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Showing posts from October, 2022
 सँवर  के रात मेरी चांदनी सी हो जाये। छुओ तो यूँ कि छुवन सनसनी सी हो जाये।। कि ताल ताल मेरी धडकनों में गूंज उठे कि श्वांस श्वांस मधुर रागिनी सी हो जाये।।
 चल रहा है झूठ कितने पांव लेकर आज क्या होता यही आया है अक्सर न्याय जैसे शब्द इसके आश्रय हैं सत्य भी छुपता है इसकी आड़ लेकर कौन कहता है कला जापान की है पद प्रतिष्ठा मान सबकी बोनसाई सब तो अपने देश मे होती रही है जन्म से अधिकार की बन्दर बंटाई थक गई है पावनी कलि मल हरण से भारती विश्राम करना चाहती है आह भरती है अयोध्या के किनारे सत्य का अवसान सरयू देखती है।। सुरेश साहनी कानपुर
 फिर तसल्ली का गुमां रोशन है। फिर अयोध्या की फिजां रोशन है।। आज सरकार ने दिल खोला है मेरे मालिक का मकां रोशन है।। रोशनी क्या है हक़ीक़त समझें झूठ से सारा ज़हां रोशन है।। रोशनी तीर से तलवार से है इल्म से ख़ाक ज़मां रोशन है।। यां चिरागां की ज़रूरत ही न थी नूरे अवधी से  समां रोशन है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जिस्म का हक़ कुछ नहीं है जिस्म में। रूह क्या सचमुच मकीं है जिस्म में।। जिस्म तो आकाश में जाता नहीं रूह की कितनी ज़मीं है जिस्म में।। इश्क़ जाने कब रूहानी हो गया तू मगर अब भी वहीं है जिस्म में।। जिस्म को नहला लिया धो भी लिया धूल फिर किस पर जमी है जिस्म में।। ज़िस्म को बेशक़ यकीं है रूह पर रूह को कितना यकीं है जिस्म में।। हम ने देखे ही नहीं दैर-ओ-हरम आप का जब घर यहीं है जिस्म में।। दिल तो उसने कर ही डाला दागदार और अब क्या कुछ हसीं है जिस्म में।। सुरेश साहनी कानपुर
 बे वतन होना बुरा एहसास है। दिल मगर मेरा वतन के पास है।। बाल बच्चे छोड़कर आएं है हम ये भी तो इक किस्म का बनवास है।। लोग मेरे मानपूर्वक जी सके इसलिए हमने सहे हर त्रास हैं।। स्वप्न सब साकार होंगे एक दिन इस बात का पूरा मुझे विश्वास है।। इससे बेहतर कोई भी खुशबू नहीं मेरी मिटटी की महक कुछ खास है।। सुरेश साहनी
 समझने और समझाने के दिन हैं। यही तो अच्छे दिन आने के दिन है।। सियासत की तुम्हे कुछ भी समझ है ये दंगे कैश करवाने के दिन हैं।। कोई क्या खायेगा वे तय करेंगे हमारे सिर्फ भय खाने के दिन हैं।। कलाकारों कलमकारों पे बंदिश कन्हैया अब तेरे आने के दिन हैं।। कहाँ सम्मान ही बाकी बचा है जो अब सम्मान लौटाने के दिन हैं।। 
 समझने और समझाने के दिन हैं। यही तो अच्छे दिन आने के दिन है।। सियासत की तुम्हे कुछ भी समझ है ये दंगे कैश करवाने के दिन हैं।। कोई क्या खायेगा वे तय करेंगे हमारे सिर्फ भय खाने के दिन हैं।। कलाकारों कलमकारों पे बंदिश कन्हैया अब तेरे आने के दिन हैं।। कहाँ सम्मान ही बाकी बचा है जो अब सम्मान लौटाने के दिन हैं।।
 तुम्हे हमने हमारा सब दिया है। मगर तुमने तवज्जो कब दिया है।। हमारी आदमीयत छीन ली है  बदलकर इक अदद मजहब दिया है।।  सलीका भी अता कर उसको मौला जिसे मीना-ओ-सागर सब दिया है।। मेरी जीने की हसरत मर चुकी है  मुझे ऐवान बे मतलब दिया है।। उसे दिल किसलिए छोटा दिया है जिसे इतना बड़ा मनसब दिया है।।  हमारे प्यार के बदले में तुमने हमे धोखा दिया है जब दिया है।। सुरेश साहनी
 #पाती प्रेम भरी पाती लिखने की उमर ना रही। कैसे समझाती लिखने की उमर ना रही।। वो कहते हैं चिट्ठी में जानेमन लिखना क्यूँकर बतलाती लिखने की उमर ना रही।। वैसे भी तो तुम मेरे मन में रहते हो किसको पठवाती लिखने की उमर ना रही।। मन के भेद अगर कोई दूजा पा जाता मैं शरमा जाती लिखने की उमर ना रही।। एक नदी सी शेष कामना में जीती हूँ तुझमे मिल जाती लिखने की उमर ना रही।। सुरेश साहनी
 फूल कांटों में तलाशे जायें। दिल न पत्थर से तराशे जायें ।। और किस तरह मनायें उनको रूठ जायें तो बला से जायें।। हक़ विरासत के मिले बेटों को क़त्ल होने को नवासे जायें ।। आप आये हैं मरासिम के तहत दे चुके हैं जो दिलासे जायें।। सब्र की ताब आख़िरत पर है आप कह दें तो ज़हाँ से जाएं।। मेरी हस्ती पे घटा बन बरसो क्यों तेरी वज़्म से प्यासे जाये।। सुरेशसाहनी , कानपुर
 आज तेवर में ग़ज़ल आयी है। इस तरह पहले पहल आयी है।। कल फ़क़त हुस्न पर इतराती थी आज पत्थर में बदल आयी है।। प्यार से बेतरह नफ़रत थी जिसे आज वो ताजमहल आयी है।। ग़ैरमुमकिन है गए दिन लौटें ज़िन्दगी दूर निकल आयी है।। मौत से मुझको डराता है क्या  ज़ीस्त उस सू भी टहल आयी है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 मेरे शब्द तेवर बदलने लगे हैं। मेरे गीत भी सच उगलने लगे हैं।। मेरी बेख़ुदी वाकई बढ़ गयी है कदम लड़खड़ा के सम्हलने लगे हैं।। न जाने कहाँ से उड़े हैं ये जुगनू अंधेरों के दिल भी दहलने लगे हैं।। उधड़ने लगी है अंधेरों की चादर सुआओं के धागे निकलने लगे हैं।। कहानी वहीं की वहीं रुक गयी थी अभी उसके किरदार चलने लगे हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 अगर छोटी विजय के मद में सच को भूल जाओगे। तो फिर लम्बी लड़ाई में यकीनन मात खाओगे।।
 अभी भी दिल लगाना चाहते हो। मियाँ क्यों चोट खाना चाहते हो।। ख़ता करने के दिन अब जा चुके हैं सज़ाएं क्यों बढ़ाना चाहते हो।। साहनी
 अब ग़ज़ल कब तक रहेगी उनके पेंचोखम तलक। एक दिन आना ही होगा आशिके बरहम तलक।। सब्र की भी इंतेहा है इश्क़ की भी एक हद ज़िन्दगी की हद नहीं है  सिर्फ़ उन के ग़म तलक।। यमुना गंगा दोनों मिल कर दूर सागर तक गये आप समझे इस नदी का था सफर  संगम तलक।। चाँद की आवारगी की बात यूँ फैली कि फिर रात रोई तारिकाएं रो पड़ी शबनम तलक।। एक नादानी से दुनिया भर में रुसवा हो गए तुम को थी कोई शिकायत बात रखते हम तलक।।
 अपना आना बता दिया होता। हमने दामन बिछा दिया होता।। मुद्दतों बाद आप आये हैं इक ज़रा मुस्करा दिया होता। आपकी इस ज़रा सी ज़हमत पर हमने क्या क्या लुटा दिया होता।। तार टूटे दिलों के जुड़ जाते आपने गुनगुना दिया होता।!
