घर समझे हो।। मेरे उनके सबके घर धरती पर हैं एक तुम्हीं खुद को अम्बर पर समझे हो।। करते हो जितनी बातें बेमतलब हैं क्या तुम अपने को मतलब भर समझे हो।।
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फिर मेरे सब्र का पारा टूटा। कस्रे-दिल जबकि दुबारा टूटा।। इक नदी टूट के रोई फिर से फिर तसल्ली का किनारा टूटा।। वो ख़ुदा भी रहा आदम की पनह जब ख़ुदा का था पसारा टूटा।। मैंने दिल तुमको दिया था यारब ये भी टूटा तो तुम्हारा टूटा ।। फिर ख़ुदा ने दिया धोखा शायद फिर ख़ुदाई का सहारा टूटा।। कोई तो बात हुई है घर मे कैसे आंगन से ओसारा टूटा।। मेरी आँखों मे अंधेरा चमका और क़िस्मत का सितारा टूटा।। तेरी तस्वीर भी होगी ज़ख्मी शीशाए-दिल जो हमारा टूटा।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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अंधेरों से उजाला चाहते हैं। जो गिद्धों से निवाला चाहते हैं।। तबाही ही मिली डिस्टेनसिंग से मगर वो अब भी पाला चाहते हैं।। बनाना चाहते हैं मुल्क़ ग्लोबल हमारा घर निकाला चाहते हैं।। हम उनके हैं यकीं करने की ज़िद में वो इन पैरों में छाला चाहते हैं।। वो कैसे मान लें नानी का घर है कि बच्चे चार खाला चाहते हैं।। कफ़न मुर्दों पे होना चाहिए था जिसे सिस्टम पे डाला चाहते हैं।। चमन अपना उजड़ जाने से पहले परिंदे भी उठाला चाहते हैं।। जहर देगा हमें मालुम है फिर भी उन्हीं हाथों से हाला चाहते हैं।। कि यूँ लूटा है उजले दामनों ने हम अपना दिल भी काला चाहते हैं।। सुरेश साहनी कानपुर
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न जाने क्या जताने आ रहा है। मुहब्बत के बहाने आ रहा है।। अक़ीदा तो नहीं फिर किस गरज़ से मुसलसल आस्ताने आ रहा है।। उसे ख़ुद पर यकीं है कैसे मानें मुझे जो आज़माने आ रहा है।। मैं रूठा भी नहीं उस बेवफ़ा से मुझे वह क्यों मनाने आ रहा है।। मेरे हरजाई की जुर्रत तो देखो मुझे उल्फ़त सिखाने आ रहा है।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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ठीक वैसे ही हम यहां आए। जैसे मकतल में मेहमां आए।। आप रोते हुए ही आए थे मत कहें हम थे शादमां आए।। आप के पास भूल आए हम या कहीं और दिल गुमां आए।। अपनी ऊंचाइयों के रस्ते में कोई दूजा न आसमां आए।। गुफ्तगू आपसे हमारी हो गेर क्यों अपने दरमियां आए।। चार दिन में बुला लिया मालिक हम तो नाहक तेरे ज़हां आए।। सुरेश साहनी
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दिल बहला कर चल देते हो। बात बना कर चल देते हो।। दिल का दर्द कहें क्या तुमसे तुम कतरा कर चल देते हो।। दिन भर यहाँ वहाँ भटकोगे रात बिताकर चल देते हो ।। हम खोये खोये रहते हैं तुम क्या पाकर चल देते हो।। क्यों उम्मीद जगाते हो जब हाथ बढ़ा कर चल देते हो ।। ख़ाक मुहब्बत को समझे हो आग लगा कर चल देते हो।। अब ख़्वाबों में यूँ मत आना नींद उड़ा कर चल देते हो ।।
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मैं क्या लिखता तुम क्या पढ़ते मैं क्या कहता जो तुम सुनते प्रेम कहाँ कागज पर उतरा मौन कहाँ कानों में गूंजा तुम भी कब इस दिल मे उतरे थाह प्रेम की कैसे लेते मैं क्या लिखता..... देह प्रेम का प्रथम चरण है देह मृत्यु का सहज वरण है देह न हो पर प्रेम रहेगा काश तुम्हे यह समझा सकते मैं क्या लिखता......... सुरेशसाहनी, कानपुर
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मत सोचो नदिया बन सागर में खो जाऊंगा। जो भी प्यार करेगा मैं उसका हो जाऊंगा।। बाद मेरे जीवन के पथ पर फूल न पाओगे स्मृतियों के शूल निगाहों में बो जाऊंगा।। तुम क्या कभी किसी से कोई चाह नहीं रखता अपनी अर्थी तक अपने कांधे ढो जाऊंगा।। जो भी याद करे ख़्वाबों में आऊंगा उसके चुपके चुपके आकर अंतर्मन टो जाऊंगा।। आज तुम्हारे आँगन में हूँ प्रेम गीत गा लो कल गाना क्या रो न सकोगे यदि रो जाऊंगा।। रात मुकम्मल करने को ही जाग रहा हूँ मैं इसकी सुबह नहीं होगी यदि मैं सो जाऊंगा।। दो दिन के जीवन मे आओ दो युग जी जाएं किसे पता कल किधर कौन नगरी को जाऊंगा।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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तुम्हारी वफ़ा से दमकने लगा हूँ। गुलाबों के जैसा महकने लगा हूँ।। निगाहें तुम्हारी नशीली नशीली कदम दर कदम मैं बहकने लगा हूँ।। तेरी सांस की गर्मियां उफ खुदारा खरामा खरामा टहकने लगा हूँ।। तेरे जिस्म का शाखे- गुल सा लचकना तेरी ओर मैं भी लहकने लगा हूँ।। जो देखीं तेरी मोरनी सी अदाएं परिंदों सा मैं भी चहकने लगा हूँ।।.... सुरेश साहनी, कानपुर
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कौन कहता है हुनर बिकता है। जब भी बिकता है बशर बिकता है।। कब दवा खाने शिफा देते हैं हर कहीं मौत का डर बिकता है।। है सियासत की गिरावट बेशक़ गाँव बिकता है शहर बिकता है।। पहले बिकते थे ज़मी और मकां अब सहन बिकते हैं घर बिकता है।। तब धरोहर थे गली के बरगद आज आँगन का शज़र बिकता है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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नादां से अल्हड़ होने तक जीवन ही मेरा जीवन था जीवन के उस हिस्से पर तुम मत अपना अधिकार जताना।। आंगन से कस्बे तक जाना कस्बे से शहरी बन जाना रसना का चूरन कम्पट से पानीपूरी तक आ जाना फिर काफी पिज़्ज़ा बर्गर से गुपचुप याराना हो जाना।। जीवन के उस हिस्से पर तुम मत अपना...... अक्सर कॉलेज आते जाते उसका राहों में दिख जाना कभी मुहल्ले के नुक्कड़ पर उसका सारी शाम बिताना धीरे धीरे उसे देखना अपनी भी आदत बन जाना।। जीवन के उस हिस्से पर तुम मत अपना.... परिस्थिति वश छूट गए सब गुड्डे गुड़िया खेल खिलौने छूट गया अपना घर आंगन स्वप्न बिके सब औने पौने अब तुम ही हो मेरा जीवन तुमसे है हर ताना बाना।। अब जीवन के उस हिस्से पर मत अपना.....
