खुद को यूँ भी तलाशता हूँ मैं। शब्द दर शब्द जूझता हूँ मैं।। चैन से सो सकें मेरे अपने इसलिए रात जागता हूँ मैं।। तुम जबाबों में खोजते हो मुझे और सवालों में भटकता हूँ मैं।। इस क़दर टूटकर न चाहो मुझे वरना समझूँगा देवता हूँ मैं।। किसी पत्थर से सच नहीं कहता जानता हूँ कि आईना हूँ मैं।। मैं तेरा इन्तिज़ार कर लूँगा आख़िरश तुझको चाहता हूँ मैं।।
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Showing posts from December, 2022
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बचपन में सम्पन्न बहुत था जब सोने चांदी से बढ़कर होते थे कुछ कंकड़ पत्थर उसके बाद लड़कपन आया.... वह भी ओ एफ सी में आकर बीता समय प्रशिक्षण लेकर जितना खोया उतना पाया.... जब तक फूटे यौवन अंकुर मैं सरकारी नौकर होकर आयुध निर्माणी में आया..... अब इतना मिलता है वेतन घर परिवार साधु का यापन करने लायक ही हो पाया.... मात पिता जा चुके छोड़कर बीबी बच्चे छोटा सा घर यह जीवन भर का सरमाया..... कैसे कह दूँ बहुत कमाया जितना खोया उतना पाया बचपन में सम्पन्न बहुत था।।
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समझता हूँ सब कोई बच्चा नहीं हूँ। तुम्हें क्या लगा मैं समझता नहीं हूँ।। सियासत भी गोया तुम्हीं जानते हो तो सुन लो मैं माटी का बबुआ नहीं हूँ ।। जहाँ पढ़ रहे हो वहाँ प्रिंसिपल था अभी तक मैं फ़न अपने भूला नहीं हूं।। तुम्हारे कपट छल तुम्हीं को मुबारक तुम्हारी तरह मैं कमीना नहीं हूँ।। कहीं दुम हिलाऊँ ये मुझसे न होगा कलमगीर हूँ कोई कुत्ता नहीं हूँ।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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घटा घिर घिर के गहरी हो रही है। हवा ज़िद पर है ज़हरी हो रही है।। किसी की दावते-इफ़्तार है तो कहीं फांके की सहरी हो रही है।। किसी का दिन अभी भी सो रहा है जवां कोई दुपहरी हो रही है।। सुना है साँझ का आँचल ढला है शरम से रात दोहरी हो रही है।। हमारी ख़्वाहिशें रोहू की मछली मगर तक़दीर सिधरी हो रही है।। सुरेश साहनी,कानपुर
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कौन कहता है किसे चाँद और सूरज चाहिए। जगह आख़िर में सभीको सिर्फ़ दो गज चाहिए।। हश्र में आमाल के काग़ज़ तो मैं पहचान लूँ लिखने वाले हमको तक़दीरों के काग़ज़ चाहिए।। हम जहाँ चाहे रहें मरकज़ मेरी मोहताज़ है यूँ सहारे के लिए हरएक को मरकज़ चाहिए।। सादगी और साफगोई अब किसे स्वीकार है हर किसी को अब दिखावा और सजधज चाहिए।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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आप पर जां लुटानेका क्या फायदा। आपसे दिल लगाने का क्या फायदा।। चोट दिल पर लगी है ख़लिश पूछिये बेसबब मुस्कुराने का क्या फ़ायदा।। आप दिल से मेरे जाने वाले नहीं आपका घर बसाने का क्या फायदा।। काँच से भी कहीं और नाजुक है दिल छोड़िए आज़माने का क्या फ़ायदा।। सब हँसेंगे कोई देगा मरहम नहीं ज़ख्म दिल के दिखाने का क्या फ़ायदा।। सुरेशसाहनी
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ज़मीन छुट गयी क्या आसमान में रहते। किराएदार थे कब तक मकान में रहते।। ये तुमने ज़ख्म नहीं इल्म दे दिया गोया वगरना हम भी वफ़ा के गुमान में रहते।। निकल के हसरतों ने राह इक दिखा दी नई बिना हवा के कहाँ तक उड़ान में रहते ।। न तुम मिले न खुदा से पनाह मिलनी थी तो ऐसे हाल में हम किस जहान मे रहते।। हरेक उरूज़ का इकदिन ज़वाल आना है तो हम भी इश्क़ थे कब तक उठान में रहते।। भले ही डूब गए हमको इसका रन्ज नहीं नदी तो तैर ली हमने उफान में रहते।। यकीं नहीं रहा मेराज़ के मआनी क्या किसी भी तीसरे के दरम्यान में रहते।। निकल गए तो वो वापस कहाँ से आएंगे के हक़ था तीर पे खाली कमान में रहते।। ये इश्क़ ही नहीं ग़ैरत भी दख्ल रखती है तो अहले सैफ़ कहाँ तक म्यान में रहते।। सुरेश साहनी, कानपुर।
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मैंने जब हल नहीं चलाया क्या किसान की पीड़ा गाता। ए सी कमरों में बैठा जब लिखा कृषक को भाग्यविधाता।। गेहूं क्या है और धान के पौधों की पहचान नहीं है किस सीजन में क्या उगता है मुझको इसका ज्ञान नहीं हैं मन चाहा तो गेहूँ रोपा मन करता चावल उगवाता।। कभी फावड़ा या कुदाल ले नहीं बहाया है श्रम सीकर श्रम की थकन,लिए दो रोटी खाकर सोया नहीं धरा पर क्या मजूर की पीड़ा लिखता क्या श्रम की महिमाएँ गाता।। कभी न उतरा गहरे जल में कब लहरों से हाथ मिलाया कब किश्ती ले गया भंवर में तूफानों से कब टकराया मछुआरों की पीड़ाओं पर कैसे झूठी कलम चलाता।। किन्तु उसे ही मिले ओहदे सम्मानों से गया नवाज़ा जिसने झूठी कलम चलाई घोषित हुआ वही कवि राजा मैं किसान मछुआ मजूर पर कैसे झूठे गीत सुनाता।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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दर्द इतना हसीन क्यों लायें। दिल में एक महज़बीन क्यों लायें।। उन की ख़ातिर ग़ज़ल तो पढ़ देंगे पर हमी सामयीन क्यों लायें।। दिल कहीं और क्यों लगायें हम ज़ख़्म ताज़ातरीन क्यों लायें ।। वो वहाँ आसमां पे बेहतर हैं उनको ज़ेरे-ज़मीन क्यों लायें।। क्या ख़ुदा को यक़ीन है हम पर हम भी उस पर यक़ीन क्यों लायें।। सुरेश साहनी, कानपुर