 आज मर्यादा की लक्ष्मणरेखाओं के लांघने का समय है।मिथक साक्षी हैं कि उन्हीं शक्तियों के पटहरण के प्रयास हुए हैं,जिन्होंने वर्जनाओं का सम्मान किया।साहित्य में ऐसी लक्ष्मणरेखाओं की बहुलता रही है। इन नैतिक सीमाओं की रक्षा करते हुए हज़ारों कवि/ साहित्यकार काल कवलित हो कर गुमनामी के अंधेरों में विलीन हो गये।  समय बदला।आज के परिप्रेक्ष्य में कहा जाये तो वह हर व्यक्ति सफल है ,जिसने इन मर्यादाओं का उल्लंघन किया।कविता और गायकी में अंतर दिखना चाहिए।किन्तु ढेर सारे कवियों ने मात्र गलेबाजी के जरिये मंचों पर धमाल मचाया। हास्य के नाम पर पत्नी, साली और विवाहेतर फूहड़ चुटकुले मंचों की शोभा बने।वीर रस की रचनाओं में केवल वर्गीय घृणाएँ और पाकिस्तान के अतिरिक्त किसी तरह की सकारात्मकता का अभाव ही नजर आता है। लेकिन आज ऐसे ही लोग साहित्य जगत के दैदीप्यमान नक्षत्र हैं। यह विडंबना ही आज का यथार्थ है।
 कैसे कह दें हम कहते हैं बात बड़ी। कहते हैं जब कविता भी चिकनी चुपड़ी ।। दावा है हम नई क्रांति के गायक हैं लिखते हैं पर लाल छड़ी मैदान खड़ी।।  सुरेश साहनी
 हरदम ये मुलाकात के मौसम न रहेंगे। तुम तुम न रहोगे कभी हम हम न रहेंगे।। ये चाँद ये तारे तेरी दुनिया भी रहेगी एक हम न रहेंगे जो तेरे ग़म न रहेंगे।। ये हुस्न भी ढल जाएगा एक रोज मेरी जां जो इश्क़ के मारे तेरे हमदम न रहेंगे।। ये अब्र अगर प्यार की बारिश न करेगी जल जाएंगे आंसू तेरे शबनम न रहेंगे।। ये चांदनी भी चार दिनों तक ही रहेगी ताउम्र ये जलवे यही आलम न रहेंगे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 मेरे आगे वो मंज़र आ रहे हैं। वो ख़ुद चलकर मेरे घर आ रहे हैं।। मैं सहराओं के जंगल मे खड़ा हूँ सफीने पर बवण्डर आ रहे हैं।। मेरा अगियार अपने  साथ लेकर मुहब्बत के कलंदर आ रहे हैं।। ख़ुदारा तिश्नगी की ताब रखना बुझाने खुद समन्दर आ रहे हैं।। कहाँ तक आईना बनकर रहूँ मैं मेरी ही ओर पत्थर आ रहे हैं।। अगर चारो तरफ हैं दोस्त अपने कहाँ से इतने खंज़र आ रहे हैं।। अँधेरों तुमको जाना ही पड़ेगा अभी सूरज उगा कर आ रहे हैं।। सुरेश साहनी,कानपुर
 किस दूरी का वास्ता देने लगे हुज़ूर। दिल दिल्ली से दूर था या दिल्ली थी दूर।। हम अपने सीवान में आप बसे बंगलूर। तब भी तो दिल मे मेरे बैठे मिले हुज़ूर।। दूरी का शिकवा गया देख चाँद का नूर। कोई भी दूरी कहाँ इंतज़ार से दूर।। प्रियतम हरजाई लिए अंकशायिनी सौत। काहे का कोसा भरें  कैसा करवा चौथ।। घर बाहर भोगी रहे घर मे ले सन्यास। उस पिय का क्या फायदा दूर रहे या पास।। धन्य यहाँ की नारियाँ नेह मिले या त्रास। पति की लंबी उम्र को रखती हैं उपवास।। सुरेश साहनी, कानपुर
 रोजी रोटी की ख़ातिर नाहक़ लड़ते हैं। पहले मंदिर मस्जिद की बातें करते हैं।। अल्ला और भगवान सभी के खतरे में हैं इंसानों का क्या वे तो मरते रहते हैं।।
 अब वो हर मौसम में खिलना सीख गया है। बिना सहारे के भी पलना सीख गया है।। इतनी शतरंजी चालों से गुज़रा है वो सीधा आड़ा तिरछा चलना सीख गया है।। एक न एक दिन कामयाब उसको होना है वो गिर कर भी स्वयं सम्हलना सीख गया है।। हर लिहाज से राजनीति में सफल रहेगा गिरगिट जैसा रंग बदलना सीख गया है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 मुहब्बत क्या कहें इतना पता है। मुहब्बत जिसने की खुद लापता है।। ये साढ़े चार अक्षर क्या बला हैं बताता ही नहीं जो जानता है।।
 तब कितना अंधियारा होगा सोचा है । क्या तब दीपक होता होगा सोचा है। तब जब चकमक माचिस वाला दौर न था कैसे दीपक बाला होगा सोचा है।।SS
 रोशनी को दिये जलाये हैं। पर अंधेरे अभी भी छाए हैं।। और बौना हुये हैं हम घर में कुछ बड़े लोग जब भी आये हैं।। कुछ नई बात क्या करें उनसे सब तो किस्से सुने सुनाये हैं।। क्या किनारे मुझे डुबायेंगे जो बचाकर भँवर से लाये हैं।। दोस्तों को न आजमा लें हम कितने दुश्मन तो आज़माये हैं।। आप भी हक़ से ज़ख़्म दे दीजे क्या हुआ आप जो पराए हैं।। आप की दुश्मनी भी नेमत हैं यूँ तो रिश्ते बहुत निभाये हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 हमारी और उसकी एक भी आदत नहीं मिलती। जो उसके शौक़ हैं उनसे मेरी फ़ितरत नहीं मिलती।। हमारे दिल के दरवाजे से मिसरे लौट जाते हैं कभी हम खुद नहीं मिलते,कभी फुर्सत नहीं मिलती।। जिसे भी अज़मतें दी आपने  दरवेश कर डाला जहाँ पर ताज बख्शे हैं वहां अज़मत नहीं मिलती।। कभी महबूब से मिलना न हो पाया न जाने क्यों उसे खलवत नहीं मिलती हमें क़ुर्बत नहीं मिलती।। पता चलते ही ये सच शेख मैखाने चले आये कभी दैरोहरम के रास्ते ज़न्नत नहीं मिलती।। फरिश्ते का कभी इबलीस होना ग़ैर मुमकिन था अगर उसको ख़ुदा का क़ुर्ब या सोहबत नहीं मिलती।। अगर गज़लें कबाड़ी ले गए समझो गनीमत है बड़े बाजार में इससे भली कीमत नहीं मिलती।। सुरेशसाहनी
 रोशनी को दिये जलाये हैं। पर अंधेरे अभी भी छाए हैं।। और बौना हुये हैं हम घर में कुछ बड़े लोग जब भी आये हैं।। कुछ नई बात क्या करें उनसे सब तो किस्से सुने सुनाये हैं।। क्या किनारे मुझे डुबायेंगे जो बचाकर भँवर से लाये हैं।। दोस्तों को न आजमा लें हम कितने दुश्मन तो आज़माये हैं।। आप भी हक़ से ज़ख़्म दे दीजे क्या हुआ आप जो पराए हैं।। आप की दुश्मनी भी नेमत हैं यूँ तो रिश्ते बहुत निभाये हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 अहले महफ़िल हैं नाबीना। किसको दिखलाये आईना।। जनता गूंगी राजा बहरा बेहतर है होठों को सीना।। एसी और बिसलेरी वाले कब समझें हैं खून पसीना।। जुल्म सहन करना चुप रहना अब इसको कहते हैं जीना।। किसे पुकारे आज द्रौपदी दुःशासन पूरी काबीना।। आज अलीबाबा मुखिया है चोरों का बोली मरजीना।। राम खिवैया हैं तो डर क्या बेशक़ है कमजोर सफीना।। सुरेश साहनी कानपुर  9451545132
 इक ख़ुदा ही तलाश करना  था। या पता ही तलाश करना था।। मैं तो बेख़ुद था आप कर लेते मयकदा ही तलाश करना था।। हमसफ़र की किसे ज़रूरत थी हमनवा ही तलाश करना था।।  उसने झूठी तसल्लियाँ क्यों दी जब नया ही तलाश करना था।। मुझसे क्या उज़्र था अगर उसको बेवफ़ा ही तलाश करना था।। मुझको मंज़िल तलाश करनी थी उसको राही तलाश करना था।। साहनी सुरेश कानपुर 9451545132
 इश्क़ में ख़ुद को वारना तय था। हुस्न के हाथ हारना तय था।। हुस्न की फ़िक्र में जिया वरना इश्क़ का खुद को मारना तय था।। उसके बढ़ते कदम न् रुकते तो साथ जीवन गुज़ारना तय था।। क्यों गए भूल जितनी चादर हो पाँव उतना पसारना तय था।। क्या किसी गाम पर सदा आयी जबकि उसका पुकारना तय था।। लाख तूफान ज़िद पे आये हों अपना किश्ती उतारना तय था।। दिल की दुनिया उजाड़ दी उसने जिसका मुझको संवारना तय था।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 चाँद तुम कुछ जल्द आकर क्या करोगे या पिघलकर व्याहताओं की सुनोगे क्या  समय की तालिका से ही चलोगे या स्वयं अपने नियम ही तोड़ दोगे? वे तुम्हारी दर्शकामी निर्जलाएं खोजती चढ़कर तुम्हे अट्टालिकाएं कोसती भी है तुम्हें अब तक न आये क्या उन्हें भी तुम द्रवित हो दर्श दोगे? ये तो अच्छा है कि यह पूनम नही है राहु के पास इतना बल विक्रम नही है किन्तु तेरे शत्रु भी कुछ कम नहीं हैं घेर लें बादल अगर तुम क्या करोगे ?
 मुझे हिंदी भी आती है मुझे उर्दू भी आती है। मेरे किरदार से तहज़ीब की ख़ुशबू भी आती है।।सुरेश साहनी
 तुम्हें मिलकर नफ़स कुछ यूँ  चली है । हवाओं में बला की खलबली है।। रहा है इश्क़ संजीदा अज़ल से फ़ितरते- हुस्न अज़ल से मनचली है।। पतंगा मर मिटा है इक शमा पे शमा अगनित पतंगों से  मिली है।। चलो उस दश्त में कुछ पल गुज़ारें मुहब्बत की जहाँ लौ सी जली है।। धड़कते दिल पे आकर हाथ रख दो पता तो हो ये कैसी बेकली है।। सुरेशसाहनी,कानपुर
 सत्य और सद्भाव के प्रतिनिधि हैं हर देव। किन्तु भक्त इनके लिए लड़ते मिले सदैव।। भारत मे हर जाति के अलग अलग हैं देव। सत्यमेव के नाम पर झगड़े हुए सदैव।।SS
 मैं उस निगाहेनाज़ से गिरकर सम्हल गया। हैरत है राहेइश्क़ पे चलकर सम्हल गया।। आने पे उनके जब कोई हरकत नहीं हुई अगियार कह उठे मुझे मरकर सम्हल गया।। किसने कहा ख़ुदा में खुरापातियाँ न थीं सच  है कि वो इबलीश से डरकर सम्हल गया।। जो आसमान में उड़े उनकी ख़बर कहाँ हाँ मैं ज़मीन पर पड़ा रहकर सम्हल गया।। दैरोहरम में ख़ूब बहकता था जो अदीब वो मैक़दे में इक दफा आकर सम्हल गया।। सुरेश साहनी,कानपुर
 बड़ा कोहराम ढाया तितलियों ने। चमन को फिर बचाया बिजलियों ने।। मछेरे जाल में जब भी फँसे हैं बचाया है हमेशा मछलियों ने।। हमारी तिश्नगी सहरा ने समझी मेरा सागर सुखाया बदलियों ने।। अगर बचना है तो उतरो भँवर में सिखाया डूब जाना मछलियों ने।। बड़ा होकर भी कठपुतली बना तो नचाया है सियासी उंगलियों ने।। सुरेश साहनी,कानपुर 9451545132
 अभी हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने एक रिपोर्ट में कहा की वैश्विक मंदी का असर भारत पर इसीलिए नहीं हुआ,क्योंकि भारत की बैंकिंग व्यवस्था का बड़ा हिस्सा इन्टरनेट से नहीं जुड़ा था|कम से कम अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने मनमोहन को अप्रत्यक्ष रूप से सराहा|यद्यपि मैं इससे कतई सहमत नहीं हूँ|भारत की अर्थव्यवस्था वस्तुतः जटिल अर्थ व्यवस्था है|या यूँ कहे भारत एक मात्र ऐसा देश है ,जहाँ विनिमय और व्यापार के  सभी स्वरुप प्रचलित हैं|यह ऐसा देश है जहाँ सरकारी,अर्ध सरकारी ,सहकारी,सार्वजनिक और निजी सभी प्रकार की व्यवस्थाएं एक साथ चल रही हैं|सभी सरकारी संस्थाओं में आउटसोर्सिंग के जरिये निजी क्षेत्र सक्रिय है|और सभी निजी क्षेत्र सरकारी ऋणों और अनुदान पर चल रहे हैं|सब्सिडी निजी क्षेत्र को उपकृत करने का ही एक माध्यम है|सभी चलते संस्थान घाटे में लाकर निजी हाथों में बेचे जाते हैं, और सभी निजी संस्थाओं के घाटे में जाने पर सरकार टेक ओवर करती है,ऋण माफ़ करती है,बेल आउट जारी करती है| इस प्रकार यहाँ राष्ट्रीयकरण और निजीकरण एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है|            लेकिन म...