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ख़्वाब पलकों पे सजाये मिलना। दिल में उम्मीद जगाये मिलना।। हसरतें रखना दबाकर लेकिन हौसले खूब बढ़ाये मिलना।। उठ गईं फिर तो क़यामत होगी अपनी पलकों को झुकाये मिलना।। हर्ज़ है आज अगर मिलने में आपके दिल मे जब आये मिलना।। वस्ल वाजिब है ज़रूरी तो नहीं देखना जान न जाये मिलना।। क्या ज़रूरी है क़यामत में मिलो जब कभी याद सताए मिलना।। मेरे महबूब हो ये याद रहे भूल से भी न पराये मिलना।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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एक चम्मच प्यार वाली चाय हो। फिर भले पत्ती उबाली चाय हो। हर सुबह बस इतनी ख्वाहिश है मेरी आप हों और एक प्याली चाय हो।। चाय के संग मुस्कुराते यार हों फिर भले पत्ती उबाली चाय हो।। काश वो दिन लौट आएं प्यार के फिर वही कमबख्त काली चाय हो।। शाम को अंगूर की बेटी भली पर सुबह रिश्ते में साली चाय हो।। सुरेश साहनी कानपुर
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जो भी है सरकार के हक़ में। क्यों जाएं हक़दार के हक़ में।। सत्ता का अपराधी है वो जो बोला अधिकार के हक़ में।। वो है उसका जात बिरादर क्यों बोले अगियार के हक़ में।। मां को चिंता है आँगन की बेटे हैं दीवार के हक़ में।। वही करेंगी सरकारें अब जो होगा बाज़ार के हक़ में।। अखबारों को भी मालूम है क्या है अब अख़बार के हक़ में।। दुनिया भर के व्यापारी हैं झूठों के सरदार के हक़ में।। अत्याचार सहेगी जनता जब तक है अवतार के हक़ में।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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कौन फरियाद कर रहा होगा। ख़ुद को नाशाद कर रहा होगा।। सिर्फ़ दिलशाद कर रहा होगा। वज़्म आबाद कर रहा होगा।। काम ये तंगदिल नहीं करते कोई जव्वाद कर रहा होगा।। मैं उसी हौसले पे हूँ कायम तब जो फरहाद कर रहा होगा।। ऐसा दुश्मन भी अब नहीं कोई कौन फिर याद कर रहा होगा।। क्या कोई इश्क़ के लिए ख़ुद को अब भी बरबाद कर रहा होगा।। कब है दुनिया अदीब की दुश्मन कोई मुनकाद कर रहा होगा।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर 94515452
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तुमको हक़ था कि सताते मुझको। कम से कम छोड़ न जाते मुझको।। रात ख़्वाबीदा हुई थी माना शोर कर देते जगाते मुझको।। फिर सफ़र लाख कड़ा हो जाता हर कदम साथ ही पाते मुझको।। मान लेता कि मुझे भूल गए तुम अगर याद न आते मुझको।। रूठते तुम तो मनाता मै भी यूँ ही कुछ तुम भी मनाते मुझको।। हुस्न को तुम नहीं समझे शायद इश्क़ होता तो बुलाते मुझको।। जैसे दिल मे हो मेरे कुछ यूँ ही अपने दिल मे भी बसाते मुझको ।। सुरेश साहनी, कानपुर
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इक नज़र से गुनाह थे फिर भी। यार हम बेगुनाह थे फिर भी।। हमने माना कि हम बुरे होंगे काबिले रस्मो-राह थे फिर भी।। दो कदम साथ चल तो सकते थे हम भले ही तबाह थे फिर भी।। दाग वो ढूंढते रहे मुझमें जिनके दामन सियाह थे फिर भी।। तुम ने समझा महज़ फ़कीर हमें दिल के हम बादशाह थे फिर भी।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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कहाँ धूप ने सुनी अर्ज़ियाँ कहाँ छांव ने सुनी व्यथायें बंधी फाइलों में दफ्तर की गूँगी बन रह गयी कथायें।। नारों जैसे चमकीले थे किन्तु शिथिल पड़ गए कथानक जिन आंखों के उजियारे थे उनमें गड़ने लगे अचानक क्या बदला जब लोकतंत्र में वही नियन्ता वहीं प्रथायें।। आशाओं की नयनज्योति में तम के बादल लगे घुमड़ने शीश उठाये हाथ चले थे दुनिया को मुठ्ठी में करने कुछ बाधा बन गयी दूरियाँ कुछ आड़े आ गयी जथायें।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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सनम के तर्जुमा होने लगे हैं। ज़मीं पर भी ख़ुदा होने लगे हैं।। तुम्हें चाहा ही क्यों था सोच कर अब हमीं हम से ख़फ़ा होने लगे हैं।। बड़ी हैरत है किस दुनिया मे हैं हम यहाँ वादे वफ़ा होने लगे हैं।। हमें इतना दबाया जा चुका है कि अब हम भी ज़िया होने लगे हैं।। वजू करते हैं हर दिन मयकदे में सो हम भी पारसा होने लगे हैं।। सुरेश साहनी कानपुर
