अब मेरी सोच में नहीं आती
कोई कविता
जो तुम्हारे जैसी हो सुगढ़ घरेलू
या तुम्हारे जैसी ही अनगढ़
एकदम बिंदास भुच्च देहाती
या नूरजहां की तरह मासूम
जो एक कबूतर कैसे उड़ा
यह बताने के लिए दूसरा भी उड़ा दे
दरअसल अब ऐसी कविता होती ही नहीं
कम से कम मेरी सोच वालों के लिए तो बिल्कुल नहीं
कल एक कविता को जाते हुए देखा
पर वो नाजुक तो बिल्कुल नहीं थी
वो एक कवि के कलमदान से निकलकर
किसी दूसरे कवि की जेब मे जा रही थी
शायद उसे बहर में रहना पसंद न हो
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