समय चक्रवत घूम रहा है

मानव पशुवत  झूम रहा है।

अंधियारों ने जाल पसारे

दिवस दुबक कर ऊंघरहा है।।


शायद सूरज डूब रहा है

आशाओं अभिलाषाओं का।

जिग्यासा उत्कण्ठाओं का ।।शायद


नर्म मुलायम रेशम जैसी

गोद मिली थी मुझको माँ की

माँ का आँचल छूट रहा है।। शायद


बहना ने जब राखी बांधी

खुशियाँ देने वाली पाँखी

उसका आँगन छूट रहा है।।शायद 


फिर कोई इस आँगन आया

जैसे की नवजीवन आया

स्नेह का अंकुर फूट रहा है।।शायद


आँगन में गूंजी किलकारी

महक उठी जीवन फुलवारी

फिर जीवन फलफूल रहा है।।शायद


आज कर लिया कन्या पूजन

कल किसको दोंगे यह भोजन

क्या हमसे कुछ छूट रहा है।।शायद

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

श्री योगेश छिब्बर की कविता -अम्मा

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है