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कहानी को यहीं पर छोड़ते हैं। मुहब्बत से तअल्लुक़ तोड़ते हैं।। खुशी कब छोड़ दे दामन हमारा तुम्हारे ग़म से रिश्ता जोड़ते हैं।। न कतरा कर निकल जाएं चुनांचे चलो तूफान का रुख मोड़ते हैं।। पुरानी डायरी को अब न खोलें हमारे ज़ेहन को झिंझोड़ते हैं।। नई किश्ती से उतरे हैं नदी में चलो इक नारियल ही फोड़ते हैं।। तो आओ मौत का डर खत्म कर दें चलो मक़तल की जानिब दौड़ते हैं।। सुरेश साहनी कानपुर .....
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आओ लेकर चाँद सितारे चलते हैं। पार नदी के साथ तुम्हारे चलते हैं।। कल की फिक्रें उलझन दुनियादारी सब छोड़ चलें जैसे बंजारे चलते हैं।। दुनियावी बातों की बहती धारा से तुम कह दो तो दूर किनारे चलते हैं।। जीत के दिल की दौलत क्या पा जाओगे उल्फ़त में दिल हारे हारे चलते हैं।। तुम्हीं कमल हो मन के मानसरोवर के हम तन मन धन तुम पर वारे चलते हैं।। अन्तर्मन में एक तुम्हारी छवि है प्रिय नयन मूंद बस तुम्हे निहारे चलते हैं।।
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हम हमें कैसे भला भूल गए। आज अपना ही पता भूल गए।। तुमको देखा तो कहाँ याद रहा शर्म भूले कि हया भूल गए।। जीस्त की शाम कहाँ ले आयी हाय हम अहदे-वफ़ा भूल गए।। हम तो इक भूल पे शर्मिंदा है आप हैं कर के ख़ता भूल गए।। अब की उल्फ़त में वो तासीर कहाँ आज हम ग़म का मज़ा भूल गए।। इश्क़ अपना है अज़ल से क़ायम हुस्न वाले ही सदा भूल गए।। बेख़ुदी में ये कहाँ याद रहा शेर छूटा कि क़ता भूल गए।। मौत के बाद हमें याद आया थे मुहब्बत में क़ज़ा भूल गए।। वो दवा भूल गए ले के दुआ हम दुआ ले के दवा भूल गए।। मग़फ़िरत इनको कोई क्या देगा इश्क़ वाले तो ख़ुदा भूल गए।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कहां कहां से मुहब्बत न तार तार हुई। ये तेरे बाद तो रुसवा हजार बार हुई।। न तेरे बाद कोई जुस्तजू रही दिल में न तेरे बाद तमन्ना ही बेकरार हुई।। कि अहले हुस्न ने समझा महल जिसे अक्सर हम इश्क वालों की आगे वही मजार हुई।। नहाते अपने पसीने में जो रहा दिन भर हमारे दहका की अक्सर यही पगार हुई।। दराज उम्र तो की है सनम तेरे गम ने हमारी ज़िंदगी इतनी तो कर्जदार हुई।। हम अपनी लाश उठाए कहां कहां न गए हमारी ज़िंदगी गोया कोई कहार हुई।। अदीब तुझको भरम था कि आशना है सब तो तेरे बाद न इक आंख अश्कवार हुई।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर 9451545132
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पंख हैं आकाश घटता जा रहा है। क्या उड़ें अभ्यास घटता जा रहा है।। सोच को विस्तार देकर क्या करेंगे कुछ न कुछ सायास घटता जा रहा है।। आज रिश्तों में तपन है गर्मियों की प्रेम का मधुमास घटता जा रहा है।। हो गए हैं आप माया दास गोया आप में सन्यास घटता जा रहा है।। कुछ शिकायत तो नहीं है आईने से आपका विन्यास घटता जा रहा है।। सुरेश साहनी कानपुर
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तेरे एहसान हम पर कम नहीं है। तेरा ग़म है तो कोई ग़म नहीं है।। हमारे खैरख्वाह हो तुम ये माना मगर दामन तुम्हारा नम नहीं है।। करे थे किसलिए दावे हवाई जो तेरी कोशिशों में दम नहीं है ।। जिन्हें तुम देख शायर हो रहे हो मेरे आंसू हैं ये शबनम नहीं है।। कहा अच्छे दिनों के चारागर ने गरीबी का कोई मरहम नहीं है।। Suresh Sahani
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शब्द की बाज़ीगरी होने लगी। अब ग़ज़ल भी तेवरी होने लगी।। हम पुनः हैं सृष्टि के आरंभ में सभ्यता दिक्अम्बरी होने लगी।। अब कहाँ कोमल हृदय वाले बचे आज पीढ़ी बर्बरी होने लगी।। क्यों न मधुशाला खुले राजस्व का आधार जब कादम्बरी होने लगी।। मृत्यु खा पीकर के मोटी क्या हुई ज़िंदगानी अधमरी होने लगी।। सच यही हैं सांवरे के प्रेम में इक सलोनी सांवरी होने लगी।। दिल ने बोला ज़िन्दगी से राग कर और रुत आसावरी होने लगी।। सुरेश साहनी, कानपुर
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अँजुरी भर क्या धूप मिल गयी तुम समझे सूरज गुलाम है। और तुम्हारी सेवा करना सूरज का इक यही काम है ।। तुमने सोचा चाँद सितारे तुम कह दो तो रोशन होंगे तुम कह दो तो हवा बहेगी तुम कह दो गुल गुलशन होंगे।। तुमसे होगी फस्ले-बहारा तुम बिन रुत पतझार रहेगी तुमसे नाव चलेगी जग की तुम बिन भव मझधार रहेगी इस भ्रम तुम में तुम फूले ऐंठे इस भ्रम में तुम में बल निकले और एक दिन अहंकार में साँस थमी औ तुम चल निकले।। सुरेश साहनी, कानपुर
