जिस्म का हक़ कुछ नहीं है जिस्म में।
रूह क्या सचमुच मकीं है जिस्म में।।
जिस्म तो आकाश में जाता नहीं
रूह की कितनी ज़मीं है जिस्म में।।
इश्क़ जाने कब रूहानी हो गया
तू मगर अब भी वहीं है जिस्म में।।
जिस्म को नहला लिया धो भी लिया
धूल फिर किस पर जमी है जिस्म में।।
ज़िस्म को बेशक़ यकीं है रूह पर
रूह को कितना यकीं है जिस्म में।।
हम ने देखे ही नहीं दैर-ओ-हरम
आप का जब घर यहीं है जिस्म में।।
दिल तो उसने कर ही डाला दागदार
और अब क्या कुछ हसीं है जिस्म में।।
सुरेश साहनी कानपुर
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