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डर कोई उसके ख़यालों में जाके बैठ गया। फिर वो इब्लीस के पालों में जाके बैठ गया।। वो अंधेरों में दगा देगा मुझे मालुम था मेरा साया तो उजालों में जाके बैठ गया।। जिसको सोचा था वो मरहम है मसीहा है वही दर्द बनकर मेरे छालों में जाके बैठ गया।। पास थे जिसके ज़वाबात ज़माने भर के सुन के नासेह की सवालों में जाके बैठ गया।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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मेरी हस्ती उजड़ती जा रही है। मेरी खुशबू बिखरती जा रही है।। कोई कह दो उसे मत याद आये खुमारी सी उतरती जा रही है।। सुपुर्दे-खाक़ कर दो वक्त रहते मेरी उम्मीद मरती जा रही है।। मुहब्बत में मेरी तासीर है क्या सरापा वो सँवरती जा रही है।। वो कहते हैं अभी नादान हूँ मैं जवानी है गुज़रती जा रही है।। सुरेश साहनी,कानपुर
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कुछ दर्द बड़ी खामोशी से सीने में जगह कर लेते हैं कुछ मरहम हैं जो लगने पर सुख चैन सभी हर लेते हैं।। कुछ रिश्ते जो खामोशी से खुद टूटे दिल भी तोड़ गए जीवन भर साथ न छोड़ेंगे मौका मिलते मुंह मोड़ गए आखिर कैसे ये ग़ैरत की सौदेबाजी कर लेते हैं।। उनके दिल मे कितने दिल हैं उनका दिल है या महफ़िल है चेहरे पर जितना भोलापन फितरत क्यों उतनी क़ातिल है ये हँस के जिबह भी करते है फिर मातम भी कर लेते हैं।। सुरेश साहनी , कानपुर
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तुम्हारी बेवफाई क्या बताते। किसे देते सफाई क्या बताते।। तेरी शैतानियां भाने लगी थीं हम अपनी पारसाई क्या बताते।। रक़ीबों के मुहल्ले में तुम्हारी हर इक से आशनाई क्या बताते।। न तुम आये न नासेह बाज आया कयामत भी न आई क्या बताते।। गये भँवरे के सिर इल्ज़ाम सारे गुलों की बेहयाई क्या बताते।। किया खारो ने हँस कर चाक दामन कली क्यों मुस्कुराई क्या बताते।। कई ने जान दी है आशिक़ी में फ़क़त अपनी बड़ाई क्या बताते।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मक्कारों ने बैठे - ठाले। कितने मज़हब ढूंढ़ निकाले।। कहते हैं सब एक बराबर फिर क्यों ऊँचे आसन डाले।। ऊँचे नीचे छोटे मोटे हर मज़हब में कितने माले।। माया पति है जितने भी सब माया है समझाने वाले।। नर्क बना देते हैं दुनिया ये जन्नत क्या जाने साले।। इनकी बहकावों में आकर लड़ मरते हैं बोले भाले।। एक महाभारत अब फिर से करवा दे ओ बन्शी वाले।।
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इक तुम्हारा नियम नियम है क्या। बेईमानों तनिक शरम है क्या।। बेचते हो धरम दुकानों में जानते भी हो कुछ धरम है क्या।। क्या पता कैसी भूख थी उसको उसने पूछा कि कुछ गरम है क्या।। हमने उसका मिजाज़ पूछ लिया उसने हँस कर कहा कि ग़म है क्या।। आईना देखते हो छुप छुप कर आईना दूसरा सनम है क्या।। क्या ये कहते हो रुठ जाएंगे हम भी देखें कि ये सितम है क्या।। ऊँची मौजों के हश्र मालुम हैं ज़िन्दगी क्या है ज़ेरो-बम है क्या।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मेरे बहुत से कवि और लेखक मित्र अक्सर ऐसी पोस्ट डालते हैं कि उनकी फलां रचना अलाने ने चोरी कर ली।अथवा अलां रचना फलाने की वाल पर मिली।मुझे लगता है कि ऐसी पोस्ट्स से निश्चित ही उन रचनाकारों की टीआरपी बढ़ती होगी। मैं भी ऐसी पोस्ट्स पढ़कर रोमांचित होता था। पर धीरे धीरे सारा रोमांच जाता रहा। बल्कि अब वे ऐसी पोस्ट्स कोफ्त देने लगी हैं। या यूं कहें कि अब यह सब पढ़कर मुझमें हीनभावना आने लगी है। पहले ऐसी हीनभावना मुझमें तब घर करने लगी थी जब लोग अपने डाइबिटीज का ज़िक्र करते थे। और वही लोग लो कैलोरी फूड्स की खूबियां बताते बताते चार समोसे चट कर जाते थे।बड़े बुजुर्ग बताते थे कि ये अमीर लोगों की बीमारियां हैं। मैं अक्सर सुनता था कि फलाने व्यक्ति का हृदय गति रुकने से निधन हो गया। तब मेरे इर्द गिर्द भी कई निधन होते थे परंतु हृदयगति रुकने के कारण निधन जैसी बात सुनने में नहीं आती थी। लोग कहते थे ,"फलाने मरि गये।, यानी वहाँ भी इन्फिरिआरिटी काम्प्लेक्स कि ह्दय गति रुकने से बड़े आदमी ही मरते हैं। फिलहाल रचना चोरी होने की बात चल रही है। मुझे बड़ा दुख है कि म...