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हार बैठा था पर तलाश लिया। आखिरश दिल ने दर तलाश लिया।। हुस्न ऐयारियों पे आया तो इश्क ने भी हुनर तलाश लिया।। मरहले रास्ते भी हैरां हैं मंजिलों ने सफ़र तलाश लिया।। सोच अंजाम तिरगी कांपी हौसलों ने शरर तलाश लिया।। गांव फिर गांव ख़ाक रह पाता जब से उसने शहर तलाश लिया।। अम्न का कारवां न लुट जाए ये किसे राहबर तलाश लिया।। इश्क को जाम की ज़रूरत थी नफरतों ने जहर तलाश लिया।। वो निगाहों से दिल में उतरा है दिल ने दिल में ही घर तलाश लिया।। डरने वाले खड़े हैं साहिल पे साहनी ने भंवर तलाश लिया।।
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है मेरी ज़ीस्त में बशर कोई। जैसे साहिल पे दीपघर कोई।। एक मुद्दत से मुन्तज़िर है दिल कब से आया नहीं इधर कोई।। आशना होगा मुझसे वो वरना क्यों झुकाकर गया नज़र कोई।। मंजिलें तक सवाल करती हैं अब भी बाकी है क्या सफर कोई।। जब उबरता हूँ मैं तभी दिल में बैठ जाता है फिर से डर कोई।। आदमी हूँ गए ज़माने का जैसे वीरान खंडहर कोई।। ज़िन्दगी धूप से मुतास्सिर थी किसलिए ढूंढ़ते शज़र कोई।। मुझको अपनों के गाँव जाना था उसकी आँखों मे था शहर कोई।। साहनी तुम कहो कि क्यों तेरी आज लेता नहीं ख़बर कोई।। सुरेश साहनी, कानपुर।
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तुम्हें ही ऑक्सीजन चाहिए क्या। कि इक तुमको ही जीवन चाहिए क्या।। मुसलसल पेड़ काटे जा रहे हो तुम्हें कंक्रीट का वन चाहिए क्या।। कभी देखो तो उपवन का भरम हो तुम्हें इक ऐसा दरपन चाहिए क्या।। दवा भी और चिकित्सा कक्ष सघन भी तुम्हें ही सारे साधन चाहिए क्या।। अभी तुम ठीक हो तो क्यों रुके हो मरीजों वाला वाहन चाहिए क्या।।
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चलो उनको मना लेते हैं फिर से। नया मौसम बना लेते हैं फिर से।। तअल्लुक़ तर्क हो जाने से बेहतर तसद्दुद हर मिटा लेते हैं फिर से।। अनाये उनकी हों उनको मुबारक हमीं हम को झुका लेते हैं फिर से।। कोई रिश्ता नहीं उनका वफ़ा से चलो हम आज़मा लेते हैं फिर से।। अगर क़ातिल की मेरे आरज़ू है तो हम मक़तल में आ लेते हैं फिर से।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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ज़ुबाँ के ऐब छुप कर भी अयाँ हैं। न जाने कितनी कड़वी गोलियां हैं।। ज़रा सी भूल की कीमत सदी भर सज़ा से कम हमारी गलतियां हैं।। हमारे दिन अगर हैं अज़नबी से तो क्यों रातों में इतनी यारियां हैं।। हमें इतनी मुहब्बत क्यों है तुमसे तुम्हारा फ़न अगर मक्कारियाँ हैं।। हमारे दिल में रहकर भी नहीं हो यहाँ नजदीकियां ही दूरियाँ हैं।।
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सिर्फ़ मुक़म्मल तन्हाई हो। पास न मेरे परछाई हो।। ना भूली बिसरी यादें हों ना यादों की रानाई हो।। मौसम हो तो ऐसा जैसे धुन्ध अचानक घिर आई हो।। अब उससे क्या लेना देना बाद भले वो पछताई हो।। उम्मीदों अब दामन छोड़ो नाहक़ क्यों कर रुसवाई हो।। कुछ तो जान सकूं दुनिया को मौला इतनी बीनाई हो।। मेरी दुनिया हो इतनी सी मैं हूँ मेरी कविताई हो।। सुरेश साहनी कानपुर
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कोई तो मेरी उलझन सुलझाता सहल करता।। कोई तो मेरी मुश्किल राहों को सरल करता।। वो प्यास बुझाता मेरी आँखों की दरश देकर आना मेरा दुनिया मे एक बार सफल करता।। कुछ ख़ास नहीं फिर भी हम आम नहीं रहते जब मेरी कहानी में वो फेरबदल करता।। ये प्यार भरी नज़रें जिस दम वो फिरा देता बेदम को अदम करता फ़ानी को अज़ल करता।। मुरझाई कली दिल की खिलकर के कँवल होती मन्दिर सा मेरा मन तो तन ताजमहल करता।। कान्हा की तरह लगता निर्धन के गले दिल से कोई तो सुदामा की कुटिया को महल करता।। कैसे न लजाऊँ मैं कैसे नहीं झिझकूँ मैं मेरी भी अना रहती कुछ तो वो पहल करता।। वंशी हूँ मैं छलिया की एक बार मुहब्बत से अधरों पे मुझे धरता फिर लाख वो छल करता।। सुरेश साहनी
