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Showing posts from October, 2023
 हुस्न ज़्यादा अमीर है शायद। इश्क़ अपना फक़ीर है शायद।। आज के इश्क़ का ख़ुदा जाने अब भी रांझा की हीर है शायद।। उसको तगड़ी सज़ा मुकर्रर है आदतन वो बशीर है शायद।। रोज आता है सह के मक़तल में वो यहीं का ख़मीर है शायद।। आशिक़ी में वो जां लुटा देगा कोई ज़िद है कि पीर है शायद।।दीन पर ऐतबार करता है आदमी बेनजीर है शायद।।SS
 कहने को आज़ाद हैं,अपना है कानून। पर अपने ही चूसते ,अब अपनों का खून।।SS
 जहाँ ताज़िर हुकूमत में रहेंगे। यकीनन लोग गुरबत में रहेंगे।। आवाज़ें मुसलसल देते रहना नहीं तो लोग दहशत में रहेंगे।। नई नस्लें अब हमसे पूछती हैं ये कब तक ऐसी हालत में रहेंगे।। ये सोने के कफ़स तुमको मुबारक  हमे बेहतर है तुरबत में रहेंगे।। हमें भी बुतपरस्ती आ न जाये अगरचे तेरी सोहबत में रहेंगे।। बगावत एक दिन होकर रहेगी कहाँ तक  लोग ज़ुल्मत में रहेंगे।। भुला बैठे हो वादा करके हमको कहाँ तक हम मुहब्बत में रहेंगे।। सुरेश
 युद्ध नहीं उन्माद चाहिए। बेशक़ व्यर्थ विवाद चाहिए।। दंगे बिना चुनाव न होंगे कुछ तो पानी-खाद चाहिए।। चलो झोपडी जलवाते हैं भव्य अगर प्रासाद चाहिए।। आप को हमने ही लूटा था वोटों आशीर्वाद चाहिए।। हाय हाय करती जनता से हमको जिंदाबाद चाहिए।। जनता भूखी हैं होने दो हमको भर भर नाद चाहिए।। एफडीआई बड़ी चीज है देश किसे आज़ाद चाहिए।। सुरेश साहनी, कानपुर
 यूँ तो मुश्किल है मनाओ मान जाए तो कहो। ये न हो तो रूठ जाओ आ न जाये तो कहो।। प्यार में सब है ज़रूरी रार भी मनुहार भी प्यार के प्रतिरूप ही हैं प्यार भी तकरार भी  प्यार के ही गीत गाओ  वो न गाये तो कहो।। यूँ तो... तुम न चाहो देखना पर दृष्टि जाएगी वहीं राह अनचाहे कदम को ले के जाएगी वहीं खूब ना में सिर हिलाओ हो न जाये तो कहो।।यूँ तो.... सुरेश साहनी
 बैंक महाजन हो गए,गिरवी हुआ समाज। ग्राहक अपने मूल पर चुका रहे हैं ब्याज।।SS
 कहने को आज़ाद हैं,अपना है कानून। पर अपने ही चूसते ,अब अपनों का खून।।SS
 नामचीं है तभी तो रुसवा है। इश्क़ वालों में उसका जलवा है।। इश्क़ के दम पे ताज़ है वरना नफरतों का बदल तो मलवा है।।SS
 कौन किसका असीर है साहब सबकी अपनी ही पीर है साहब बेवफ़ा क्यों कहें किसी को हम अपना अपना ज़मीर है साहब आज बेहतर है कल ख़ुदा जाने आदमी का शरीर है साहब हुस्न होता तो बदगुमां होता इश्क़ सचमुच फकीर है साहब इसकी किस्मत में सिर्फ जलना है हाँ यही काश्मीर है साहब पास माँ बाप थे तो लगता था पास अपने ज़गीर है साहब आपका प्यार मिल सके जिससे कौन सी वो लकीर है साहब आज दिल खोल कर सितम कर लो वो ख़ुदा भी अमीर है साहेब सुरेश साहनी, कानपुर
