हम भी किन से आस लगाए रहते हैं।

जो अपनों का दर्द बढ़ाये रहते हैं।।


वे आतुर हैं हमें दबा कर रखने को

हम जिनको सिर पर बैठाए रहते हैं।।


शर्म नहीं आती सरमायेदारों को

हम हर धंधे से शरमाये रहते हैं।।


हम ही चुनते हैं अपराधी को नेता

फिर उनसे हम ही घबराए रहते हैं।।


गुण्डों बदमाशों की जाति नहीं होती

लोग न जाने क्यों अपनाए रहते हैं।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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