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फिर तुम्हें क्यों न भूल जायें हम। किसलिए अपना दिल जलाएं हम।। हाथ तुमने किसी का थाम लिया क्यों न अपना ज़हां बसाएं हम।। क्यों तेरा नाम लेके आह भरें किसलिए अश्क से नहाये हम।। ग़म के नगमों से बेहतर होगा कुछ नए गीत गुनगुनाएं हम।। तुमसे मरहम की क्यों उम्मीद करें तुम तो चाहोगे टूट जाये हम।। हम भी माज़ी को भूल जाते हैं क्या गए वक़्त को बुलायें हम।। किस खुशी में दें इम्तिहान नए किसलिए ख़ुद को आज़माएँ हम।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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अब मेरी सोच में नहीं आती कोई कविता जो तुम्हारे जैसी हो सुगढ़ घरेलू या तुम्हारे जैसी ही अनगढ़ एकदम बिंदास भुच्च देहाती या नूरजहां की तरह मासूम जो एक कबूतर कैसे उड़ा यह बताने के लिए दूसरा भी उड़ा दे दरअसल अब ऐसी कविता होती ही नहीं कम से कम मेरी सोच वालों के लिए तो बिल्कुल नहीं कल एक कविता को जाते हुए देखा पर वो नाजुक तो बिल्कुल नहीं थी वो एक कवि के कलमदान से निकलकर किसी दूसरे कवि की जेब मे जा रही थी शायद उसे बहर में रहना पसंद न हो
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उसने बाहों में भर लिया था फिर। क्या बताएं कि क्या हुआ था फिर।। उन निगाहों से मय बरसती थी उसकी बातों में भी नशा था फिर।। रात इक ख्वाब सी सुहानी थी और उस रात जागना था फिर।। इंतेजारी में लुत्फ था बेशक उससे मिलना तो कुछ जुदा था फिर।। ख़्वाब की कैफियत जुदा थी पर क्या हक़ीक़त में कम मज़ा था फिर।। सुरेश साहनी कानपुर
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बस दीवानावार बनाना चाहे हो। या सचमुच का यार बनाना चाहे हो।। सच मे अपना प्यार बनाना चाहे हो। या ख़ाली बीमार बनाना चाहे हो।। इतना पागल होना अच्छी बात नहीं बेशक़ घर संसार बनाना चाहे हो।। इतराये फिरते हो हाथों में लेकर क्या ख़त को अखबार बनाना चाहे हो।। इतना मत चाहो बस इंसा रहने दो क्यों मुझको अवतार बनाना चाहे हो।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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अब मजदूरों पर दया नहीं आती। आज ये मजबूर हैं वरना ये ख़ुद को मजदूर कहने में शर्माते हैं इनसे पूछो ये अपनों से कैसे पेश आते हैं ये इनके हक़ की बात कहने वालों से दूरी बनाते हैं ये किसी मजदूर को वोट तक नहीं देते नहीं पढ़ते ये ऐसे घोषणा पत्र जिसमें सिर्फ इनकी बात लिखी हो ये पैसे लेकर रैलियों में जाते हैं लुभावने वादों पर तालियां बजाते हैं और तो और ये मजदूर हैं यह बात भूल जाते हैं और औक़ात भूलकर बाभन चमार या हिन्दू मुसलमान हो जाते हैं एक बोतल और हजार पाँच सौ के एवज में अपना वोट ईमान सब बेच आते हैं काश इन्हें पता होता कि ये हजार पाँच रुपये के मोहताज नहीं ये इस देश के पाँच सौ लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था के मालिक हैं तब ये भी अपना वोट लक्जरी कार मालिक की बजाय किसी मजदुर को दे रहे होते। सुरेश साहनी कानपुर
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प्यार दुनिया है रज़्म है दुनिया। हद से बढ़कर तिलस्म है दुनिया।। इसमें सख्ती गुलों के जैसी है खार जैसी ही नर्म है दुनिया।। भीड़ के लोग कितने तन्हा है क्या खलाओं की बज़्म है दुनिया।। कैसे कह दें वो इस ज़हां से है उसकी मुझमें ही ख़त्म है दुनिया।। सिरफिरा है अदीब कहता है बस ग़ज़ल और नज़्म है दुनिया।। सुरेश साहनी अदीब
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मौत का एक दिन मुअय्यन है नींद क्यों रात भर नहीं आती।। मिर्जा ग़ालिब ने जब ये कहा होगा ,उस रात यक़ीनन वे सो नहीं पाए होंगे। अब किस कारण उन्हें नींद नहीं आयी होगी,यह अलग विषय है।एक नौकरीपेशा को नींद नहीं आने के तमाम कारण हो सकते हैं। फिर दिल्ली सरकार की नौकरी तो भगवान ही मालिक है। वो तो बादशाह पढ़े लिखे थे वरना कब नोटबन्दी हो गयी या कब सरकार से अडानी के मुलाजिम हो गए वाली स्थिति बनते देर नहीं लगती। किन्तु एक सबसे बड़ा कारण उनका स्वास्थ्य गड़बड़ होना भी रहा होगा।जिसके चलते वो रातभर सो नहीं पाए होंगे। जैसे कि मैं डाइबिटीज का मरीज हूँ और गैस्ट्रिक ट्रबल के चलते नींद नहीं आने पर चचा को याद कर रहा हूँ। खैर चाचा बड़े वाले शायर थे सो उनके अशआर रात में भी नाज़िल होते रहे होंगे ।उन्हें पता था कि इस शासन में आम आदमी की परेशानियों का कोई इलाज नहीं है। जब तक जीवन है बीमारियां आती जाती रहेंगी।उन्होंने कहा भी है ग़मेहस्ती का असद कैसे हो बज़ुज़मर्ग इलाज शम्आ हर रंग में जलती है सहर होने तक।। अभी मैं भी जाग रहा हूँ।ऑप्शन फार्म आने वाले हैं।परन्तु हमारा एंटायर पोलिटिकल कैल...
