मीर गालिब से मुतास्सिर इक गजल।

आपकी खिदमत में हाज़िर इक ग़ज़ल।।


फिर ग़ज़ल कहने की ख़ातिर इक ग़ज़ल।

हो  गई  बे पैर ओ सिर  इक  ग़ज़ल।।


क्या ज़रूरी है रदीफो- काफिया

क़ैद से निकली है शातिर इक ग़ज़ल।।


लड़खड़ा कर हो गयी है बे बहर

मयकदे  से लौटकर फिर इक ग़ज़ल।।


शेख का इस्लाम ख़तरे में न हो

रोज कहता है ये काफ़िर इक ग़ज़ल।।


गिर चुके हैं जब सहाफी औ अदीब

शोर क्यो है जो गयी गिर इक ग़ज़ल।।


साहनी सुरेश

9451545132

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