 ठीक है चाँद का ज़लाल रहे। आगे सूरज भी है ख़याल रहे।। जा तेरी आरज़ू नहीं करता अब न तुझको कोई मलाल रहे।। हुस्न के तज़किरे रहें बेशक़ इश्क़ का ज़िक्र भी बहाल रहे।। दुश्मनी की भी उम्र इक तय हो दोस्ती कब तलक सवाल रहे।। कुछ तो वो जिम्मेदारियां समझें कुछ तो उनके भी सर बवाल रहे।। बोझ मिलकर उठे तो बेहतर है एक क्यों उम्र भर हमाल रहे।। हुस्न बीमार कब हुआ यारब इश्क़ क्यों जाके अस्पताल रहे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 आज फिर गुरु द्रोण को मेरी ज़रूरत पड़ गयी आज फिर अर्जुन उन्हें  मौके  पे  ठेंगा दे गया।। साहनी
 वो जो सारे काम काले कर रहा है। इश्तेहारों में उजाले कर रहा है।। आदमी से नफरतों की आड़  में मुल्क ये किसके हवाले कर रहा है।।
 मैं इससे तो सहमत हूँ की किसी भाषा का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए|लेकिन हिंदी वाले किसी का मजाक उड़ाते हैं इससे सहमत नहीं हूँ ,क्योंकि उपहास भारतीय संस्कृति का अंग नहीं है,अपितु परिहास और खिलंदड़ा पन भारतीय जीवन-शैली जरुर है|हमारे देश में हिंदी के विरोध का कारण दूसरी भाषाओं का अपमान करने की मूर्खता नहीं बल्कि वोट-बैंक वाली घटिया राजनीति है|और देश भाषा के कारण नहीं बल्कि जाति-धर्म और क्षेत्र की राजनीति के कारण बँटा हुआ है|पता नहीं क्या सोचकर ये तथाकथित भाषाविद हिंदी पर संकीर्ण और नस्लवादी होने का आरोप लगा रहे हैं|हिंदी भाषियों की उदारता पर प्रश्नचिन्ह लगाना उचित नहीं|यह एक प्रकार का मानसिक दमन है जो कुछ निजी हित साधन का जरिया सिद्ध करता है|मैं तो हिंदी में समस्त भाषा -बोली के आवश्यक शब्दों का स्वतः-समावेशन का समर्थक हूँ,और मुझे गर्व है की हिंदी इन गुणों से स्वयं-विभूषित है|
 गजल धूँआ धाकड़ लीन दिवाली के मानत ई ग्रीन दिवाली जादव कुर्मी बाभन सोइत सभहँक भिन्ने भीन दिवाली सभठाँ नेता एकै रंगक भारत हो की चीन दिवाली छन छन टूटै नहिएँ जूटै सीसा पाथर टीन दिवाली देशक बाहर देशक भीतर सौंसे घिनमा घीन दिवाली सभ पाँतिमे 22-22-22-22 मात्राक्रम अछि दू टा अलग-अलग लघुकेँ दीर्घ मानबाक छूट लेल गेल अछि सुझाव सादर आमंत्रित अछि #आशीषअनचिन्हार
 अब चमचे भी पत्रकार हैं। ये इस युग के चमत्कार हैं।। जो भी कहना  सच मत कहना जो भी लिखना सच मत लिखना नेता जी के आगे-पीछे दायें चलना ,बायें चलना नेता जी खुश हो जाएं तो धन सुख सुविधाएं अपार हैं।। जनता के जज़्बात बुरे हैं कहती है हालात बुरे हैं अमरीका और चीन डर गए क्या ऐसे दिन रात बुरे हैं उनको सब अच्छा लिखना है सुविधाभोगी कलमकार हैं।।
 कल रात एक चाँद अयां देर तक रहा। सरगोशियों का धुँध वहां देर तक रहा।। नज़रें किसी नज़र से मिलीं इस तरह के फिर मुझको ख़बर नहीं मै कहाँ  देर तक रहा।। सुरेश साहनी
 आज उसे यारी पर शक है। या दुनियादारी पर शक है ।। क्या उसको शक़ है नीयत पर या ज़िम्मेदारी पर शक है।। नामुमकिन है कि वह टूटे   लेकिन बीमारी पर शक है।। मालिक छुट्टी कैसे देगा उसको लाचारी पर शक है।। क्या बाबा व्यभिचार करेंगे हाकिम को क्वांरी पर शक है।। पर नारी से प्यार करे है लेकिन निज नारी पर शक है।। जिसकी बातों में जुमले हैं उसकी ख़ुद्दारी पर शक है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 एहसासों के वीराने में किसकी राह निहार रहे हो। कौन सुनेगा सूनेपन में किसको आज पुकार रहे हो।। दुनिया ने कब देखा तुमको दुनिया को क्या जाना तुमने वो तुम पर कितना वारे है उनको क्या पहचाना तुमने आख़िर कुछ तो होगा उसमें जिस पर तन मन वार रहे हो।। जिस पर