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दगा वही दे दे अगर जिस पर था विश्वास। ऐसे में मन बावरा किससे रक्खे आस।। अपनों से ताना मिले गैरों से उपहास। ऐसे में मन बावरा क्यों ना रहे उदास।। तन दो दिन का पींजरा आती जाती सांस। मन पंछी को है भरम यह ही है आकाश।। इस दर से उस दर फिरे, फिरे गेह से गेह। अंतर पीय बिसार के पर घट ढूंढ़े नेह।। बेशक़ समझ उलाहना भले समझ फरियाद। भूल गया है जब मुझे मत आया कर याद।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कैसे कहें तेरे बगैर ज़िदगी भी है। महफ़िल है,तेरी याद है तेरी कमी भी है।। सागर है जामनोश है साक़ी है ज़ाम भी यूँ तिश्नगी नहीं है मगर तिश्नगी भी है।। मैंने तेरी ख़ुशी में ही खुशियाँ तलाश की आखिर तेरी ख़ुशी में ही मेरी ख़ुशी भी है।। इतनी हसीन चांदनी वो भी तेरे बगैर ये तीरगी नहीं है मग़र तीरगी भी है।। गर तू नहीं तो मेरी कलम का है क्या वुजूद तू है तो मेरी नज़्म मेरी शायरी भी है।। मैं हूँ नहीं हूँ जो भी हो पर इतना मान ले तू मेरी इब्तिदा है मेरी आखिरी भी है।।
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मेरे क़ातिल को पसीना आ गया। जब मुझे मर कर के जीना आ गया।। यार की जिंदादिली तब भा गयी जब मुझे बोला कमीना आ गया।। मेरे ईमां की बुलंदी देखिये ख़्वाब में मेरे मदीना आ गया।। खाक़ हो शीशा-ओ-सागर की तलब हाँ मुझे नज़रों से पीना आ गया।। फिर दिया धोखा पुराने साल ने फिर दिसम्बर का महीना आ गया।। क्यों हटेंगे ये नये अंग्रेज अब हाथ में जब रायसीना आ गया।। दिल से हम दैरो हरम से क्या हटे सामने ज़न्नत का ज़ीना आ गया।। सुरेश साहनी कानपुर
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जीस्त में ज़िन्दगी से दूर रहे। उम्र भर हम खुशी से दूर रहे।। आप महफ़िल में उनकी अफशां थे और हम रोशनी से दूर रहे।। प्यार रुसवा न हो इसी ख़ातिर हम किसी बानगी से दूर रहे।। आप दिल की लगी नहीं समझे और हम दिल्लगी से दूर रहे।। कैसे कह दें उसे ख़ुदा हाफिज जब कि हम एक उसी से दूर रहे।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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#मार्केटिंगहथकंडेऔरहम# कल एक मित्र ने कहा कि मैं आज #दिलवाले फ़िल्म देखकर आया हूँ , अभी दो बार और देखूंगा।मैंने कहा अच्छी बात किन्तु इससे समाज को क्या मिलेगा ।वे हंस कर कहने लगे की इससे कट्टरपंथी ताकतें कमजोर होंगी।मुझे लगा की कहीं न कहीं हम सब भ्रमित हैं या हो रहे हैं। विवाद अब विवाद कम किसी स्ट्रेटजी का हिस्सा अधिक लगने लगे हैं।नेता अभिनेता व्यापारी सब के सब अपनी मार्केट तैयार करने में इस रणनीति का सहारा लेने लगे हैं।विरोध होने से प्रचार होता है।टीआरपी बढ़ती है।समर्थन और विरोध के पैसे लिए दिए जाते हैं।हर धर्म के कट्टरपंथियों ने दुकानें सजा रखी हैं।वे किसी भी नीचता तक जा सकते हैं,भले ही समाज और मानवता को कितना ही नुकसान पहुँचता हो।कहीं न कहीं यह कुशल मार्केटिंग का मकड़जाल ही है।इसमें हम भावुक भारतीय लोग कुछ ज्यादा ही उलझ जाते हैं।और देश के दुश्मन भी इसका लाभ उठाने का मौका नहीं चूकते।और इससे भी ज्यादा पीड़ा तब पहुंचती है जब #शाहरुख़खान जैसे कलाकार भी इस घृणित कार्य में सम्मिलित हो जाते हैं।मैं इस घृणित बाजारवाद की कड़ी निंदा करता हूँ।
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सभी कहते हैं मैं पहुंचा हुआ हूँ। मुझे लगता है मैं भटका हुआ हूँ।। बता दो शाम तक मैं लौट आऊँ तुम्हे लगता है गर भुला हुआ हूँ।। सितारों किस तरह दे दूँ विदाई तुम्हारे साथ ही जागा हुआ हूँ।। मुहब्बत की गली से दूर रक्खो बड़ी मुश्किल से मैं अच्छा हुआ हूँ।। क़यामत तक मैं जिसका मुंतज़िर हूँ उसे लगता है मैं सोया हुआ हूँ।।
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ये ग़ज़ल कितनी पुरानी है । हाँ मगर अब भी सुहानी है।। हम इसे कैसे सही ,माने इसमें राजा है न रानी है।। मैं ज़रा आश्वस्त हो जाऊँ आपको कब तक सुनानी है।। इश्क़ में जां तक लुटा देना मर्ज़ अपना ख़ानदानी है।। ये मेरी तुरबत नहीं यारों ज़िन्दगी की राजधानी है।। दोस्ती से आजिज़ी क्यों हो ज़िन्दगी भर ही निभानी है।। आज सागर हाथ आया है आज मौसम शादमानी है।।
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चम्पई हो कि सुरमई मौसम। बिन तुम्हारे है निर्दयी मौसम।। शाम शरमा के ओढ़ ले आँचल इस अदा से वो कह गयी मौसम।। बन सँवर के वो जब भी आते हैं हो ही जाता है जादुई मौसम।। रात रोती रही तुम्हारे बिन सुब्ह पसरा था आँसुई मौसम।। जाते जाते ठहर गया मौसम उसकी बातें बना गयी मौसम।। तुम भी नाज़ुक मिज़ाज़ हो लेकिन कुछ अधिक है छुई मुई मौसम।। उनकी तासीर हम कहें कैसे सर्दियों में रुई रुई मौसम।।
