भीड़ भरे इस सन्नाटे में
कोई तो अपना दिख जाए।
जीवन रंग विहीन सरस हो
कुछ ऐसा सपना दिख जाए।।
कोई राजा रंक हुआ ज्यूँ
ऐसे लुटा लुटा फिरता हूँ
मनके टूटी स्मृतियों के
फिर से जुटा जुटा फिरता हूँ
जला हुआ हूँ नेह धूप का
फिर से आतप ना दिख जाए।।
साधक हूँ पाषाण हृदय का
परिव्राजक हूँ स्नेह विषय का
खो जाना ही इसकी परिणति
मतलब नहीं पराजय जय का
किंचित उस पाषाण हृदय को-
भी मेरा तपना दिख जाए।।
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