 हम मरे उनकी फ़िक्र में यारब जो हमें  मार कर  मजे में हैं।।SS
 दी थी  खूब  दुहाई मालिक । किसको पड़ा सुनाई मालिक।। बुधिया ने फरियाद नही की उसमें थी रुसवाई मालिक।। किसकी रपट दरोगा लिखता सब थे हाई  फाई  मालिक ।। वादा तो सबका था लेकिन किसने बात उठाई मालिक।। अच्छे दिन आने की सूरत देती नहीं दिखाई मालिक।।
 होठों को सुखाया है आंखों को भिगोया है। पाया तो नहीं उस को ख़ुद को भले खोया है।। रातों को जगा हूँ मैं इक उसकी मुहब्बत में जो मुझको भुलाकर के बड़े चैन से सोया है।। अश्क़ों की लड़ी यूँ ही आँखों से नहीं निकली ज़ख्मों को मेरे मैंने माला में पिरोया है।। लहरों की ख़ता कैसी मल्लाह की गलती क्या उल्फ़त ने मेरे दिल की किश्ती को डुबोया है।। तस्वीर सलामत है तेरी टूटे हुए दिल में मत पूछ के यादों को किस तरह सँजोया है।। सुरेश साहनी कानपुर
 कुछ नहीं धूप की छाँव लेकर चलो। हौसलों से भरे  पाँव लेकर चलो।। जिस शहर को नहीं गांव से वास्ता उस शहर की तरफ गाँव लेकर चलो।। छल फरेबों से दुनिया भरी है तो क्या  मन मे विश्वास का भाव लेकर चलो।। उस भँवर में कहीं फंस न जाये कोई उस भँवर की तरफ नाव लेकर चलो।। जिस जगह चार पल की तसल्ली मिले ज़िन्दगी को उसी ठाँव लेकर चलो।।
 बदनज़र से बचाये रख मौला। अपनी रहमत बनाये रख मौला।। कोई बातिल पनह न पाए कहीं हक़ का परचम उठाये रख मौला।। ये करोना ज़हां का दुश्मन है इससे दुनिया बचाये रख मौला।।
 तुम पे लिक्खूं तो चाँद जलता है तुम कहो  चाँद पर मैं क्या  लिक्खूँ।।सुरेश साहनी
 ढूँढा बहुत से दोस्त पुराने नहीं मिले। जाने कहाँ गये वो ज़माने नहीं मिले।। झूठे बहाने हमने बनाये बहुत मगर सच बोलने चला तो बहाने नहीं मिले।।
 तन नदी को पार करना चाहता है। मन नदी से प्यार करना चाहता है।। तुन्द लहरें तेज धाराये भंवर भी लक्ष्य सबसे रार करना चाहता है।। पड़ गया करना स्वयं को सिद्ध वरना  कब समय स्वीकार करना चाहता है।। चाहता है प्रतिप्रणय हो रुष्ट पुनि पुनि मुग्ध मन मनुहार करना चाहता है।। चांदनी सी रात को कर दो रूपहरी चाँद मन अभिसार करना चाहता है।। जानता है मन प्रणय शोकज है लेकिन प्रीति बारंबार करना चाहता है।। तुम भी उच्छ्रंखल बनो प्रिय साहनी भी वर्जनायें पार करना चाहता है।। सुरेश साहनी , कानपुर 9451545132
 यह देश हमारा है यह भूमि हमारी है। गंगा भी हमारी है जमुना भी हमारी है।। नफ़रत के अंधेरों की कोशिश न सफल होगी  इक नूर मुहब्बत का इस मुल्क पे तारी है।। तक़सीम ज़ुबानों से कैसे ये सदा निकले काबा भी हमारा है काशी भी हमारी है।। इस फिरकापरस्ती से जल जाएगा हर इक घर ये आग नहीं यह तो तलवार दुधारी है।।