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ऐसा क्या दिखता है मुझ में। कोई लाल लगा है मुझमें।। आधी सदी बिता ली मैंने क्या कुछ अभी बचा है मुझमें।। पहले से कुछ बदल गया हूँ ऐसा कौन हटा है मुझमें ।। कोई है जो शरमाता है ऐसा कौन छुपा है मुझमें।। मुझ जैसे हारे की चाहत ऐसा क्या देखा है मुझमें।। हालत मेरी फ़क़ीरों जैसी फिर वो क्या पाता है मुझमें।। #सुरेशसाहनी ,कानपुर
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इस मुल्क की तकदीर है लाइन में लगे रहना। खुदशाह की तक़रीर है लाइन में लगे रहना।। ये राम की चाहत है अल्लाह की मर्जी भी इक नारा ए तकबीर है लाइन में लगे रहना।। राशन हो कि पानी और बिजली का किराया हो किस किस्म की जागीर है लाइन में लगे रहना।। खुद जिसने यहां अपने वालिद कई बदले हैं वो सोचे है तौकीर है लाइन में लगे रहना।। ये नाग नहीं है प्रभु मजलूम हैं लाइन में इनसेट की ये तस्वीर है लाइन में लगे रहना।। सुरेश साहनी
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अनहद नाद सुना दे कोई। मन के तार मिला दे कोई।। खोया खोया रहता है मन सोया सोया रहता है तन तन से तान मिला दे कोई।। कितने मेरे कितने अपने सबके अपने अपने सपने जागी आँख दिखा दे कोई।। जनम जनम की मैली चादर तन गीली माटी का अागर आकर दाग मिटा दे कोई।। साजन का उस पार बसेरा जग नदिया गुरु ज्ञान का फेरा नदिया पार करा दे कोई।।
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चलो कहानी कह कर देखें। कुछ बदनामी सह कर देखें।। जीना क्या दुनिया से छुपकर आज सामने रहकर देखें।। दरिया बनकर क्यों सिमटे हम दूर कहीं तक बह कर देखें।। कितने सही गलत हैं कितने खुद से आज जिरह कर देखें।। खूब लड़े हैं हालातों से यूँ ही चलो सुलह कर देखें।। नफरत ही करते आये हैं नही किया जो वह कर देखें।। तंगदिली ने तोड़े नाते दिल मे तनिक जगह कर देखें।।
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मैं ममता के इर्द गिर्द हूँ मां दुनिया के इर्द गिर्द है। या माँ मेरे इर्द गिर्द है दुनिया माँ के इर्द गिर्द है।। मेरे होने के कुछ पहले मेरी माँ के गाल सुर्ख़ थे अब गोया ममता के चलते मेरी माँ का जिस्म ज़र्द है।। यूँ भी मर्दो की दुनिया मे सिर्फ़ नाम के मर्द बचे हैं ऐसे में इस माँ को देखो सच पूछो तो यही मर्द है।।
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कौन सी तस्वीर देखी आपने। क्या हमारी पीर देखी आपने।। हर तरफ खुशहालियाँ रंगीनियां क्या कोई जागीर देखी आपने।। नित्य लूटी जा रही है अस्मिता सिर्फ बढ़ती चीर देखी आपने।। भूख सुरसा सी खड़ी है हर तरफ फिर कहाँ से खीर देखी आपने।। अपनी आदत है गुलामी सोचिए क्या कहीं जंज़ीर देखी आपने।। मुल्क़ की किस्मत में अच्छे दिन भी हैं कौन सी तक़दीर देखी आपने।। आप आखिर किस लिए बेचैन हैं क्या नई तहरीर देखी आपने।। सुरेश साहनी, कानपुर
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एक कली मुस्काई हो तो। भँवरे की बन आयी हो तो।। फूल खिले होंगे हर सूरत वो उपवन में आई हो तो।। यूँ तो इक डाली लचकी है ये उसकी अँगड़ाई हो तो।। क्या मैं ही इक बेइमां हूँ मौसम भी हरजाई हो तो।। गुल बुलबुल से मिल ले उस पर कोयल की शहनाई हो तो।। दिल जिस से मिल जाये बेहतर उस से ही कुड़माई हो तो।। सुरेश साहनी, कानपुर
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जब भी दिल के करीब आना हो। ऐसे आना कि फिर न जाना हो।। इश्क़ करना तो जान दे देना जान लेना अगर पता ना हो।। इश्क़ की ठोकरों में रहता है तख़्त हो ताज हो खज़ाना हो।। मुझ को ऐसी ग़ज़ल बना लो तुम उम्र भर जिसको गुनगुनाना हो।। प्यार करना तो याद भी रखना दूर रहना अगर भुलाना हो।। इम्तहानों से हम नहीं डरते आज़मा लो जो आजमाना हो।। इश्क़ ऐलान करके ही करना या न करना अगर छुपाना हो।। सुरेश साहनी, कानपुर
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इन गहरी चालों में फंसकर सत्ता के जालों में फंसकर अपना दुःख पीछे करती है जनता ऐसे ही मरती है।। तुम बसते हो इसका कर दो तुम हँसते हो इसका कर दो तब जनता खुद पर हंसती है जनता ऐसे ही मरती है ।। अब नोट नए ही आएंगे कुछ नोट नहीं चल पाएंगे फाके में फिर भी मस्ती है जनता ऐसे ही मरती है।। जाएगा उनका जाएगा आएगा अपना आएगा ये सपने देखा करती है जनता ऐसे ही मरती है।। कोई राजा बन जाता है जनता को क्या दे जाता है जनता जनता ही रहती है जनता ऐसे ही मरती है।।