 सब सरकार का साथ दें। दाल आज से त्याग दें।। देवगणों की आहुतियों में अब इनको भी भाग दें।। प्याज तामसी भोजन है इसका त्याग जरूरी है। रोटी और नमक वाजिब है बाकी खानापूरी है।। जो भी चीजें महँगी हैं उन चीजों का त्याग करो। पिज्जा-बर्गर जम कर खाओ रोटी-दाल का त्याग करो।। सुनो किसानों! चिंता छोडो हल कुदाल को फेक दो। हम अनाज आयात करेंगे तुम बस हमको वोट दो।। सुरेश साहनी
 चल जिधर चल दे ज़माना। बैठ कर क्या दिन बिताना।। चार दिन की जिंदगानी क्या बनाओगे ठिकाना।। सिर्फ इक पीने की खातिर कब तलक होगा बहाना।। उम्र भर बुनने हैं सपने रोज़ ताना रोज़ बाना।। ज़िन्दगी सचमुच कठिन है तुम इसे आसां बनाना।। कौन रोता है यहां पर इक मेरी ख़ातिर यगाना।। जीतने से भी बड़ा है दिल किसी पर हार जाना।। क्या लिखें क्यों कर लिखें हम अब किसे सुनना सुनाना।। सुरेश साहनी कानपुर
 धनतेरस हैं धनवानों का देव देवियों भगवानों का पर गरीब क्यों खुश होता है गला घोंटकर अरमानों का राशन पर आधार लगेगा स्वप्न देख ले पकवानों का राजा खुश अब्दुल्ला खुश है काम यही है दीवानों का हमको बोझ उठाना ही है घोटालों का हर्ज़ानों का सुरेश साहनी
 इस मौके को मत बिसार दो। रावण को इस बार मार दो।। राजा राम    तुम्हारे मारे  कोई रावण नहीं मरा है जिसका श्रेय तुम्हें मिलता है वनवासी का किया धरा है जिसने नर वानर का अंतर सहज प्रेम से मिटा दिया था कुशल संगठन बल से जिसने हर दूरी को घटा दिया था श्रेय उसी को बार बार दो।।.... राजा राम किसी के मारे कहाँ कोई रावण मरता है रावण अलग अलग रूपों में हममें सदा मिला करता है यदि वनवासी राम न होते माँ सीता यदि त्याग न करती रावण अजर अमर ही रहता धरती पाप  झेलती रहती क्या सच है कुछ तो विचार दो।।.... सुरेशसाहनी,कानपुर ।
 किसे ख़्वाबों में हम ढोने लगे हैं। मुसलसल रतजगे होने लगे हैं।। हमें  मालूम  है  धोखे  मिलेंगे वफायें जिनसे संजोने लगे हैं।। कोई अवतार लेना चाहता है पहरुए रात दिन सोने लगे हैं।। मुहब्बत चाहते हैं लोग लेकिन सियासी नफ़रतें बोने लगे हैं।। हमें पाना है तो कुछ दूर जाओ तुम्हारे पास हम खोने लगे हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 स्वार्थ में दो चार रिश्ते खो दिए। फिर गया में पाप सारे धो दिए।। पेट अपनी पुश्त का भरता न था खेत मे ऊंचे भवन कुछ बो दिए।। ये समन्दर है कभी घटता नहीं क्या हुआ जो चार आँसू रो दिए।। लाज़मी है कुछ ज़माने को दिखे रख ही दो दहलीज़ पर इक दो दिये।। है ये बेटों का बड़ा एहसान जो बाप की अर्थी कदम दो ढो दिए।। सुरेश साहनी, कानपुर
 सभी जाते हैं जाऊँगा यक़ीनन।  मगर मैं फिर से आऊँगा यक़ीनन।। कि गाऊँगा ही गाऊँगा यक़ीनन। तुम्हें फिर गुनगुनाउंगा यक़ीनन।। ये रिश्ता इस ज़हां तक ही नहीं है जहाँ जाऊँ निभाउंगा यक़ीनन।। भुला पाना तो मुमकिन ही नहीं है मैं रह रह याद आऊँगा यक़ीनन।। क़यामत तक मिलोगे ये गलत है मैं तब तक रुक न पाऊंगा यक़ीनन।। मैं मधवा-ए-मुहब्बत से भरा हूँ मिलोगे तो पिलाऊंगा यक़ीनन।। ख़ुदा से है शिकायत ढेर सारी रोज़-ए-हश्र उठाऊंगा यक़ीनन।। मुहब्बत का ख़ुदा होकर रहूँगा नयी दुनिया बसाऊँगा यक़ीनन।। कोई परदा नहीं होता ख़ुदा से अगर है तो हटाऊंगा यकीनन।। तुम्हारी याद में लिक्खी ग़ज़ल है ये दुनिया को सुनाऊंगा यक़ीनन।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 कल थे इक दुख में दुखी सारे पागल लोग। पर उत्सवरत भी रहे कई प्रैक्टिकल लोग।।
 मत कहना नाशाद हो गए। लो अब तुम आज़ाद हो गए।। एकतरफा थी प्रीत हमारी हार हमारी जीत तुम्हारी थी ये ऐसी साझेदारी जिसमें हम बरबाद हो गए।।लो अब तुम तन मन धन था तुम्हे समर्पित रहे प्राण भी तुमको अर्पित किन्तु न कर पाये आकर्षित वरीयता में बाद हो गए।।लो अब तुम किन्तु न अब होगी हैरानी करना तुम अपनी मनमानी ख़त्म हमारी राम कहानी भूली बिसरी याद हो गए।।लो अब तुम
 माना एक दिवस जाना है शेष दिवस तो खुल कर जी लें। सभी बहाने हैं मरने के चलों इन्हीं में खा लें पी लें।। सुबह शाम की मारा मारी इनसे यारी उनसे रारी जैसे तैसे रात गुज़ारी फिर अगले दिन की तैयारी  चादर गलनी ही गलनी  है  जितना धो लें जितना सीलें।। दिन आएंगे जायेंगे ही हम उनको अपनाएंगे ही सोते जगते रोते हँसते जैसे हो कट जायेंगे ही जितनी अपनी क्षमताएं हैं बेहतर है हम उतना ही लें।।
 समन्दर में नदी इकदिन समानी।  हमारे प्यार की इतनी कहानी।। तुम्हारे ग़म हमारी ज़िंदगी है ख़ुदा दे और लम्बी ज़िंदगानी।। मेरी तन्हाईयों में राहतें हैं तुम्हारे याद की चादर पुरानी।। किसे दरवेश होने का पता था कहाँ हम थे कहाँ तुम राजरानी।। मुसाफ़िर हो के भी सब सोचते हैं ये दुनिया है उन्हीं की राजधानी।।
 हमें यक़ीन है  वह भूख से नही मरी वह भात के बग़ैर भी नही मरी आके देखिये गोदाम अनाज से भरे हुए हैं लोग खाने बगैर कब मरते हैं ज्यादा खाने से मरते हैं गरीबों के लिए  बड़े बड़े होटल खुले हैं अस्पताल खुले हैं मेडिकल स्टोर खुले हैं स्कूल खुले हैं और सरकार खुद  गरीबों के लिए मर रही है ये गरीब लोग भी अज़ीब होते हैं न चैन से जीते हैं न जीने देते हैं अरे मरना था तो गोरखपुर चली जाती वहां चुनाव पांच साल बाद है..... सुरेश साहनी कानपुर।।
 कइसे  राउर  जियरा  मानल। भुलवा दिहलू जीयल मूवल।। धन वैभव में बंदी भईलू उ का जानी तुहके राखल।। दूसर केहू तबले पूछी जबले रही जवानी चटकल।। मुवले ले हम राह निहारब अब्बो आशा नईखे टूटल।। दुइये काम मिलल बा हमके इयाद कईल आ राहि निहारल।। रउरे से जदि भेंट न होई  हमरो प्रान न निकली अटकल।। केतना दिन ले लईका रहबू अब ते छोड़S जान निकारल।। सुरेश साहनी,कानपुर #भोजपुरी
 द्विगुणित करवा चौथ का हो जाता उल्लास। जो पिय होते चांद सह इस विरहिन के पास ।।SS कृष्ण पक्ष की चौथ का चंदा कातिक मास। पुनः पुनः मधुयामिनी का देता आभास।।SS
 उस हुस्ने-लाजवाब से रिश्ता नहीं रहा। मेरा कभी गुलाब से रिश्ता नहीं रहा।। वैसे तो मैं मिज़ाज़तन बेख़ुद रहा मगर साक़ी से या शराब से रिश्ता नहीं रहा।। उसने मुझे खयाल में रक्खा नहीं अगर मेरा भी उसके ख़्वाब से रिश्ता नहीं रहा।। आमद ख़ुदा की भी मेरे घर पर नहीं हुई मेरा भी उन ज़नाब से रिश्ता नहीं रहा।। जिस तरह आफ़ताब से दूरी बनी रही  वैसे ही माहताब से रिश्ता नहीं रहा।। वो चाहता है उसको खिताबे-गुहर मिले जिसका कि इंकलाब से रिश्ता नहीं रहा।। सुरेश साहनी, कानपुर
 प्रथम शैलपुत्री जहाँ ले आती नवरात। वहाँ शैल चित नित करें कन्याओं पर घात।। ब्रम्हचारिणी माँ धरो चामुण्डा का वेश। कामी कपटी दे रहे मातृ शक्ति को क्लेश।।
