जख़्म रिसते हैं आसमान तले।
चल के बैठे किसी मचान तले।।
अब मेरे हौसले नहीं उड़ते
मैं दबा हूँ अभी थकान तले।।
मुख़्तलिफ़ सिर्फ़ आँधियाँ ही नहीं
साजिशें और हैं उड़ान तले।।
आदमी गुम हुआ ज़मीनों में
लामकां हो गया मकान तले।।
बेनिशाँ हैं कि जो बुलाते थे
आ भी जाओ मेरे निशान तले।।
धूप चुभने पे बैठ जाते हैं
तेरी यादों के सायबान तले।।
हमको तन्हाइयों ने घेर लिया
जब भी बैठे कहीं गुमान तले।।
ज़िन्दगी ले के दे गई कितना
दब गए दर्द इम्तहान तले।।
शुक्रिया आपकी ज़फ़ाओं का
ज़ीस्त मुश्किल थी एहसान तले।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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