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ऊँचा उड़ना सीखो बच्चा। आगे बढ़ना सीखो बच्चा।। सच्चाई का दामन छोड़ो झूठ पकड़ना सीखो बच्चा।। बगुले जैसा ध्यान लगा कर अवसर तड़ना सीखो बच्चा।। हक़ की ख़ातिर चुप क्या रहना थोड़ा लड़ना सीखो बच्चा।। स्वार्थ सिद्धि हित सही समय पर हठ पर अड़ना सीखो बच्चा।। कभी मान मनुहार मनौवल कभी झगड़ना सीखो भैया।। राजनीति में थूक चाटना नाक रगड़ना सीखो बच्चा।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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यां मुहब्बत के अलावा क्या है। और फिर इसमें दिखावा क्या है।। तुम नफे में हो मुझे है मालूम मेरे घाटे का मदावा क्या है ।। मैंने तस्लीम किया है देखें मेरे महबूब का दावा क्या है।। मेरा दिल लेके मुकर बैठे हो अब न कहना कि छलावा क्या है।। हमने माना कि उन्हें इश्क़ नहीं फिर ये नैनों का बुलावा क्या है।। तुमने बोला था तुम्हें याद नहीं तुम कहो और भुलावा क्या है।। सुरेश साहनी अदीब, कानपुर
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इनकी उनकी रामकहानी छोड़ो भी। क्या दोहराना बात पुरानी छोड़ो भी।। अक्सर ऐसी बातें होती रहती हैं इनकी ख़ातिर ज़ंग जुबानी छोड़ो भी।। शक-सुब्हा नाजुक रिश्तों के दुश्मन हैं यह नासमझी ये नादानी छोड़ो भी।। आओ मिलकर आसमान में उड़ते हैं अब धरती की चूनरधानी छोड़ो भी।। चटख चांदनी सिर्फ़ चार दिन रहनी है मस्त रहो यारों गमख़्वानी छोड़ो भी।। मर्जी मंज़िल मक़सद राहें सब अपनी सहना ग़ैरों की मनमानी छोड़ो भी।। दो दिन रहलो फिर अपने घर लौट चलो मामा मौसी नाना नानी छोड़ो भी।। सुरेश साहनी, कानपुर
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दिल हमें मानने नहीं देता। वो हमें रुठने नहीं देता।। उसके हाथों में हाथ है मेरा साथ ये छूटने नहीं देता।। चाह कर टूटने नही देता टूट कर चाहने नही देता।। कोई जादू है उसकी आँखों में होश में लौटने नही देता।। ख़्वाब जैसा वो खूबसूरत है ख़्वाब ये जागने नही देता।। इश्क़ है या गुनाह है कोई वो मुझे पूछने नही देता।।
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दीदा-ए-तर में ग़ज़ल रखते हैं। हम तो तेवर में ग़ज़ल रखते हैं।। नींद से हम नहीं दबने वाले साथ बिस्तर में ग़ज़ल रखते हैं।। हम अंधेरों के मुक़ाबिल होकर दैर-ओ-दर में ग़ज़ल रखते हैं।। हम सियासी तो नहीं हैं लेकिन वज़्मे-लीडर में ग़ज़ल रखते हैं।। आपके सर में भरी है उलझन और हम सर में ग़ज़ल रखते हैं।। सुरेश साहनी अदीब, कानपुर
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मन कुछ हारा हारा सा है। बेघर सा बंजारा सा है।। कुछ हलचल है उस ओर हुई टूटा कोई तारा सा है।। जो आज गया है छोड़ मुझे कोई अपना प्यारा सा है।। इतना तो ख़ास नहीं है वो फिर भी कितना सारा सा है।। मन चंचल है सब कहते हैं क्या दिल भी आवारा सा है।। इतना मीठापन है उसमें फिर रिश्ता क्यों खारा सा है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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वो जो टीवी पर दिखता है। क्या वो अपना ही नेता है।। पीता तो होगा वाइज भी तकरीरों में गजब नशा है।। सरमायेदारों का भोंपू बातें जनता की करता है।। अच्छे दिन की बातें कहकर वो सपने बेचा करता है।। ठोकर ही जिनका नसीब है ये भोली भाली जनता है।। वो जो उनके संग रहता है क्या वो अपना भी नेता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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तुम्हारा हल हमारी मुश्किलें हैं। सताने के लिए हम ही मिले हैं।। अकेलापन का मतलब रास्ते हैं हमारा साथ मतलब मंजिलें हैं।। न ठुकराओ यही खुशियों के पल हैं नहीं तो उम्र भर शिकवे-गिले हैं।। बहारें भी तुम्हारी हमकदम हैं तुम्हें ही देखकर गुलशन खिले हैं।। हमें क्या राह दिखलाओगे वाइज़ हमारी राह चलते काफिले हैं।। अभी हम क्या बता दें लक्ष्य अपने अभी हम दो कदम ही तो चले हैं।। हमारी दास्ताँ में गैर क्यों हो तुम्हारे साथ अपने सिलसिले हैं।। अयाँ न हो मुहब्बत इसकी खातिर हमारे होठ खुद हमने सिले हैं।। मुहब्बत की फतह मुमकिन है लेकिन बहुत मजबूत दुनियावी किले हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
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हर इक को है एक शिकायत सबकी अलग अलग वजहें हैं शिद्दत भी कम या ज्यादा हैं सारे के सारे कहते हैं उस थाली में भात अधिक है कोई ज्यादा परस रहा है कोई ज्यादा मांग रहा है कुछ कहते हैं कम देता है कुछ को दिक्कत अधिक दे दिया कोई कहता नमक अधिक है कोई कहता पानी कम है कोई सादा मांग रहा है कुछ देशी घी पर अटके हैं कुछ ना जाने क्यों रूठे हैं उन्हें शिकायत है तो इतनी उसने थाली में क्यों छोड़ा कुछ कहते है वो दरिद्र है पूरी थाली साफ कर गया हम सब मिल कर इक समाज हैं हम सब मे ऐसे अवगुण हैं एक दूसरे को लक्षित कर हम संधान किया करते हैं एक दूसरे को लांछित कर निज गुणगान किया करते हैं देखें तो यह सहज प्रश्न है फिर भी अनसुलझे रहते हैं आपस मे ही छिद्रों के अन्वेषण में उलझे रहते हैं इस अनसुलझे से सवाल का कोई हल हो तो समझाना वरना हमें शिकायत होगी......