 भैया हम हर हाल में खुश हैं। अपनी रोटी दाल में खुश हैं।। कोई अपने दांव में उलझा कोई शकुनि चाल में खुश है।। राग झिंझोटी दुनियादारी हम अपनी सुर-ताल में खुश हैं।। मुझको टैग न करना भैया हम तो अपनी वाल में खुश हैं।। दो नंबर सब तुम्हे मुबारक हम मेहनत के माल में खुश हूँ।। जिन्हें वोट की चिंता है वो दंगा और बवाल में खुश हैं।। काले को सफेद करते हैं बाबा इसी कमाल में खुश हैं।  इससे अच्छे दिन क्या होंगे मुर्ग नहीं तो दाल में खुश हैं।।  याद हमें तुम भी करते हो तेरे इस अहवाल में खुश हैं।। तुम को क्या लगता है फंसकर- हम वादों के जाल में खुश हैं।। सुन कुर्सी के भूखे नंगों हम हल और कुदाल में खुश हैं।। तुम दौलत पाकर रोते हो हम हाले-कंगाल में खुश हैं।। सुरेशसाहनी,कानपुर
 उठाये हुए हैं   मुहब्बत का  परचम । अली दम कलन्दर कलन्दर अली दम।। कई चाँद सूरज यहां हाज़िरी दें यही तो है मरकज़ कहाँ हाज़िरी दें यहीं से है हरसू उजाले का आलम।। कभी राम बनकर कभी श्याम बनकर दुखी दीन लोगों के सुख धाम बनकर यही है अनलहक यही ब्रम्ह सोहम्।।
 जीवन के लंबे रास्तों पर चलते चलते क्या कभी  उस थकन को महसूस किया है जब कविताएं भी  दम तोड़ती हुई लगने लगती हैं यह किसी उबाऊ रास्ते पर चलते चलते होने वाली हाथ पैरों की टूटन से भी कहीं ज्यादा खतरनाक है कविता का आईसीयू नहीं होता..... सुरेश साहनी, कानपुर
 सपने जब से सरकारों की क़ैद हुए। सच उस दिन से अख़बारों की क़ैद हुए।। भूले भटके जो मिल जाते थे पहले खुशियों के दिन त्योहारों की क़ैद हुए।। हिन्दू मुस्लिम के गंगा जमुनी रिश्ते मज़हब के पहरेदारों की क़ैद हुए।। ख़त्म हुए दिन अब रिंदों की मस्ती के सागर साकी सब बारों की क़ैद हुए।। मुक्ति कहाँ सम्भव है अब मरने पर भी जब से विवरण आधारों की क़ैद हुए।। प्रेम भटकता है उनमें जिन गलियों में दिल नफरत की दीवारों की क़ैद हुए।। परमारथ की नदियाँ सागर सुख गए हम स्वारथ वाले नारों की क़ैद हुए।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 क्या अपना अहवाल सुनायें। कैसे बीता साल   सुनायें ।। तुम होटल में खा आते हो कैसे रोटी दाल सुनायें।। तुम खुश हो तो दुनिया खुश है क्या अपने जंजाल सुनायें।। हातिमताई मुसलमान के कैसे सात सवाल सुनायें।। भूखी जनता खुश हो लेगी भाषण में तर माल सुनायें।। महंगाई से कौम सुखी है अब क्या और कमाल सुनायें।। चैनल पर हैं सच ढक देवें झूठ साल दर साल सुनायें।। भूख दिखाने से बेहतर है हनीप्रीत के हाल सुनायें ।। सुरेशसाहनी,कानपुर
 आस के जंगल जलायें किसलिए। मरूथलों में घर बसाएं किसलिए।। फिर नए सपने सजाएं किसलिए। प्यार वाले गीत गायें किसलिए।। किसकी ख़ातिर रक़्स का आलम बने फिर वही धुन गुनगुनाएँ किस लिए।। दुश्मनों से बेनयाज़ी क्यों करें दोस्तों को आज़माएँ किसलिए।। मन्ज़िलों को पा के गाफ़िल क्यों रहें रास्तों को भूल जायें किसलिए।। सब यहीं रह जायेगा मालूम है तुम कहो जोड़ें घटायें किसलिए।। अपनी फ़ितरत हैं भँवर से खेलना हम समन्दर में न जायें किसलिए।। सुरेश साहनी,अदीब कानपुर
 भूख को रोटी कहूँ और प्यास को पानी लिखूं । यानि तुम जो चाहते हो ,मैं वही बानी लिखूं । जब बुझे चूल्हे की ठंडक से बशर जलते मिले, और हुकूमत से बगावत के धुंए उठते मिले, मैं इसे जनता क़ी गफलत और नादानी लिखूं।.... भूख को
 डर जाते हैं सब कि लम्बी चौड़ी है। अपनी राम कहानी बिलकुल थोड़ी है।। धारा के अनुकूल सभी चल लेते हैं हमने धारायें ही अक्सर मोड़ी है।। हमने ऐसे राम अनेकों देखे हैं राज नहीं त्यागा सीताये छोड़ी हैं।। हमने ऐसे भी दीवाने देखें हैं मैखाने में सारी कसमें तोड़ी हैं।। अब दौलत वालों की पूजा होती है दिल वालों की कीमत अब दो कौड़ी है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 ग़ज़ल छोटी बहर में लिख रहा हूँ। ये मैं किसके असर में लिख रहा हूँ।। वो कहते हैं बुजुर्गों जैसी बातें बहुत छोटी उमर में लिख रहा हूँ।। मेरी तक़दीर है ख़ानाबदोशी इक आदत है सफ़र में लिख रहा हूँ।। अभी जो शाम को गुज़री है हमपे वही बातें सहर में लिख रहा हूँ ।। पड़ेगी सायबानों को ज़रूरत मैं जलती दोपहर में लिख रहा हूँ।। हिला डाला हैं हमको आँधियों ने मैं गिर जाने के डर में लिख रहा हूँ ।। यकीं है एक दिन तो तुम पढ़ोगी इसी फेरोफ़िकर में लिख रहा हूँ।। हमारा दिल तेरे कदमों में होगा पड़ा हूँ रहगुज़र में लिख रहा हूँ।।  मुझे सच बात कहने का जुनूँ है मेरे क़ातिल के घर में लिख रहा हूँ।।
 भीड़ भरे इस सन्नाटे में  कोई तो अपना दिख जाए। जीवन रंग विहीन सरस हो कुछ ऐसा सपना दिख जाए।। कोई राजा रंक हुआ ज्यूँ ऐसे लुटा लुटा फिरता हूँ मनके टूटी स्मृतियों के फिर से जुटा जुटा फिरता हूँ जला हुआ हूँ नेह धूप का फिर से आतप ना दिख जाए।। साधक हूँ पाषाण हृदय का परिव्राजक हूँ स्नेह विषय का खो जाना ही इसकी परिणति मतलब नहीं पराजय जय का किंचित उस पाषाण हृदय को- भी मेरा तपना दिख जाए।।
 इन्तेज़ारों के बाद आते थे। ख़त तेरे कितना भाव खाते थे।। लोग जाते थे मैकदे यारब हम तेरे ख़त में डूब जाते थे।। ऐसा लगता था तुम ही लिपटे हो ख़त को सीने से जब लगाते थे।। ख़त तुम्हारे थे या ग़ज़ल कोई होठ दिन रात गुनगुनाते थे।। रोज़ मिलते थे हम तख़य्यूल में रोज़ तुम और याद आते थे।।   सुरेश साहनी,कानपुर
 ज़माने भर  से लड़ने जा रहा हूँ। मुहब्बत में  उजड़ने  जा रहा हूँ।। क़रार-ओ-सब्र है अब इंतेहा पर मैं अपनी हद से बढ़ने जा रहा हूँ।। तुम्हारा इस क़दर सजना सँवरना सम्हालो  मैं बिगड़ने  जा रहा हूँ।। मिटा दो या  बना दो जिंदगानी बस इतनी ज़िद पे अड़ने जा रहा हूँ।। तुम्हारे हुस्न तक सिमटी ग़ज़ल को भरी महफ़िल में पढ़ने जा रहा हूँ।। गुनाहों की मेरे  तस्दीक  कर दो अभी सूली  पे  चढ़ने जा रहा हूँ।। सुरेश साहनी, कानपुर
 एक मुट्ठी धूप लेकर चांदनी से प्यार करना। अब ज़माना चाहता है   रोशनी से प्यार करना।। भीग कर हालात की बारिश में टँगना ही पड़ा उनकी मजबूरी है बेशक़ अलगनी से प्यार करना।।  सुरेशसहनी
  तुम जो कह दो तो मुस्कुराएं हम। तुम कहो ग़म में डूब जाएं हम।। तुम कहो और  इम्तेहां दे दें चढ़ के दार-ओ-सलीब आएं हम।। याद करते हैं तुम को खलवत में और कितना क़रीब आएं हम।। तुमको रुसवाईयों का डर भी है दरदेदिल फिर किसे सुनाएं हम।। एक तेरी गली ठिकाना है घर कहीं और क्यों बनायें हम।। आओ होठों पे एक ग़ज़ल बनकर तुमको ताउम्र गुनगुनाएं हम।। आशिक़ी में तेरे फक़ीर हुए और देते कहाँ सदायें हम।। #सुरेश साहनी, कानपुर सम्पर्क- 9451545132
 दर्द क्यों कर सम्हाल कर रखते। जो कदम देखभाल कर रखते।। और  कैसे  बताते  हाले-दिल क्या कलेजा निकाल कर रखते।। आँधियाँ चल रही थी जब हर सूँ क्या चरागों को बाल कर रखते।। उस गली एक दिन तो जाना था क्यों महूरत को टाल कर रखते।। क्यों न होते सिकन्दरे- आज़म हम जो झण्डा उछाल कर रखते।। सुरेश साहनी, कानपुर
 स्वप्न कई पूरे हुये मिले मान सम्मान। क्यों कह दूं भगवान ने रखा न मेरा ध्यान।। कपट कुटिलता क्रूरता शठता शर सन्धान। राजनीति में गुण करें अवगुण का सम्मान।।
 तुम लिए रहौ नोबुल ।दिनामान चाटा करौ। उई फैलाईन आतंक और बड़े लीडर हुई गये।। तुम खूब पढ़े और बी एड करिके टीचर कहिलाये, उई रहे अंगूठाटेक और शिक्षा केर मिनिस्टर हुई गये।।