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वही गया था कभी ज़िद में छोड़कर मुझको। उठा रहा है जो इतना झिंझोड़कर मुझको।।, कभी उम्मीद कभी जर्फ और कभी दिल से कहां कहां से गया गम ये तोड़कर मुझको।। मैं रेत की तरह बिखरा हूं टूट कर लेकिन वो कह रहा है कि जायेगा जोड़कर मुझको।। निकल चुका हूं बहुत दूर हर तमन्ना से भला कहां से वो लायेगा मोड़कर मुझको।। कहां से अश्क इन आंखों में लेके आऊं अदीब गमों ने रख दिया जैसे निचोड़कर मुझको।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर 9451545132
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आदमी लाचार है यारों बवा के सामने। हर कोई बीमार है यारों बवा के सामने।। अब हवा है हर दवा नकली हवा के सामने साँस तक व्यापार है यारों बवा के सामने।। ये न सोचो आदमी डर जायेगा मर जायेगा युद्ध को तैयार है यारों हवा के सामने।। दूसरी सरकार है उस राज्य में दोषी यहाँ कौन जिम्मेदार है यारों बवा के सामने।। अब न कोरोना बचेगा क्योंकि लड़ने के लिए देश ख़ुद तैयार है यारों बवा के सामने।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मीर गालिब से मुतास्सिर इक गजल। आपकी खिदमत में हाज़िर इक ग़ज़ल।। फिर ग़ज़ल कहने की ख़ातिर इक ग़ज़ल। हो गई बे पैर ओ सिर इक ग़ज़ल।। क्या ज़रूरी है रदीफो- काफिया क़ैद से निकली है शातिर इक ग़ज़ल।। लड़खड़ा कर हो गयी है बे बहर मयकदे से लौटकर फिर इक ग़ज़ल।। शेख का इस्लाम ख़तरे में न हो रोज कहता है ये काफ़िर इक ग़ज़ल।। गिर चुके हैं जब सहाफी औ अदीब शोर क्यो है जो गयी गिर इक ग़ज़ल।। साहनी सुरेश 9451545132
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परिंदे ठीक से तो सो रहे हैं। शज़र किस बात पर फिर रो रहे हैं।। उधर कुछ बेटियां सहमी हुई हैं उधर मंत्री जी क्यों खुश हो रहे हैं।। जो हम पर कर्ज बढ़ता जा रहा है तो धन पशुओं को हम क्यों ढो रहे हैं।। उधर देखो सचिन भगवान है ना खिलाड़ी क्यों सड़क पर सो रहे हैं।। वो अपराधी हमारी जाति का है हम अपनी सोच में क्या बो रहे हैं।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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कहो तो मुस्कुरा कर क्या करोगे। हमारा दिल चुरा कर क्या करोगे।। जिसे तुम आज़माना कह रहे हो सताना है सता कर क्या करोगे।। किसी की जान जा सकती है जानम न जाओ दूर जा कर क्या करोगे।। अज़ल से है ज़माना दुश्मने-जां ज़माने को बता कर क्या करोगे।। क़यामत दूर से भी ढा रहे हो सनम पहलू में आ कर क्या करोगे।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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सोच रहा हूँ कुछ दिन ख़ुद को ख़ुद से दूर रखूँ सोच रहा हूँ कुछ दिन अपने मन के पास रहूँ।। मेरे दर्पण में वैसे मेरा ही चेहरा है उस पर मेरी आत्म मुग्धता का भी पहरा है मुझमें मैं हूँ या मेरे जैसा ही कोई है कैसे पूछूँ मन गूंगा है दर्पण बहरा है दर्पण के बाहर जो मैं हूँ कैसा दिखता हूँ उसे देखने को निज अन्तर्मन के पास रहूँ।। मोह जगा तो मुझे लगा हर कोई अपना है जब विरक्त मन हुआ लगा जग सारा सपना है अनासक्ति का भाव अगर मुझसे जग जाता तो कौन बताता किसको तजना किसको जपना है प्रभु कस्तूरी गंध कहाँ है कौन बतायेगा वन वन भटकूँ या फिर भाव हिरन के पास रहूँ
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खार फिर भी निबाहते आये। गुल फ़क़त ख़ुद को चाहते आये।। हुस्न वाले उरूज पर अपने कस्रेदिल कितने ढाहते आये।। एक जैसे थे ज़ख़्म दोनों के हुस्न वाले कराहते आये।। मुस्कुराने का दोष था हममें हम कहाँ किसको डाहते आये।। हम थे ख़ामोश दर्द सहकर भी जबकि क़ातिल उलाहते आये।। हर अदा उनकी जानलेवा थी हर अदा हम सराहते आये।। आपके ग़म लिए थे बदले में आप क्या क्या उगाहते आये।। सुरेश साहनी कानपुर
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ग़ज़ल मेरी कहाँ थी वो तुम्हारी तर्जुमानी थी। कहो क्यों तर्क की तुमने तुम्हारी तो कहानी थी।। मुझे महफ़िल से क्या लेना किसी को क्यों बताए हम तुम्हीं से अपनी रौनक थी तुम्ही तो जिंदगानी थी।। कभी खट्टी कभी मीठी कई बातें ज़रूरत बिन तुम्हारे साथ गुज़रे पल तुम्हारे साथ बीते दिन वो पगडंडी वो मेड़ों पर गुज़ारी लंतरानी थी।। झगड़ना शाम बंधे पर सुबह हँस कर बुला लेना चलो स्कूल चलना है ये कहकर साथ चल देना न शर्माना न इतराना न मन में गांठ आनी थी।। अभी मैं आप हूँ शायद अभी तुम भी कहाँ तुम हो कहाँ ढूंढू स्वयं को मैं अभी तुम भी कहीं गुम हो समय था पास क्यों लाया अगर दूरी बनानी थी।।साहनी
