मेरा मन मुझ से बाहर चल देता है।
जब कोई दिल दुखलाकर चल देता है।।
अक्सर जिसकी राह निहारा करता हूँ
मुझे देखते ही मुड़कर चल देता है।।
ये दुनिया है कैसे इनके बीच रहें
अब कोई कुछ भी कहकर चल देता है।।
आज अजनबीपन इतना है दुनिया में
अपना भी अब कतराकर चल देता है।।
दुनिया एक सराय सरीखी लगती है
हर प्राणी दो दिन रहकर चल देता है।।
अब अपनी पीड़ा को कैसे व्यक्त करें
जो सुनता है वो हँसकर चल देता है।।
राहों से पत्थर अब कौन हटाता है
हर कोई ठोकर खाकर चल देता है।।
साथ किसी का कोई आख़िर कबतक दे
चार कदम तो शरमाकर चल देता है।।
सुरेश साहनी,कानपुर
Comments
Post a Comment