 वो जिनके तीर से बिस्मिल हुआ हूँ। उन्ही नज़रों का मैं कायल हुआ हूँ वो उनका देखना नजरें झुकाकर  पशेमाँ मैं सरे-महफ़िल हुआ हूँ।।  मेरा आना तुम्हारे मयकदे में सभी कहते हैं अब काबिल हुआ हूँ।। मैं खुद को खो चुका हूँ आशिक़ी में तुम्हे लगता हैं मैं हासिल हुआ हूँ।। Suresh sahani
 रावण क्या है देह आत्मा या विचार हिंदुत्व के अनुसार देह तो बार बार मिलेगी आत्मा भी अजर है, अमर है और विचार! विचार तो कभी नही मरते। सुना है रावण रूप भी बदल सकता था शरीर भी : पता नही कितना सच है पर कहते हैं आज भी रावण मरने के बाद मारने वाले के शरीर में आ जाता है  सब कहते हैं  रावण ब्रम्हलीन हो रहा है पर सत्य यह है रावण के मरते ही मारने वाला रावण बन जाता है इस तरह  रावण मरता रहता है रावण बनता रहता है रावण जिन्दा रहता है।
 तुम लेना श्वांस नहीं भूले हम भी उच्छ्वास नहीं भूले फिर कौन कमी थी चाहत में क्यों प्यार हमारा भूल गए।। पनघट से लेकर नदिया तक मेड़ों से लेकर बगिया तक अपने घर से विद्यालय तक वो नीम तले दुपहरिया तक हैं ऐसे कुछ अगणित किस्से  जिनके हम दोनों थे हिस्से  क्या कमी दिखी कुछ उल्फ़त में क्यों प्यार हमारा भूल गए।। तेरा आँगन मेरा दुआर हैं स्मृतियाँ जाती बुहार फिर हर झुरमुट पगडंडी से जैसे करती है यह गुहार क्या हुआ किसलिये छोड़ गये क्यों अपनों से मुख मोड़ गये ऐसा क्या था उस औसत में क्यों प्यार हमारा भूल गये।।
 सुना है तुम उजाले कर रहे हो। करम दिन में निराले कर रहे हो।। अभी सूरज कहीं डूबा नहीं है उसे किसके हवाले कर रहे हो।। ग़रीबों को बड़ा सपना दिखाकर उन्हें फिर अपने पाले कर रहे हो।। तुम्हीं ने  मार डाले  स्वप्न  उनके तुम्हीं अब आहो- नाले कर रहे हो।। सजा इकदिन तुम्हें मिलकर रहेगी मुहब्बत में  घुटाले  कर रहे हो।। तुम्हारा पेट कितना बढ़ गया है हज़म किसके निवाले कर रहे हो।। मरोगे स्वर्णमृग फिर एक दिन तुम अभी सीता चुरा ले कर रहे हो।। तुम्हारे काम हैं सब कंस जैसे दिखावे कृष्ण वाले कर रहे हो।। अभी है वक़्त कर लो साफ दामन मुसलसल काम काले कर रहे हो।। सुरेश साहनी,अदीब कानपुर
 जब तक कि पी रहा था मैं बन्दा शरीफ था लेकिन वुजू के बाद गुनहगार हो गया।। सुरेश साहनी
 ठोकरें खा खा के आदी हो गया हूँ। अपनी इस आदत से गांधी हो गया हूँ।। हर तरफ धोखे ही धोखे देखकर फितरतन मैं भी जिहादी हो गया हूँ।। सुरेशसाहनी
 चले जाते हो कितनी बेरुखी से। कभी ठहरा करो मेरी ख़ुशी से।। तुम्हारे हुस्न और ये नाज़ नख़रे ये सब हैं चार दिन की चांदनी से।। तुम्हैं इस दर्जा कोई चाहता है कभी सोचा भी है संज़ीदगी से।। मुहब्बत है चुहलबाज़ी नही है न खेलो यूँ किसी की ज़िन्दगी से।। तुम्हारी हर अदा अच्छी है लेकिन सभी कम हैं तुम्हारी सादगी से।। तुम्हे अफ़सोस तो होगा यकीनन चला जाऊँगा जिसदिन ज़िन्दगी से।। इक ऐसा दर्द जो महसूस होगा मगर तुम कह न पाओगी किसी से।। चलो छोडो लड़कपन साहनी जी बाज़ आ जाओ अब इस दिल्लगी से।। सुरेश साहनी, कानपुर
 समय चक्रवत घूम रहा है मानव पशुवत  झूम रहा है। अंधियारों ने जाल पसारे दिवस दुबक कर ऊंघरहा है।। शायद सूरज डूब रहा है आशाओं अभिलाषाओं का। जिग्यासा उत्कण्ठाओं का ।।शायद नर्म मुलायम रेशम जैसी गोद मिली थी मुझको माँ की माँ का आँचल छूट रहा है।। शायद बहना ने जब राखी बांधी खुशियाँ देने वाली पाँखी उसका आँगन छूट रहा है।।शायद  फिर कोई इस आँगन आया जैसे की नवजीवन आया स्नेह का अंकुर फूट रहा है।।शायद आँगन में गूंजी किलकारी महक उठी जीवन फुलवारी फिर जीवन फलफूल रहा है।।शायद आज कर लिया कन्या पूजन कल किसको दोंगे यह भोजन क्या हमसे कुछ छूट रहा है।।शायद
 क्या कोई सच कह सकता है। क्या अब भी ऐसा होता है ।। जनता की    मजबूरी होगी लेकिन राजा क्यों नंगा  है।। क्यों रोते हो महंगाई पर पैसे से जब सब मिलता है।। रिश्ते नाते प्यार वफ़ा भी दुनिया में सब कुछ बिकता है।। दुनिया में जितने मज़हब है उन सब का मज़हब पैसा है।। ज़्यादा नहीं लिखूंगा वरना लोग कहेंगे हटा हुआ है।। Suresh sahani,kanpur
 नाहक़ ख़्वाब बड़े देखे थे आज टूटना अखर रहा है। एक घरौंदा सच के हाथों तिनका तिनका बिखर रहा है।। उम्मीदों ने पाला पोसा आशाओं ने मन बहलाया विश्वासों ने जब जब लूटा ख्वाबों ने तब हाथ बढ़ाया अब वे भी मुंह मोड़ रहे हैं दर्द  पुराना उभर रहा है ।। नाहक़ ख़्वाब मत पूछो कितना खलता है अपनों का बेगाना होना जानी पहचानी महफ़िल में अब्दुल्ला दीवाना होना भीड़ भरी राहों में जीवन तन्हा तन्हा गुज़र रहा है।। कंकड़ पत्थर गोली कंचा सीपी घोंघा गिल्ली डंडा टूटे शीशे फूटी कौड़ी खेल खजाना झोली झंडा झाड़ी झुरमुट ही घर थे तब साक्षी बूढा शज़र रहा है।।
 अग्नि का धर्म है ताप देना यदि अग्नि ताप न दे ? हे स्त्री हन्ता स्त्री अधार्मिक थी  या तुम या यह प्रश्न ही अधार्मिक है...... किंचित प्राप्त करना चाहते हो तुम वहीं परमानन्द दुनिया से भागकर जिससे वंचित रही हर वह स्त्री जो अधार्मिक थी तुम्हारे अनुसार...
 मन! यदि तुम होते कोई नदी पहले की गंगा जितना पवित्र तब पूरे शहर का कचरा कहाँ जाता  तुम जैसे हो ठीक हो
 मैँ भावों की महाउदधि में डूबा उतराया करता हूँ। मुझसे ज्यादा उन्हें पता है क्या खाता हूँ क्या पीता हूँ कब सोता हूँ कब जगता हूँ कब मरता हूँ कब जीता हूँ मैं सागर हूँ या तड़ाग हूँ कोई घाट या केवल घट हूँ उन्हें पता है मेरी स्थिति भरा भरा हूँ या रीता हूँ पर जब भी मेरे दरवाजे कोई भूखा प्यासा आता मैं अपनी क्षमता भर उसको राहत पहुंचाया करता हूँ।। सुरेश साहनी कानपुर
 #हिंसापरमोधर्म: एक समय था। अंग्रेज़ों का पूरी दुनिया मे राज था।अंग्रेज नए नए सभ्य हुए थे। भारत पुराना सभ्य था।विश्वगुरु था भारत। क्योंकि उसे देश की सत्तर प्रतिशत आबादी को मूढ़ बनाये रखने की कला आती थी।जो देश इतनी बड़ी आबादी को उसके मौलिक अधिकारों से वंचित रखना जानता हो ,उसे मुट्ठी भर अंग्रेजो को हराना क्या मुश्किल लगता। उन्होंने स्वामी नरेंद्र  के पूर्व जन्म के जीव (जो मोहन दास करमचंद गांधी नाम धारी गुर्जर्राष्ट्र प्रान्त वासी थे ) को बापू कह के आगे बढ़ाया। गुजरात के बापू लोग वाक्पटु होते हैं।भगवान कृष्ण तो गुजरात मे रहके इतने तेज हो गए थे कि एक सिंधी (तत्कालीन गांधार प्रान्त जो सिन्ध से कंधार तक पड़ता था)के साथ मिलकर महाभारत तक करवा दी थी। गान्धी जी ने तक्षशिला को पटना और नालन्दा को पाकिस्तान का बतलाकर पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को एक कर दिया।वे नित्य नए प्रयोग करते थे। एक दिन उन्होंने सत्य आग्रह और अहिंसा की ऐसी चाशनी बनाई कि अंग्रेज उसे अमेजिंग और मार्वलस  कह उठे। वे गांधी जी के फेके जाल में फंस चुके थे। उन्होंने सोचा यदि इस अहिंसा को अपना लें तो वह लोग भी विश्वगुरु बन सकते है...