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हम भी किन से आस लगाए रहते हैं। जो अपनों का दर्द बढ़ाये रहते हैं।। वे आतुर हैं हमें दबा कर रखने को हम जिनको सिर पर बैठाए रहते हैं।। शर्म नहीं आती सरमायेदारों को हम हर धंधे से शरमाये रहते हैं।। हम ही चुनते हैं अपराधी को नेता फिर उनसे हम ही घबराए रहते हैं।। गुण्डों बदमाशों की जाति नहीं होती लोग न जाने क्यों अपनाए रहते हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मस्त रहो चिंता छोड़ो ना! डरना क्या। क्या कर लेगा ये कोरोना डरना क्या।। एहतियात रक्खो दो गज की दूरी भी अपने घर बिंदास रहो ना! डरना क्या।। हाथ जोड़ कर राम राम प्रणाम करो हाथ मिलाना अब छोड़ो ना! डरना क्या।। बाहर से आने पर इतना ध्यान रहे पहले तुरत नहाना धोना डरना क्या।। सेनेटाइज करना घर की चीज़ों को खुद भी सेनेटाइज होना डरना क्या।।
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बाँध लगभग तैयार हो चुका था। ठेकेदार अब मज़दूरों के पीछे पड़ गया था।उसे शायद बहुत जल्दी थी।या ऊपर से आदेश था कि मंत्री जी चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पहले उद्घाटन करना चाहते थे। ठेकेदार, बाँध निर्माण निगम के अफसरान और सम्बंधित समितियों की आवाजाही बढ़ गयी थी। बाँध निर्माण में बाधाएं भी आई थीं।कभी बारिश कभी मिट्टी धसकना कभी अन्य प्राकृतिक आपदा और कभी पर्यावरणवादियों के दवाब ने कार्य लंबित होते रहे।मंत्री जी ठेकेदार पर मेहरबान थे अतः निर्माण लागत से दुगुने रकम की स्वीकृति भी मिल गयी थी।अब केवल उस अतिरिक्त रकम के बंदरबांट को लेकर ही उहापोह चल रही थी। क्योंकि मंत्री जी अगले चुनाव की व्यवस्था इसी राशि के अंतर्गत चाह रहे थे। उधर इन सब गतिविधियों से अलग वे मजदूर जो इस बाँध के निर्माण की शुरुआत से कार्यरत थे।वे ज़रूर चिंतित थे।एक लंबे अरसे से वे सब इस प्रोजेक्ट से जुड़े थे।अब क्या होगा!क्या नए ठेके में काम मिलेगा!क्या ठेकेदार पिछले बकाए का भुगतान करेगा!!! ऐसी तमाम चिंताएं मजदूरों की नींद उड़ा चुकी थीं। दीनानाथ इन कामगारों की बात आगे बढ़ के रखता...
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कहन तो ठीक है उसकी मग़र न जाने क्यों।। वो झूठ बोल के लगता है मुस्कुराने क्यों।। न जाने उसने हुनर ये कहाँ से सीखा है ज़रा सा बोल के लगता है सच छुपाने क्यों।। उसे गिला किसी दुश्मन से है नहीं मालूम तो दोस्तों को ही लगता है आज़माने क्यों।। किसी की फ़िक्र में रोता नहीं मग़र अक्सर उदासियों में वो लगता है गुनगुनाने क्यों।। कि नफ़रतें तो जलाती हैं बस्तियाँ लेकिन मुहब्बतों में उजड़ते हैं आशियाने क्यों।। सभी कहे हैं ये उजड़े हुओं की है महफ़िल तो ज़िंदाबाद हैं इनसे शराबखाने क्यों।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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क्यों न ये राह अख्तियार करें। जितना कर पायें ख़ुद से प्यार करें।। दूसरों पर भले भरोसा है अपनी हस्ती पे एतबार करें।। सब ये कहते हैं अब सुधर जाओ बिगड़े कब थे जो अब सुधार करें।। कैसा लोनिक है सबको खुश रखें अपनी खुशियों का इंतज़ार करें।। अपनी तस्वीर भी बदल डालें पहले चलकर ज़रा सिंगार करे।। साहनी सुरेश 9451545132
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न कुछ पूछा गया मुझसे न कुछ बताया गया। तो किस गुनाह पे मुजरिम मुझे ठहराया गया।। मुझे सजा मिली हैरत नही मलाल नहीं मेरा कातिल मेरा मुंसिफ़ अगर बनाया गया।। मेरा वकील भला था मगर ग़रीब भी था मुझे पता है उसे किस तरह पटाया गया।। सुरेश कौम ने अब देवता क़ुबूल किया पता चला मुझे जब दार पे चढ़ाया गया।। सुरेश साहनी,कानपुर मुन्सिफ़-न्यायाधीश ^दार-सूली
