जब अंधेरों की हिफ़ाजत में दिये मुस्तैद हों।
हम तो जुगनू हैं भला किसके लिये मुस्तैद हों।।
इक गज़ाला के लिए जंगल शहर से ठीक है
हर गली हर चौक में जब भेड़िये मुस्तैद हों।।
और उस कूफ़े की बैयत किसलिये लेते हुसैन
जब वहां बातिल के हक़ में ताज़िये मुस्तैद हों।।
ख़त किताबत वाली गुंजाइश वहाँ होती नहीं
जब रक़ाबत लेके दिल में डाकिये मुस्तैद हों।।
बेबहर हर वज़्म मे बेआबरू होगी ग़ज़ल
हक़ में कितने भी रदीफ़-ओ-काफ़िये मुस्तैद हों।।
सुरेश साहनी ,कानपुर
9451545132
Comments
Post a Comment