 #रोजगार पैदा करने के तरीके। जब देश आजाद हुआ था। उस समय देश की जनसंख्या लगभग 40 करोड़ थी। कुछ लोग चालीस कोटि आदमियों का देश बताते हैं। यहाँ थोड़ा भ्रम हो जाता है।कुछ लोग बताते है भारत मे 33 कोटि देवता भी थे। खैर आज़ादी के बाद भारत मे कितने देवता बचे थे ऐसा बता पाना मुश्किल है।क्योंकि अंग्रेज सन 1931 के बाद जनगणना नहीं करा पाए थे।और वैसे भी देवताओं को रोजगार की ज़रूरत नहीं पड़ती।  लेकिन नेहरू जी को रोजगार की ज़रूरत थी। उन्होंने जब देश का संविधान बनवाया तो तीन लोगों को सारे अधिकार दे दिए। उनमें शिक्षक,वकील और बकैत शामिल थे। राजाओं /महाराजाओं/नबाबों और जमींदारों को पटेल साहब ने पहले ही उनके हैसियत के हिसाब से सदन दिलवा दिए थे। रह गए तो केवल सरकारी कर्मचारी जिन्हें पूरे अधिकार नहीं दिए गए।यद्यपि इसके लिए ये सरकारी कर्मचारी/अधिकारी समय समय पर रो पीट लेते रहे हैं। किंतु इन्हें सरकार ने जीने लायक वेतन और भरपेट झाँसे तो दिए पर सबसे बड़ा अधिकार यानि राजनीति करने का अधिकार कभी नहीं दिया।एक टॉप क्लास का गुंडा भी चुनाव लड़ सकता है पर पढा लिखा कर्मचारी ऐसा करते ही नौकरी से बाहर हो जाएगा।  ...
 पारब्रम्ह वह जगतपिता वह तीन लोक का स्वामी भी है। कौशिक भी भजते जिसको वह कौशिक का अनुगामी भी है।। क्या लीला है.... जनकपुरी का भ्रमण कर रहे प्रभु में एक सरलता भी है जनकसुता की एक झलक पा लेने की आकुलता भी है।। क्या लीला है.... जग को खेल खिलाने वाला ख़ुद किशोर बन खेल रहा है सकल जगत जिससे चलता है जनक पूरी में डोल रहा है क्या लीला है....
 उस पहाड़ के पीछे पसरी फूलों वाली उस घाटी में  खो आया हूँ अपने दिल को अगर मिले तो लौटा देना....... बैठ गया था तन गाड़ी में मन मेरा फिर भी उदास था लौटा था जब तेरे शहर से तन तो लौटा अगर मिले मन समझा देना....... मैं तेरा था तुम मेरी थी किससे कहता तुम न दिखी थी चलते चलते कोशिश की थी एक झलक की समय मिले तो दिखला देना..... वैसे भी जीवन कितना है सच पूछो तो बीत चुका है सांसों के थमने से पहले कोशिश करना कभी मिलो तो महका देना ....... सुरेश साहनी, कानपुर
 ये एकतरफा मुहब्बत मैं कर नहीं सकता। मेरे ही दिल की मजम्मत मैं कर नहीं सकता।। तुम्हारे ग़म भी सहे और मुस्कुराए भी ये काम मैं किसी सूरत भी कर नहीं सकता।। कि ऐतबार की हद से गुज़र गया सब कुछ अब इससे ज़्यादा मुरौवत मैं कर नहीं सकता।। ये क्या कि आप सितम पर सितम किये जायें लिहाज़ में मैं शिकायत भी कर नहीं सकता।। कि आप रोज बदलते रहेंगे दिल लेकिन मैं अपने आप से हिज़रत भी कर नहीं सकता।। तुम्हारी खाक़ हिफाज़त करेगा सोच ज़रा अगर वो अपनी हिफाज़त भी कर नहीं सकता।। सुरेश साहनी, कानपुर
 खास मिलते तो हैं कब दिल से मगर  मिलते हैं। दिल से मिलना है तो हम आम के घर चलते हैं।। दिन में सूरज ने मेरा काम चलाया लेकिन अब चरागाँ के लिए चाँद के दर चलते हैं।। रहती दुनिया में मुहब्बत के कदरदान नहीं चल किसी दूसरी  दुनिया की डगर चलते हैं।।
 देखना तीरगी में ही वो साथ छोड़ेगा सिर्फ़ साया है मेरा कोई  हमख़याल नहीं।। SS
 मत कहो  क्यों तीरगी बढ़ने लगी। चाँद की   आवारगी  बढ़ने लगी।। हुश्न का सागर छलावा ही रहा डूबने  पर  तिश्नगी बढ़ने  लगी।।  लोरियां गाती नहीं यादें तेरी और ज्यादा रतजगी बढ़ने लगी।। मैं बहकता भी तो कोई बात थी होश में दीवानगी बढ़ने लगी।। हुश्न परदे में न हो तो क्या करे जब नज़र में गंदगी बढ़ने लगी।। अब तो मैं भी देवता हो जाऊंगा प्यार तेरी बन्दगी बढ़ने लगी।। मर ही जाता मैं तुम्हारे प्यार में मिल गए तो ज़िन्दगी बढ़ने लगी।। सुरेश साहनी,कानपुर
 तुहार ध्यान केह पर बा। चाँद तुहरे घर पर बा।। एने ओने ताकS  जिन मनवा छलबिद्दर   बा।। पूछS उनसे जिनके इहो  सब   दूभर बा।। जानि लS त जी जयिबS  कुल ढाई आखर बा।। संवरूँ के मन करिया देहिया त उज्जर बा।। भउजी निहारत हई के इहवाँ देवर बा।। सुरेश साहनी, कानपुर #भोजपुरी
 नाम है कितना बड़ा दिल तो ज़रा सा निकला। वो जो बनता था समंदर वही प्यासा निकला।।SS
 ज़ीस्त होती जो कीमती इतनी इस तरह दर-ब-दर नहीं मिलती।। पार जाने के रास्ते हैं बहुत वापसी की डगर नहीं मिलती।। कितनी बेजा हैं ख्वाहिशें अपनी हर खुशी मोड़ पर नहीं मिलती।। आज दिल फिर उदास हो बैठा काश उनकी ख़बर नहीं मिलती।। टूटती हैं अना में साहिल पर इक  से  दूजी लहर नहीं मिलती।।
 ठिकाना इक नया चलकर तलाशें। नई धरती नया अम्बर तलाशें।। मेरे सिजदे की हाजत है तो जाकर कहीं मक़तल में मेरा सर तलाशें।। मेरा दिल मोम होना चाहता है कहो आहों से मेरा घर तलाशें।। वही दुनिया वही महफ़िल वही दर कहाँ जाकर नए मंज़र तलाशें।। मेरा मिट्टी का पैकर ढल रहा है चलो अल-ग़ैब कुज़ागर तलाशें।। सुरेश साहनी, कानपुर
 हमारी कोशिशें जितनी बड़ी हैं। हमारी ख्वाहिशें उतनी बड़ी हैं।। न यूँ उचाईयों पे रश्क करना पता है लग्जिशें कितनी बड़ी हैं।।SS
 गोद अँधेरों की पलकर आ रही है रोशनी। भ्रम है तारों से निकल कर आ रही है रोशनी।। कितने परवाने मचलकर जलगये खाक़ हो गए सब ने देखा शम्अ जलकर आ रही है रोशनी।। क्यों ये कहते हो कि ये तारीकियां दीवार हैं आपका मतलब उछलकर आ रही है रोशनी।। आदमी की हसरतों ने जन्म सूरज को दिया ख़्वाब के कपड़े बदलकर आ रही है रोशनी।। आदमी को क्या पता है इस तरह नूरे-खुदा चाँद और तारों में ढल कर आ रही है रोशनी।। सुरेश साहनी अदीब  कानपुर
 रिश्तों में दूरी होती है मुझसे निस्पृह होकर मिलना। क्या रिश्तों का बोझ लादकर दिल से दिल तक मीलों चलना।। रिश्तों से तो भले अजनबी कुछ कहते कुछ सुन लेते हैं बातों बातों में सनेह के ताने बाने बुन लेते हैं तुम भी कभी अजनबी बनकर साथ मेरे दो डग ही चलना।।.... नर नारी के आकर्षण या अंतर को पीछे रख आना सपनों को तह कर रख देना आशाएं धूमिल कर आना दुख देता है स्वप्न टूटना झूठी आशाओं का पलना।। मेरे बहुत भले होने की कोई छवि मन मे मत गढ़ना मेरी रचनाओं में साथी मुझे जोड़कर कभी न पढ़ना ।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 जब अंधेरों की हिफ़ाजत में दिये मुस्तैद हों। हम तो जुगनू हैं भला किसके लिये मुस्तैद हों।। इक गज़ाला के लिए जंगल शहर से ठीक है हर गली हर चौक में जब भेड़िये मुस्तैद हों।। और उस कूफ़े की बैयत किसलिये लेते हुसैन जब वहां बातिल के हक़ में ताज़िये मुस्तैद हों।। ख़त किताबत वाली गुंजाइश वहाँ होती नहीं जब रक़ाबत लेके दिल में डाकिये मुस्तैद हों।। बेबहर हर वज़्म मे  बेआबरू होगी ग़ज़ल हक़ में कितने भी रदीफ़-ओ-काफ़िये मुस्तैद हों।। सुरेश साहनी ,कानपुर 9451545132
 मंत्री जी का बेटा था, मन्त्री जी तो नहीं थे उस दिन गाड़ी भी डराईवर चला रहा था भीड़ गाड़ी के आगे आगे भाग रही थी भीड़ स्पीड में थी  सड़क के नियमों के अनुसार मरने वाले अपराधी हैं किसान तो अमिताभ भी है किसान दिल्ली नहीं आते लड़का क्रूज़ में था बाप दोषी है।
 एक समय था। अंग्रेज़ों का पूरी दुनिया मे राज था।अंग्रेज नए नए सभ्य हुए थे। भारत पुराना सभ्य था।विश्वगुरु था भारत। क्योंकि उसे देश की सत्तर प्रतिशत आबादी को मूढ़ बनाये रखने की कला आती थी।जो देश इतनी बड़ी आबादी को उसके मौलिक अधिकारों से वंचित रखना जानता हो ,उसे मुट्ठी भर अंग्रेजो को हराना क्या मुश्किल लगता। उन्होंने स्वामी नरेंद्र  के पूर्व जन्म के जीव (जो मोहन दास करमचंद गांधी नाम धारी गुर्जर्राष्ट्र प्रान्त वासी थे ) को बापू कह के आगे बढ़ाया। गुजरात के बापू लोग वाक्पटु होते हैं।भगवान कृष्ण तो गुजरात मे रहके इतने तेज हो गए थे कि एक सिंधी (तत्कालीन गांधार प्रान्त जो सिन्ध से कंधार तक पड़ता था)के साथ मिलकर महाभारत तक करवा दी थी। गान्धी जी ने तक्षशिला को पटना और नालन्दा को पाकिस्तान में बतलाकर पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को एक कर दिया।वे नित्य नए प्रयोग करते थे। एक दिन उन्होंने सत्य आग्रह और अहिंसा की ऐसी चाशनी बनाई कि अंग्रेज उसे अमेजिंग और मार्वलस  कह उठे। वे गांधी जी के फेके जाल में फंस चुके थे। उन्होंने सोचा यदि इस अहिंसा को अपना लें तो वह लोग भी विश्वगुरु बन सकते हैं। बस क्या था ,...