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दिल की किश्ती को किसी और किनारे ले चल। चल जहाँ ले के चलें वक़्त के धारे ले चल।। आंधियां तेज हैं तूफां भी अड़े हैं ज़िद पर चल इन्हीं तुंद हवाओं के सहारे ले चल।। मुझको उनके लिए जीना भी है मरना भी है चल कि रहते हैं जहाँ वक़्त के मारे ले चल।। ज़ुल्म की उम्र है दो चार बरस बीस बरस इसके आगे तो सिकन्दर भी हैं हारे ले चल।। तुझको लगता है कि तू बांध के ले जाएगा तुझसे बेहतर भी गए हाथ पसारे ले चल।। नेकियां साथ में जाएंगी ये तदफीन नहीं मेरे आमाल हैं बेहतर तो उघारे ले चल।। तेरी ज़ुल्फ़ों के तो सर होने के इमकान नहीं कौन उलझी हुई किस्मत को सँवारे ले चल।। शाम होती है हर इक ज़ीस्त की रोता क्यों है वक़्त से पहले भी डूबे हैं सितारे ले चल।। चल जहाँ राम नहीं सारी अयोध्या डूबी साहनी को उसी सरजू के किनारे ले चल।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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इंद्रप्रस्थ की खुशियों को युग तक्षक ने काटा है। उपहासों से एक रुदाली ने घर को बांटा है।। संस्कार पड़ गया जहाँ पर किसी शकुनि के हाथों वहाँ पितामह को भी अक्सर पुत्रों ने डांटा है।। किसी महाभारत को रोके जाने की कोशिश में कृष्ण नीति है पाँच गांव देने मे क्या घाटा है।। युद्ध बहुत से हुए किन्तु क्या घृणा खत्म हो पाई सदा प्रेम ने ही नफ़रत की खाई को पाटा है।। आज ऑक्सीजन की खातिर वो भी भटक रहे हैं जिनके घर में एसी है कूलर है फर्राटा है।। सदा नहीं रहने पर उनके लाभ समझ मे आये लगता था जिनका होना ही जीवन का घाटा है।। सब कहते हैं शोर बहुत है कोरोना के कारण मुझे दिख रहा बस्ती में मरघट का सन्नाटा है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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बेशक इंकलाब को हम बेकार समझते हैं। उसकी ताकत तो सरमायेदार समझते हैं।। आख़िर मेहनत की ताकत तुम किस दिन समझोगे पूँजी वाले तो तुमको बेकार समझते हैं।। वो कल का लइमार हमें लइमार बताता है और उसे अब हम अपनी सरकार समझते हैं।। हम गरीब हैं मेहनतकश ही जात हमारी है हम पागल ख़ुद को सैयद अंसार समझते हैं।। हम अपने वोटों की ताकत कब पहचानेंगे जिसकी कीमत हम दारू की धार समझते हैं।। हम खुद को मजदूर बताते हैं तो शर्माकर शायद हम सब खुद को ओहदेदार समझते हैं।। सुरेश साहनी कानपुर
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ज़ख़्म थे तो नहीं हरे फिर भी। जाने क्यों कर नहीं भरे फिर भी।। वार उसके लिहाज में झेले जबकि आते थे पैंतरे फिर भी।। जबकि मालूम था न सुधरेंगे हम पे माइल थे दूसरे फिर भी।। हमसे छूटी न कोशिशे-ताबीर ख़्वाब सब फूल से झरे फिर भी।। ज़िन्दगी ग़म से दूर करती क्या मौत तो ले गयी परे फिर भी।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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मजदूर कौन से मजदूर जाति के नाम पर लड़ने वाले मजदूर या मज़हब के नाम पर नफरत करने मजदूर मुर्गा दारू लेकर बहकने वाले मजदूर या पाँच किलो राशन ,केरोसिन और चिलम तम्बाकू पर वोट बेचने वाले मंज़ूर कौन से मजदूर मेहनत की कमाई दारू में डुबाने वाले मजदूर या देर रात पतुरिया का नाच देखते मजदूर घर मे आटा दाल नहीं होने पर पत्नी को पीटते मजदूर या अपने बच्चे को शिक्षा से दूर रखकर बाल श्रमिक बनने को मजबूर करते मजदूर कौन से मजदूर जुल्म सहकर प्रतिरोध नहीं करने वाले मजदूर या जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने वाले साथी का साथ नहीं देने वाले मजदूर या हक़ के लिए लड़ने वाले साथी के खिलाफ चुगली करते मजदूर या किसी मज़दूर साथी के विरुद्ध मालिकों से गठजोड़ करते मजदूर आप किनके एक होने की बात करते हैं ये डंडों झंडों में बंटे मजदूर या बेगारी करते अंधभक्ति में डूबे मजदूर छोड़िए भी अब मजदूर नही दुनिया भर के मालिकान एक हो चुके हैं..... सुरेश साहनी ,कानपुर
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कहन तो ठीक है उसकी मग़र न जाने क्यों।। वो झूठ बोल के लगता है मुस्कुराने क्यों।। न जाने उसने हुनर ये कहाँ से सीखा है ज़रा सा बोल के लगता है सच छुपाने क्यों।। उसे गिला किसी दुश्मन से है नहीं मालूम तो दोस्तों को ही लगता है आज़माने क्यों।। किसी की फ़िक्र में रोता नहीं मग़र अक्सर उदासियों में वो लगता है गुनगुनाने क्यों।। कि नफ़रतें तो जलाती हैं बस्तियाँ लेकिन मुहब्बतों में उजड़ते हैं आशियाने क्यों।। सभी कहे हैं ये उजड़े हुओं की है महफ़िल तो ज़िंदाबाद हैं इनसे शराबखाने क्यों।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132