खार फिर भी निबाहते आये।
गुल फ़क़त ख़ुद को चाहते आये।।
हुस्न वाले उरूज पर अपने
कस्रेदिल कितने ढाहते आये।।
एक जैसे थे ज़ख़्म दोनों के
हुस्न वाले कराहते आये।।
मुस्कुराने का दोष था हममें
हम कहाँ किसको डाहते आये।।
हम थे ख़ामोश दर्द सहकर भी
जबकि क़ातिल उलाहते आये।।
हर अदा उनकी जानलेवा थी
हर अदा हम सराहते आये।।
आपके ग़म लिए थे बदले में
आप क्या क्या उगाहते आये।।
सुरेश साहनी कानपुर
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