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तुम कौन! जन्म ले धरती पर यूँ पड़े धूल धुसरित होकर क्या तुम हो इस युग की पुकार या हो अव्यवस्था के शिकार या मूक बधिर है यह समाज क्या ऐसा ही था कंस राज क्यों कर इतने निष्ठुर युग में किलकारी भरने आते हो वह युग जिसमें प्रत्येक श्रवण चीखें सुनने का आदी है वह युग जिसमें जीना मुश्किल बस मरने की आज़ादी है..... सुरेश साहनी, कानपुर
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चला था जो आफताब लेकर। वो रुक गया क्यों ख़िताब लेकर।। उठाये सबने सवाल कितने क्यों चुप रहा वो जवाब लेकर।। जो हाथ शोलों से खेलते थे वो जल उठे इक गुलाब लेकर।। बचाएगा कैसे अपनी नफ़रत मोहब्बतें बेहिसाब लेकर।। ख़राब मत कर तू खाना-ए-दिल ख़ुदा का ख़ाना ख़राब लेकर।। मिटा दे दैरो हरम के झगड़े तो बैठ वाइज शराब लेकर।। तमाम चेहरे फिरें हैं अब भी नक़ाब पर दस नक़ाब लेकर।। Suresh sahani
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मुझसे अपनेपन की बातें कौन करे। मेरे खालीपन की बातें कौन करे।। सुन कर औरों से कह कर इठलायेगा उससे अपने मन की बातें कौन करे।। एक वही मन वृन्दावन की रौनक था अब मिश्री माखन की बातें कौन करे।। जिन अपनों ने यादों में उलझाया है उन से ही उलझन की बातें कौन करें।। तब दीवाने जान लुटाया करते थे अब दीवानेपन की बातें कौन करें।। उनको दर्द दिखाने का है मतलब क्या पत्थर से दर्पन की बातें कौन करे।। धीरे-धीरे सारे साथी चल निकले अब मेरे बचपन की बातें कौन करे।। सुरेश साहनी, कानपुर
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उनकी आंखों में ख़ुमारी भी रहे। और अपना ख़्वाब तारी भी रहे।। यूँ मिलो जैसे कि बिछुड़े कब के हो और ये एहसास जारी भी रहे।। आप का भी मान रह जाये सनम और कुछ लज्जत हमारी भी रहे।। दिल की दौलत से भले धनवान थे इश्क़ में उनके भिखारी भी रहे।। कुछ हमारा नाम भी हो इश्क़ में और कुछ शोहरत तुम्हारी भी रहे।। सुरेश साहनी कानपुर
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कहीं कोई अपनी डगर चल रहा है। कहीं कोई उस राह पर चल रहा हैं।। हुआ चाहता है कोई घर से बाहर कोई कह रहा है कि घर चल रहा है।। सफ़र आपका भी वहीं ख़त्म होगा ये सारा ज़माना जिधर चल रहा है।। ये उनका भरम है कि ठहरा है पैकर नफ़्स चल रही है बशर चल रहा है।। ये दोज़ख ये जन्नत ये मज़हब की बातें फ़क़त जाहिलों पे हुनर चल रहा है।। अभी मयकदे में हुआ है सवेरा अभी कारोबारे-शहर चल रहा है ।। ज़मीं आसमां चाँद तारे ये सूरज पसारा ये शामोसहर चल रहा है।। न जाने ये कब तक भटकता रहेगा के आदम सफ़र दर सफ़र चल रहा है।।SS
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चाँद फिरे है मारा मारा। जैसे हो कोई बनजारा।। किसने उसके ग़म को समझा बस कह देते हैं आवारा।। तन्हा तन्हा जलते रहना किस्मत का है दूर सितारा।। युग युग से देता आया है दिल वालों को चाँद सहारा।। चाँद दिखे तो दिख नाता है ग़म का घटता बढ़ता पारा।। दिल से दिल तक संदेशों का अक्सर चाँद रहा हरकारा।। आशिक से लेकर मामा तक उसने हर रिश्ता स्वीकारा।।
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अबके सूखी ईद रहेगी। फिर भी कुछ उम्मीद रहेगी।। बिस्तर होगा यादें होंगी गायब लेकिन नींद रहेगी।। धुन्ध, कुहासे,बदरी, चंदा जाने कैसी दीद रहेगी ।। अब नफ़रत इतनी हावी है प्रीत की रीत पलीद रहेगी।। बेटा अब उस देश न जाना होंगे तो उम्मीद रहेगी ।। कंस दुःशासन ख़ाक मिटेंगे फितरत अगर यज़ीद रहेगी।। राशन पर साँसें देने की सरकारी ताक़ीद रहेगी।।
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मुझे कुछ और जी लेने तो देते। निगाहें भर के पी लेने तो देते।। कभी कुछ भी नहीं उनसे मिला है इज़ाज़त ही सही लेने तो देते।। मेरी मैयत में कितने लोग आये जरा सी हाज़िरी लेने तो देते।। वो मेरी जान लेना चाहता था जरा सी चीज थी लेने तो देते।। तुम्हारे दर्द लेकर और जीता मुझे इतनी ख़ुशी लेने तो देते।। तेरे कदमों में जन्नत थी हमारी तुम उसकी खाक ही लेने तो देते।। सुरेशसाहनी
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लौटकर आता हूँ घर हारे जुवारी की तरह। पास जब किसी के जाता हूँ भिखारी की तरह।। मैं सियासत के किसी भी कोण से लायक नहीं इस्तेमाल होता हूँ मैं हरदम अनारी की तरह।। मैं कबूतर हूँ कोई दुनिया के इस बाजार में लोग दिखते देखते हैं ज्यूँ शिकारी की तरह।। चलती फिरती पुतलियाँ हैं हम उसी के हाथ की जो नचाता है सदा सबको मदारी की तरह।।
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मुझे मंदिर मुझे मस्जिद मुझे गिरजा न जाने दो। जहाँ इंसान बसते हों ,वहीँ पर घर बनाने दो।। समझते हों जहाँ पर लोग केवल प्रेम की भाषा वहीँ पर मौन रहकर गुनगुनाने मुस्कुराने दो।। न उसको रोकना बेहतर न उसको टोकना अच्छा अगर आता है आने दो नहीं आता है जाने दो।। हमारी उम्र आधी कट चुकी है तुमको मालूम है न सोचो अब तो बंधन वर्जनाएं टूट जाने दो।। मुझे झूठी तसल्ली दी सभी ने ये ही कह कह कर तुम्हारा है तो आएगा वो जाता है तो जाने दो।।
