स्वार्थ में दो चार रिश्ते खो दिए।
फिर गया में पाप सारे धो दिए।।
पेट अपनी पुश्त का भरता न था
खेत मे ऊंचे भवन कुछ बो दिए।।
ये समन्दर है कभी घटता नहीं
क्या हुआ जो चार आँसू रो दिए।।
लाज़मी है कुछ ज़माने को दिखे
रख ही दो दहलीज़ पर इक दो दिये।।
है ये बेटों का बड़ा एहसान जो
बाप की अर्थी कदम दो ढो दिए।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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