ज़माने भर से लड़ने जा रहा हूँ।
मुहब्बत में उजड़ने जा रहा हूँ।।
क़रार-ओ-सब्र है अब इंतेहा पर
मैं अपनी हद से बढ़ने जा रहा हूँ।।
तुम्हारा इस क़दर सजना सँवरना
सम्हालो मैं बिगड़ने जा रहा हूँ।।
मिटा दो या बना दो जिंदगानी
बस इतनी ज़िद पे अड़ने जा रहा हूँ।।
तुम्हारे हुस्न तक सिमटी ग़ज़ल को
भरी महफ़िल में पढ़ने जा रहा हूँ।।
गुनाहों की मेरे तस्दीक कर दो
अभी सूली पे चढ़ने जा रहा हूँ।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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