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गिरे हैं टूट कर बिखरे नहीं हैं। कहीं से भी गए गुज़रे नहीं हैं।। ये कब बोला है हम पे तरस खाओ हमारे हाथ भी पसरे नहीं हैं।। हमारे आंसुओं से जल उठोगे ये अंगारे हैं ये कतरे नहीं हैं।। जहां जाएं वहीं साये मिलेंगे मुहब्बत के यही हुज़रे नहीं हैं।। नहीं तहज़ीब वाले हर्फ़े इनमें ये अपने पुश्त के सिज़रे नहीं हैं।। तरबियत की कमी है आज वरना विरासत से हमें खतरे नहीं हैं।। कि जाएंगे तो खोलेंगे हक़ीकत अभी जन्नत में हम ठहरे नहीं हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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आलू प्याज कहाँ महँगे हैं। किसने बोला हम गूँगे हैं।। महँगाई है नियति यहाँ की सियाराम हमरे संगे हैं।। खड़े रहे तो युवा तुर्क थे फिसल गए तो हर गंगे हैं।। लाठीतन्त्र उन्हें भाता है सम्विधान रखते ठेंगे हैं।। एक दृष्टि रखते हैं सब पर वे चिन्तन से ही भेंगे हैं।। उनका नँगापन मत पूछो हम गरीब बस अधनंगे हैं।। औरों के क्या दोष बताएं हम चंगे तो सब चंगे हैं।। सुरेश साहनी कानपुर
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का बतियायीं का बाचल बा अब ते कईसो बीत रहल बा बाग बगइचा आ बँसवारी उहो खाली नाम बचल बा हेल के जाईल बन्द भईल अब नारा उप्पर पूल बनल बा कटरी में अब खेती होता पोखरा पूरा पाट गईल बा ईया बाबा अब न भेटईहें लईकन से का भेंटे चलबा अब केके के चीन्हे जाता के उपराता के बूड़ल बा बड़को बाबू अब का चिन्हीहें उनहुँ के चश्मा टूुटल बा नवकन से कुछ मतलब नईखे का बाचल का छूट रहल बा बाबू तुंहयीं आईल करिहS तुहरे से कुछ आस बन्हल बा हमहुँ केतना दिन अब जीयब हमरो बेला आय गईल बा
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तुम्हारे साथ के मंज़र सुहाने। लगे हैं आज फिर से याद आने।। वो फिल्मी गीत आशा और रफ़ी के लगे थे साथ तुम जब गुनगुनाने।। तुम्हारे साथ छुप कर चौक जाना वही गुप्ता की कड़वी चाट खाने।। तुम्हारे फेर में वो लेट होकर बनाना क्लास में झूठे बहाने ।। न जाने किसलिये चुपचाप सुनना तुम्हारे वास्ते अपनों के ताने ।। मिले तुम अज़नबी जैसे, मिले तो तुम्हें हम किसलिये अपना न माने।। ख़ुदारा लौट आते काश फिर से लड़कपन और कॉलेज के ज़माने।। सुरेश साहनी,कानपुर
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फिर फिर गदहपचीसी लिखना। या ए सी को बीसी लिखना।। हत्यारों की मूर्ति लगाकर झूठी मातमपुरसी लिखना।। लोकतंत्र और संविधान की खुलकर ऐसी तैसी लिखना ।। रचनाओं को चुरा चुरा कर सिंहासन बत्तीसी लिखना।। इधर उधर ईमान डुलाना खुद को बड़ा हदीसी लिखना माल विलायत से मंगवा कर उस पर मेड इन देशी लिखना।। एफडीआई सौ प्रतिशत को है मूमेंट स्वदेशी लिखना।। ऐसे लिखने को कहते हैं हम कनपुरिया बीसी लिखना।। सुरेश साहनी,कानपुर
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तुम्हारा प्यार मैं पहला रहा हूँ। कि खुद को इस तरह बहला रहा हूँ।। सुनहरी धूप की चादर लपेटे सुहाने सर्द दिन को गोद लेकर तुम्हारी याद को सहला रहा हूँ मैं खुद को इस तरह बहला रहा हूँ।। तुम्हारी याद कितनी गुनगुनी है तुम्हारे रेशमी बालों के जैसी ख्यालों में किसे फुसला रहा हूँ कि खुद को इस तरह बहला रहा हूँ।। हमारी ज़ीस्त करवट ले रही है पता है शाम ढलते चल पड़ेगी अभी इस बात को झुठला रहा हूँ कि खुद को इस तरह बहला रहा हूँ।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कइसे कटी राजा रउरे बिना ई जवनिया।। देहीं के बत्था त नउनिये छोड़ाई। हियरा के बत्था हम केकरा बतायीं ननदी से कइसे कहीं रउवा के बतिया माई के बताई त हो जाई न संसतिया निंदियो भईल बाटे आजु बैरनियाँ। कइसे कटी राजा रउरे बिना ई जवनिया।। पोरे पोरे राजा जी उठेले लहरिया बिछीया के डंक जैसे चढ़े विषहरिया काम नाही करे कवनो बैद के दवाई रतिया में राजा चाहे केतनो नहाइ तनिको सोहाला नाही देवरा के बनिया। कइसे कटी राजा रउरे बिना ई जवनिया।। सुरेश साहनी
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किसको समझाना चाहे है। हर कोई पाना चाहे हैं ।। बिन अभ्यास समर्पण श्रम सब चोटी पर जाना चाहे है।। फितरत मेरी फकीरों जैसी आना दो आना चाहे है।। सब जाने हैं अंत यही है कौन यहाँ आना चाहे है।। भाग रहा पूरब से पश्चिम हर पंछी दाना चाहे है।। आज बनी अज़गर यह दुनिया कर्म नहीं खाना चाहे है।। मानवता है धर्म साहनी किससे मनवाना चाहे है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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जाने वो प्यार बांटने वाले कहाँ गये। थे अपने आप में जो निराले कहाँ गये।। जब बिक रहे हैं हर तरफ अखबार झूठ के हक़ बात कहने वाले रिसाले कहाँ गये।। कहने को रोशनी के हैं सामान हर तरफ ना जाने इस तरफ के उजाले कहाँ गये।। लुटने लगी है द्रोपदी फिर लोकतंत्र की सुन ले पुकार बाँसुरी वाले कहाँ गये।। दहकां तो देते आये हैं इस मुल्क को अनाज फिर उनकी थालियों से निवाले कहाँ गये।। चैनल चुनाव के समय करवा रहे थे युद्ध अब वो बिगुल वो दमदमी नाले कहाँ गये।। वो अहले हुस्न और मेरे साहनी का दिल कैसे पता चले कि उठा ले कहाँ गये।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मुझे बिखरे हुए अरसा हुआ है। मगर लगता है कल का वाकया है।। मुझे हँसते हुए देखा है तुमने तुम्हे शायद कोई धोखा हुआ है।। मुझे महबूब तुमने ही कहा था बेवफा नाम भी तुमने दिया है।। वो पत्थर है यही काबिलियत है वो बेदिल है तभी तो देवता है।। मेरा हमदर्द भी उनकी नजर में बेगैरत है , काफिर है , बुरा है।। सूरेश साहनी
