बाँध लगभग तैयार हो चुका था। ठेकेदार  अब मज़दूरों के पीछे पड़ गया था।उसे शायद बहुत जल्दी थी।या ऊपर से आदेश था कि मंत्री जी चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पहले उद्घाटन करना चाहते थे।

   ठेकेदार, बाँध निर्माण निगम के अफसरान और सम्बंधित समितियों की आवाजाही बढ़ गयी थी। बाँध निर्माण में बाधाएं भी आई थीं।कभी बारिश कभी मिट्टी धसकना कभी अन्य प्राकृतिक आपदा और कभी पर्यावरणवादियों के दवाब ने कार्य लंबित होते रहे।मंत्री जी ठेकेदार पर मेहरबान थे अतः निर्माण लागत से दुगुने रकम की स्वीकृति भी मिल गयी थी।अब केवल उस अतिरिक्त रकम के बंदरबांट को लेकर ही उहापोह चल रही  थी। क्योंकि मंत्री जी अगले चुनाव की व्यवस्था इसी राशि के अंतर्गत चाह रहे थे।

 उधर इन सब गतिविधियों से अलग वे मजदूर जो इस बाँध के निर्माण की शुरुआत से कार्यरत थे।वे ज़रूर चिंतित थे।एक लंबे अरसे से वे सब इस प्रोजेक्ट से जुड़े थे।अब क्या होगा!क्या नए ठेके में काम मिलेगा!क्या ठेकेदार पिछले बकाए का भुगतान करेगा!!!

 ऐसी तमाम चिंताएं मजदूरों की नींद उड़ा चुकी थीं।

    दीनानाथ इन कामगारों की बात आगे बढ़ के रखता था।आज बकाए के भुगतान को लेकर उसकी ठेकेदार से गरमा गर्मी भी हो गयी थी। इस बात से हमेशा बिंदास रहने वाला दीनानाथ  आज कुछ तनाव में था। जब वह अपने अस्थायी कैम्प आवास में पहुंचा तो कुछ उदास चेहरा देख कर उसकी घरवाली रधिया सहम सी गयी। दीनानाथ भी चुपचाप एक ओर पड़ी खटिया पर पसर गया।

 रधिया ने बिना कुछ कहे एक गिलास पानी और भुजिया दालमोठ लाकर खटिया के पास लकड़ी के स्टूल पर रख दिया।कुछ देर बाद एक गिलास में भर के चाय भी ले आयी। 

जैसे तैसे दीनानाथ ने चाय खत्म की और आँख मूँद कर लेट गया। रधिया भी घर के दूसरे कामकाज में लग गयी।

 दीनानाथ के दोस्त जैसे झकझोर रहे थे।दीनानाथ ने  अपनी मुट्ठी हवा में उछालते हुए नारा दिया ,इंकलाब जिंदाबाद"। लेकिन ठेकेदार पर जैसे इन सब का कोई असर नहीं पड़ा था।अंततः ठेकेदार ने यह कहते हुए मीटिंग खत्म करने का संकेत किया कि बाँध का उद्घाटन होने के बाद पूरा भुगतान कर देंगे। दीनानाथ इस छल को समझ रहा था, लेकिन उसने फिलहाल मौन रहना उचित समझा ।जबकि अंदर ही अंदर वह उबल रहा था।उसका मन कर रहा था कि कुछ तगड़ा प्रतिरोध होना चाहिए। इस ठेकेदार के विरोधी कुछ लोग विध्वंसक टाइप सुझाव दे रहे थे।एक बारगी दीनानाथ की आंखों में हिंसक चमक उभर आई थी। वह रात के अंधेरे में चुपचाप उठा और स्टोर की तरफ बढ़ गया।स्टोर का दरवाजा लॉक नहीं था। चौकीदार शायद  कहीं चिलम सुलगाने चला गया था।उसने आराम से डेटोनेटर और डायनामाइट उठाया और बाँध की तलहटी में निकल गया।उसे इस बात का डर तो था कि कहीं कोई देख ना ले।लेकिन आज जैसे उसके सिर पर जुनून सवार था।जब वह लौटा तो पसीने पसीने हो रहा था। उसने घर के आईने में अपना चेहरा देखने की कोशिश की।अरे यह क्या! वह डर गया।आईने में उसकी जगह किसी आदमखोर भेड़िये का चेहरा दिखाई दे रहा था।उसने घड़ी देखी।समय हो चुका था।टिक !टिक!टिक!धड़ाम!!!!

 उसका शीशा चटख चुका था।उसे दिखाई दिया बांध का पानी गरजते घहरते नीचे घाटी के गांवों की ओर बढ़ चला था।वह दौड़ कर बांध की तरफ आया।उसे जाने कितनी चीत्कारें सुनाई दीं। उधर ठेकेदार अर्धविक्षिप्त होकर अपने बाल नोच रहा था। उसे निर्दोष बच्चों औरतों बूढ़ों की हज़ारों लाशें दिखाई दे रही थीं।उसने ये क्या किया ।क्या उसके श्रमिक आंदोलन की परिणति यह थी। नहीं नहीं, यह उसने क्या किया।अरे बुरे ठेकेदार हो सकते हैं, मंत्रीजी हो सकते हैं , मजदूर इतना नीचे नहीं गिर सकता ।नहीं कभी नहीं।वह दहाड़ें मार कर रोने लगा था।हे भगवान!यह क्या हो गया!प्रभु मेरे बांध को पहले जैसा कर दो। उसे लगा कि ठेकेदार उसे यह कहते हुए झकझोर रहा है कि तुमने यह क्या किया!!!

 वह घबराहट में जैसे होश खो बैठा था।उसकी देह जैसे पसीने से दुबारा नहा गयी हो।,

  अचानक  उसकी नींद खुल गयी।उसने अचकचा कर देखा , उसकी पत्नी उसे झकझोर रही थी। "क्या हो गया जी।आप घबराए से लग रहे हैं।आप नींद में क्यों रो रहे थे। क्या कोई बुरा सपना देख लिया।" 

 हाँ बुरा सपना ही था।दीनानाथ यह कहते उठकर बांध की ओर चल पड़ा। बांध को सकुशल देख उसकी आँखों भीग गयीं।उसने राहत की लंबी उच्छ्वास भरी और घर लौट पड़ा।

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