इन्तेज़ारों के बाद आते थे।
ख़त तेरे कितना भाव खाते थे।।
लोग जाते थे मैकदे यारब
हम तेरे ख़त में डूब जाते थे।।
ऐसा लगता था तुम ही लिपटे हो
ख़त को सीने से जब लगाते थे।।
ख़त तुम्हारे थे या ग़ज़ल कोई
होठ दिन रात गुनगुनाते थे।।
रोज़ मिलते थे हम तख़य्यूल में
रोज़ तुम और याद आते थे।।
सुरेश साहनी,कानपुर
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