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तुमको लगा शिकारी हारा। जग को लगा जुआरी हारा। काश तुम्हारे मुख से सुनता मेरा प्रेम पुजारी हारा ।। क्षण भंगुर जीवन मे मैंने युग युग प्रेम प्रतीक्षा की है, तुमने अपराधी ठहराकर मेरी प्रेम परीक्षा ली है, मर्यादाओं की रक्षा में तेरा प्रेम भिखारी हारा।। किसी कर्ण की व्यथा भला कब कोई द्रौपदी सुन पाती है, मन में यदि कुछ कलुष भरें हैं सच्ची प्रीति कहाँ भाती है, खाली हाथ द्वार से लौटा राधा तेरा मुरारी हारा।। मुझको ये मालूम नहीं था किस्सों में उल्फ़त होती है दिल की दौलत से भी बढ़कर दुनियावी दौलत होती है दुनियादारी के मसलों में मैं था निपट अनाड़ी हारा।। सुरेश साहनी,कानपुर
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टूटा नहीं हूँ दिल से शिकस्ता नहीं हूं मैं।। हाज़िर हूँ अपने दौर से गुज़रा नहीं हूं मैं।। कुछ उलझनें हैं फ़िक्र हैं दुनिया के रंज हैं इक तुम चले गए तो क्या तन्हा नहीं हूं मैं।। मेरे मिज़ाज़ में कभी तल्ख़ी नहीं रही पर ये न सोच लेना कि रूठा नहीं हूं मैं।। साक़ी तेरी नज़र में अगर फेर है तो फिर आशिक़ हूँ सिर्फ़ जाम का प्यासा नहीं हूं मैं।। पत्थर है तू तो क्या करूँ अपने वजूद का मत सोच टूट जाऊंगा शीशा नहीं हूं मैं।। माहिर हूँ अपने फ़न पे मेरा अख्तियार है ये और बात है अभी चमका नहीं हूं मैं।। जैसा कि दिख रहा हूँ मैं वैसा तो हूँ मगर जैसा तेरा ख़याल है वैसा नहीं हूं मैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
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तुमने ख़त में कितनी बातें लिख दी हैं । आँसू लिक्खे हैं बरसातें लिख दी हैं ।। और विरह की सुबह नहीं होनी है क्या तुमने गम की काली रातें लिख दी हैं ।। तुमको वैसे भी एक अवसर देना था शह तो देते सीधे मातें लिख दी हैं ।। हम अब भी हैं इश्क़ के पहले दर्जे में तुमने फिर भी चार जमातें लिख दी हैं।। वो ज़ख्मों पर मरहम बनने आये थे जाने क्यों घातों पर घातें लिख दी हैं।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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फिर वही बातें पुरानी । फिर वही भूली कहानी।। क्यों नहीं हम भूल जाते वो तेरी यादें सुहानी।। जिंदगी कुछ ऐसे बीती जैसे गुजरे राजधानी।। सच रहे कितने जमीनी ख़्वाब कितने आसमानी।। तुम न थे तो दूसरे थे जिंदगी तो थी बितानी।। उम्र संघर्षों में गुजरी क्या लड़कपन क्या जवानी।। क्या बताएं हम गलत थे या जवानी थी दिवानी।। सुरेश साहनी, कानपुर
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सफ़र से हार कर लौटा नहीं हूँ। थका तो हूँ मगर टूटा नही हूँ।। तुम्हारा हूँ तुम्हारा ही रहूँगा फ़क़त मज़बूर हूँ झूठा नहीं हूँ।। विरासत में दुआयें ही मिली है मैं आलमगीर का बेटा नहीं हूं।। सियासत मेरे बस की तो नहीं है ज़ुबाँ देकर कभी पलटा नहीं हूँ।। भले दौलत नहीं शोहरत नहीं है नसीबन दिल से मैं छोटा नहीं हूं ।। मुहब्बत की कसौटी पर उतारो खरा निकलूँगा में खोटा नहीं हूँ।। सुरेशसाहनी
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किस पत्थरदिल ने मेरी तक़दीर लिखी। दिल मुझको उसके हिस्से में हीर लिखी।। खुशियां सारी दे डाली अगियारों को मेरे हिस्से में ग़म की जागीर लिखी।। देना था तो देता सिफत मसीहाई खाली पीली फितरत मेरी कबीर लिखी।। मैं आवारा बनजारा ही अच्छा था क्यों पैरों में रिश्तों की जंज़ीर लिखी।। कैसे सोता मस्ती की चादर ताने जब हो दिल मे दुनिया भर की पीर लिखी।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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जीना गुनाह है यहाँ मरना गुनाह है। सरकार से सवाल भी करना गुनाह है।। सरकार की अदा है बदल जाना बात से किसने कहा है उनका मुकरना गुनाह है।। सँवरे बगैर हुस्न कयामत है यार का उसकी नज़र में कत्ल न करना गुनाह है।। सिजदे में सिर है ज़ेहन है इबलीस की नज़र बेशक़ ख़ुदा के नाम पे डरना गुनाह है।। सिर लेके चल रहे हो मुहब्बत की राह पर यूँ इश्क़ की गली से गुजरना गुनाह है।। जब लोग जी रहे हैं उन्हें देख देख कर ये मत कहो कि उनका सँवरना गुनाह है।। दरअस्ल आशिक़ी का मज़ा डूबने में हैं फिर कारोबारे-ग़म से उबरना गुनाह है।। सुरेश साहनी, कानपुर