सोच रहा हूँ कुछ दिन ख़ुद को ख़ुद से दूर रखूँ
सोच रहा हूँ कुछ दिन अपने मन के पास रहूँ।।
मेरे दर्पण में वैसे मेरा ही चेहरा है
उस पर मेरी आत्म मुग्धता का भी पहरा है
मुझमें मैं हूँ या मेरे जैसा ही कोई है
कैसे पूछूँ मन गूंगा है दर्पण बहरा है
दर्पण के बाहर जो मैं हूँ कैसा दिखता हूँ
उसे देखने को निज अन्तर्मन के पास रहूँ।।
मोह जगा तो मुझे लगा हर कोई अपना है
जब विरक्त मन हुआ लगा जग सारा सपना है
अनासक्ति का भाव अगर मुझसे जग जाता तो
कौन बताता किसको तजना किसको जपना है
प्रभु कस्तूरी गंध कहाँ है कौन बतायेगा
वन वन भटकूँ या फिर भाव हिरन के पास रहूँ
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