 किसी इंसा के मरने पर यहां मातम नहीं होते। कबीले  एक दूजे के   शरीके-ग़म नहीं होते।। नये हिन्दोस्तां की बात ही ऐसी निराली है      यहां सब हैं अना वाले  ये मैं से हम नहीं होते।। ये तीरे-नीमकश हैं दोस्त मज़हब की सियासत के कि इनसे मिलने वाले ज़ख्म के मरहम नहीं होते।। सुरेश साहनी, कानपुर
 कुछ मूल्य घटे कुछ दाम बढे। छोटे मोटे   सब   काम बढ़े ।। दादा दादी नाना नानी बूआ फूफा चाचा चाची मौसी मौसा नाना नानी ताऊ ताई भैया बहिनी जैसे रिश्ते थे दर्जन भर सारे लोगों में अपनापन थे सब के सब केअरटेकर वो फुलवारी वो बंसवारी वो अमवारी वो महुवारी वो दूर पोखरे तक जाती थी मेड़ मेड़ वो पगडंडी वो पीर चौक वो बरम डीह उ काली माई से सनेह छोटकन के घूमल घाट घाट बाबा काका की मधुर डाँट या उनका चपत लगा देना फिर हौले से फुसला लेना गैया भैंसी की बड़ी घार दर्जन दर्जन कूकुर बिलार तोता मैना से सजे द्वार धीरे धीरे सब छूट गया क्या बना बचा सब टूट गया जीवन की आपा धापी में वो छोड़ गए वो रुठ गया एसी, बंगला मोटर गाड़ी टीवी ऐशो आराम बढे पर छूट गया परिवार बड़ा सोचा था जिसका नाम बढ़े।। कुछ मूल्य घटे कुछ दाम बढे।।....... सुरेश साहनी ,कानपुर
 मेरा मन मुझ से बाहर चल देता है। जब कोई दिल दुखलाकर चल देता है।। अक्सर जिसकी राह निहारा करता हूँ मुझे देखते ही मुड़कर चल देता है।। ये दुनिया है कैसे इनके बीच रहें अब कोई कुछ भी कहकर चल देता है।। आज अजनबीपन इतना है दुनिया में अपना भी अब कतराकर चल देता है।। दुनिया एक सराय सरीखी लगती है हर प्राणी दो दिन रहकर चल देता है।। अब अपनी पीड़ा को कैसे व्यक्त करें जो सुनता है वो हँसकर चल देता है।। राहों से पत्थर अब कौन हटाता है हर कोई ठोकर खाकर चल देता है।। साथ किसी का कोई आख़िर कबतक दे चार कदम तो शरमाकर चल देता है।। सुरेश साहनी,कानपुर
 अब दुआ दे या बददुआ दे मुझे। इश्क़ है या नहीं बता दे मुझे।। अपनी ज़ुल्फ़ों में क़ैद कर इकदिन उम्र भर के लिए सज़ा दे मुझे।। तन्हा कोई सफर नहीं कटता अपनी यादों का काफिला दे मुझे।। मिसरा-ए-ज़िन्दगी अधूरी है हो मुक़म्मल वो काफिया दे मुझे।। ज़ाम दे या कोई ज़हर दे दे किसने बोला कि तू दवा दे मुझे।। ऐसी भटकन से लाख बेहतर है ज़िन्दगी मौत का पता दे मुझे।। सुरेश साहनी,कानपुर   (R) सर्वाधिकार सुरक्षित
 हर कोई दीवाना समझे। कोई तो अफ़साना समझे।। अपनों ने तकलीफ़ें दी हैं किसको दिल बेगाना समझे।। सब के सब मशरूफ़ हैं शायद दिल का कौन फ़साना समझे।। इश्क़ अज़ल से चोट नई है कोई  दर्द पुराना समझे।। उनका ग़म है इनका मरहम दिल किसको अनजाना समझे।। कुछ तस्वीर पुराने ख़त कुछ जिसको लोग खज़ाना समझे।। उनका ग़म है,यादें भी हैं किसको तुम वीराना समझे।। सुरेश साहनी, कानपुर।
 मुहब्बत की ऐसी पहल हो रही है। कोई खूबसूरत ग़ज़ल हो रही है।। तेरी ज़ुल्फ़ के पेंचोखम में उलझ कर मेरी ज़िंदगानी सहल हो रही है।। वफ़ा हो रहा है कोई एक वादा किसी की जुबानी अमल हो रही है।। मेरे ख़्वाब ताबीर पाने लगे हैं तसव्वुर की दुनिया  मसल हो रही है।। अभी फिर से मैं मुस्कुराने लगा हूँ कोई दिल में मीठी चुहल हो रही है।। मेरे रास्ते कहकशां हो रहे हैं कुटी मेरे दिल की महल हो रही है।।
 हमेशा छोड़ जाना चाहते हो। बताओ क्या जताना चाहते हो।। कभी औरों का दुख भी सुन के देखो फ़क़त अपनी सुनाना चाहते हो।। कभी तो मुस्कुरा कर के मिलो तुम हमेशा मुँह फुलाना चाहते हो।। तुम्हारी गलतियों से तुम गिरे हो मुझे क्यों कर गिराना चाहते हो।। तुम्हारी दृष्टि मैली हो चुकी है मगर पक्का निशाना चाहते हो।। सुधर जाओ तो प्यारे बेहतर है  भला क्यों लात खाना चाहते हो।। हमारे रास्ते बिल्कुल अलग है निकल लो क्यों पकाना चाहते हो।। सुरेश साहनी, कानपुर
 नहीं होता नरसिंह अवतार ना ही आते हैं कृष्ण हर बार नारियों के आर्तनाद से अवतार नहीं होते इसके लिए जाना पड़ता है साधुओं और ऋषि मुनियों को ब्रम्हा के पास जो मौन रहते हैं तब भी  जब कोई विश्रवा सूत  चिन्मय होकर गिद्धराज के पंख काट देता है और देवराज मौका पाकर किसी भी अहिल्या को पत्थर कर सकते है और किसी निरीह की सुनकर पुकार भगवान नहीं लिया करते अवतार चार युग मे चौबीस बार बस कितनी अहिल्या तर पाएंगी जब हर रोज होते हैं असंख्य दुराचार तो  नहीं आएंगे कृष्ण हर बार शायद कभी नही पांचाली रोना बन्द कर तू चामुंडा है प्रतिकार सीख खुद में लेना अवतार सीख..... सुरेश साहनी, कानपुर
 आज कहाँ महंगाई मज़हब हावी है। दृष्टिकोण अब सबका सिर्फ़ चुनावी है आज कोई यादव है कोई बाभन है कोई अहमदिया है कोई बहावी है।।
 हमें तो जितनी दफा मिले है। वो खाये कसमे-वफ़ा मिले है।। नए ज़माने का तौर हैं ये  सगा है जिससे नफा मिले है।। गले न लगना न दिल से मिलना कि दोस्त अक्सर खफ़ा मिले हैं।। दवा से कितने सही हुए हैं ज़हर से फिर भी शिफ़ा मिले है।। किसी ने खायी कसम हमारी न जाने वो क्यों ख़फ़ा मिले है।। कैसे कह दें है  स्याहदामन लिबास उसका सफा मिले है।। ये कैसे कह दें सभी गलत हैं कोई अगर बेवफा मिले है।। सुरेश आर सी साहनी
 डबडबायी आँख क्या क्या कह गयी आंसुओं में सब कथायें बह गयी। थरथराते होठ जबकि मौन थे पर परिस्थितियां व्यथाये कह गयी।। खींचते हैं आज रेखायें सभी किन्तु उनमें शेष अंशी कौन है। काट लेगा हाथ रावण के तुरत आज ऐसा सूर्यवंशी  कौन है।। परपुरुष की बात भी सोचे नही इसके पीछे पुरुष के पुरुषार्थ हैं। अर्धांगिनी के आप भी अर्धांग है अन्यथा सब भावनायें व्यर्थ हैं।। वो हमारे वास्ते जप तप करे वो हमारे वास्ते ही व्रत करे। ऐसे में सबका यही कर्तव्य है भार्या को शक्तिनिज उद्धृत करे।। अपने अन्तस् में उसे स्थान दें उसके सुख दुःख का अहर्निश ध्यान दें। वो हमारी प्रेरणा है प्राण है हम उसे स्नेह दें सम्मान दें।। सुरेश साहनी
 हमें सादा ज़ुबानी भा गयी है। किसी की हकबयानी भा गयी है।। वो सारी उम्र किस्मत से लड़ा है हमें उसकी कहानी भा गयी है।।SS
 भूल कर तुम हमें शायद खुश हो तुम  इसी ग़म में  हमे याद रहे।।सुरेश साहनी
 हम जिये ही कहाँ आपकी याद में। ज़िन्दगी थी कहाँ आपकी याद में।। तुम उधर चल दिये हम इधर उठ लिये फिर रवानी कहाँ आपकी याद में।। आप के साथ यौवन था उल्लास था फिर जवानी कहाँ आपकी याद में।। आसुओं में नहाई ग़ज़ल हो गई शादमानी कहाँ आपकी याद में।। सुरेश साहनी,कानपुर
 ज़िन्दगी की हर कहानी को अधूरा कह गया। और अपनी बात भी आधा अधूरा कह गया।। कह गया जब वो जमूरे को मदारी सोचिए वह बिना बोले मदारी को जमूरा कह गया।। उसने तबले को पखावज जब कहा  सब चुप रहे और वह वीणा को धुन में तानपूरा कह गया।। उसके जुमले आज जनता के लिए आदर्श हैं क्या हुआ यदि आंवले को वह धतूरा कह गया।। आँख का अन्धा भी है और गाँठ का  पूरा भी है मंच उसकी शान उसका ही ज़हूरा कह गया।। प्रेम को ऊंचाईयां  दी हैं  विरह के गान ने जो कबीरा से बचा वह बात सूरा कह गया।। सुरेश साहनी
 खुला नक़ाब सवेरे का हय सुभानअल्लाह। वो माहताब सवेरे का हय सुभानअल्लाह।। ख़ुदा भी रश्क़ करे है मेरे मुक़द्दर पर मेरा रुआब सवेरे का हय सुभानअल्लाह।। जो माहरुख पे पड़ी है शुआये सूरज की खिला गुलाब सवेरे का हय सुभानअल्लाह।। वो नूर जलवानुमा है मेरी मुहब्बत पे वो आफताब सवेरे का हय सुभानअल्लाह।। सवाल उसके जो आएं हैं बन के अंगड़ाई मेरा जवाब सवेरे का हय सुभानअल्लाह।। सुरेश साहनी,कानपुर
 वे सब मद में चूर हैं हम ख़ुद से हैरान। कब तक मारे जाएंगे , हम  मजदूर किसान।।सुरेश साहनी सत्य पहुँचता जेल अब झूठे करते राज। सरकारी तोता बनी जाँच समितियां आज।।साहनी
 वफादारी निभाने जा रहे हो। किसे अपना बनाने जा रहे हो।। वहां आमद है अक्सर बिजलियों की कहाँ दामन जलाने जा रहे हो।। अदा है हुस्न है नखरे भी होंगे कहो क्या क्या दिखाने जा रहे हो।। इरादा क्या है इतनी तीरगी में चिरागों को बुझाने जा रहे हो।। अगर तुम गाँव मे सब बेच आये शहर में क्या कमाने जा रहे हो।। अभी दिल्ली विदेशी हो चुकी है किसानों किस ठिकाने जा रहे हो।। ये सारा मुल्क जब सोया पड़ा है तो किसका घर बचाने जा रहे हो।। बताओ अब कि तुम आज़ाद हो क्या सुना उत्सव मनाने जा रहे हो।। सुरेश साहनी, कानपुर
 कहाँ से आदमी लगने लगा हूँ। मुझे भी मैं कोई लगने लगा हूँ।। बताया मुझको मेरे आईने ने उसे में अजनबी लगने लगा हूँ।। सुना है कोई मुझपे मर मिटा है उसे मैं ज़िन्दगी लगने लगा हूँ।। ज़माना हो गया है दुश्मने-जां मैं हक़ की पैरवी लगने लगा हूँ।। अभी किस दौर में हम आ गए हैं जहां मैं मुल्तवी लगने लगा हूँ।। कोई तो मुझमे उसमें फ़र्क़ होगा कहाँ से मैं वही लगने लगा हूँ।। कहीं से साहनी को ढूंढ लाओ उसे मैं शायरी लगने लगा हूँ।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 बात यह सच है कि मैं बेहतर नहीं हूँ। पर तुम्हारी राह का पत्थर नहीं हूं।। व्यर्थ मत समझो परख लो दोस्तों मत गिराओ धूल में कंकर नही हूँ।। इतिहास सदियों का समेटे घूमता हूँ एक घटना का कोई अवसर नहीं हू।। बांटता हूँ मिलन की खुशियाँ निरंतर मैं विरह के धुप की चादर नहीं हूँ।। जन्मसे विषपान ही मैंने किया है भाग्य की है बात मैं शंकर नही हूँ। । सुरेश साहनी
 श्रद्धा अब काहे की श्रद्धा तर्पण अब काहे का तर्पण। जीते जी यदि नहीं रहा हो मात पिता के लिए समर्पण।। हमने कब यह सोचा हमसे माता पिता चाहते क्या है जबकि उनसे मिलता ही था  हम उनको दे पाते क्या हैं कब पूछा था हमने उनसे  अन्यमनस्क रहने का कारण।।  श्रवण कुमार जैसा बनने की अब कितने इच्छा रखते हैं कितने मर्यादा पुरुषोत्तम बनने का साहस रखते हैं जीते जी श्रद्धायुत सेवा- ही होता है सच्चा तर्पण।। सबसे बड़ा धर्म है प्यारे  माता और पिता की सेवा बड़े बुजुर्गों की ख़िदमत से इज़्ज़त से मिलता है मेवा हर किताब में यही मिलेगा वह क़ुरान हो या  रामायण।। सुरेश साहनी, कानपुर
 फ़िज़ा तूफान के असर में है। जहाज़ी आज भी सफ़र में है।। जो सड़क पर है मस्त है लेकिन जो भी घर में है आज डर में है।। कल कोई हादसा हुआ है क्या एक दहशत सी हर नज़र में है।। उनको जंगल में कोइ खौंफ नहीं ख़ौफ़ उनको मग़र शहर में है।। हमने जम्हूरियत को ढूंढ लिया अब वो ज़िंदाने - राहबर में है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जख़्म रिसते हैं आसमान तले। चल के बैठे किसी मचान तले।। अब मेरे हौसले नहीं उड़ते मैं दबा हूँ अभी थकान तले।। मुख़्तलिफ़ सिर्फ़ आँधियाँ ही नहीं साजिशें और हैं उड़ान तले।। आदमी गुम हुआ ज़मीनों  में लामकां हो गया मकान तले।। बेनिशाँ हैं कि जो बुलाते  थे आ भी जाओ मेरे निशान तले।। धूप चुभने पे बैठ जाते हैं तेरी यादों के सायबान तले।। हमको तन्हाइयों ने घेर लिया  जब भी बैठे कहीं गुमान तले।। ज़िन्दगी ले के दे गई कितना दब गए  दर्द    इम्तहान तले।। शुक्रिया आपकी ज़फ़ाओं का ज़ीस्त मुश्किल थी एहसान तले।। सुरेश साहनी, कानपुर
 मौका मिलते ही भले ,दे गान्धी को मार। आज गोडसे कर रहा ,गान्धी की जयकार।।सुरेश साहनी
 प्यार का ईनाम तुमसे ज़ख्म मिलना लाज़मी था। हँसती गाती ज़िन्दगी में दर्द घुलना लाज़मी था।। तुम न थे जब ज़िन्दगी कितनी सहल थी क्या कहें। ज़ीस्त जैसे खूबसूरत सी ग़ज़ल थी क्या कहें ज़िन्दगी थी या कि खुशियों का बदल थी क्या कहें आपसी अनुराग से कुटिया महल थी क्या कहें तुम मिले तो ज़ीस्त का  करवट बदलना लाज़मी था।।
 एक ग़ज़ल कुछ हल्की फुल्की लिखनी है। बातें उसमें तेरी मेरी लिखनी है।। सुबह तुम्हारा खिलता चेहरा देख लिया साथ तुम्हारे शाम सुहानी लिखनी है।। लैला मजनू के किस्से भी लिखने हैं नल दमयंती की वाणी भी लिखनी है।। मेरे आंसू स्याही बन कर आने दो साथ गुजारी सारी मस्ती लिखनी है।। सांसों में सांसों की खुशबू घुलने दो नज्में तुम पर महकी महकी लिखनी है।। साथ तुम्हारे कितनी राते गुज़री हैं और कहानी दिन ही दिन की लिखनी है।। मेरी कोशिश है खालीपन भरने की तुम को क्या क्या चीजें खाली लिखनी हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर।
 कम होंगे जंजाल एक दिन। होंगे खत्म बवाल एक दिन।। हम भी खुशियों की दौलत से होंगे मालामाल एक दिन।। अन्त धरा सब रह जायेगा जब आएगा काल एक दिन।। उसकी दया दृष्टि से कितने रंक  हुए  भूपाल  एक दिन।। मुझे पता है हल कर देगा वो प्रभु सभी सवाल एक दिन।। सुरेश साहनी , कानपुर