 जब कभी मुझको सताने आया। वो  मुहब्बत के  बहाने  आया।। मैं भी समझा कि हँसाने आया। दरअसल था वो रुलाने आया।। जिसको समझा कि तसल्ली देगा वो भी आया तो खिझाने आया।। आदमी ने तो बिगाड़ा लेकिन वो ख़ुदा  भी न् बनाने आया।। कौन आएगा अभी दिल देने तू भी आया तो चुराने आया।।
 मुझे बेशक़ तवज्जो दो न दो तुम। तुम्हे किसने कहा मेरे रहो तुम।। मेरी तन्हाईयों हैं मेरी दौलत ख़ुदारा मत इसे साझा करो तुम।। मेरे ग़म हैं मेरी खुशियों के बाइस मेरे ग़मख़्वार भी क्यों कर बनो तुम।। तुम्हें मेरी रहन पे उज़्र क्या है मेरे हालात पे मत भर उठो तुम।। अना वाले हो इतना याद रक्खो मेरे ही वास्ते क्यों कर झुको तुम।।
 पहले उसने ख़्वाब कुंवारे मांग लिये। फिर मेरे सुख चैन हुलारे माँग लिए।। मैं मीठे पानी के चश्मे लाया था उसने मुझसे सागर खारे मांग लिये।। प्यार मुहब्बत रोटी कपड़ा वाजिब है हद है उस ने चाँद सितारे माँग लिये।।  समझ न पाया उस की शातिर चालों को क्यों उसने मुझसे खत सारे मांग लिये।। जिसकी दुनिया मुझसे रोशन रहती थी उसने मेरे भी उजियारे माँग लिये।। सुरेश साहनी कानपुर
 तुम्हारी बेरुख़ी से मर रहे थे। ये कैसी बेवकूफी कर रहे थे।। लगा था हिज़्र में हम मर मिटेंगे समझ आया कि नाहक़ डर रहे थे।। सुबह एक ताज़गी के साथ है हम तभी शबनम से आंसू गिर रहे थे।। किसी का साथ हमको मिल गया है तुम्हारे साथ तन्हा फिर रहे थे।। ये खालीपन न थी किस्मत तुम्हारी  तुम्हारे साथ हम  जीभर रहे थे।। मैं उनको भी दुआएं दे रहा हूँ जो मेरे वास्ते खंज़र रहे थे।। तुम अब भी फूल सी होगी उम्मीदन तुम्हारे हाथ में पत्थर रहे थे।। Suresh Sahani
 स्वस्थ रहें,सानन्द भी ,और मिले धन धाम। है मेरी शुभकामना पूरित हों हर काम।। धनतेरस दीपावली  मंगलमय त्यौहार। श्री गणेश दें आपको खुशियों के भंडार।।
 क्या करें अब किस तरह हम गांव जाएँ। गांव जाएँ या  कि कुछ पैसे पठाये ।। अबकी बुधिया ने कहा  दो साल बीते हैं विरह में किस तरह, कैसे बताएं।। गाड़ता है भेड़ियों जैसी नज़र  और जर्जर द्वार से  ढिबरी से निकली रोशनी कैसे छिपाएं।। क्या बताएं किस तरह हम जी रहे हैं उसको दें या ट्रेन का भाड़ा जुटाएँ।। Suresh Sahani
 मत लिखो कुछ भी अगर लिखना ज़रूरी है  धार कम कर दो ये क़लम की खानापूरी है आज के हालात पर मत लिखो फिर भी अगर लिखना ज़रूरी है क़लम को गुमराह कर दो तुम नज़रअंदाज़ कर दो हर हकीकत  वो लिखो जो चाहती है यह हुकूमत..... Suresh Sahani
 चाँद तेरा गुरुर जायज है किन्तु हम इस कदर बुरे भी नहीं रात झूमी मेरी रवानी में और हम इतने बेसुरे भी नहीं तुम अगर आसमां की रौनक हो  लूट लेते हैं महफिलें हम भी तुम मुसाफिर हो ये अना है तो छोड़ आये हैं मंजिलें हम भी हम भी अपनी अना पे क़ायम हैं तुमको जब देर से ही आना है हमको भी अपने चाँद के संग संग दिन यही सौ बरस मनाना है....
 मेरे बच्चे मैंने तुम्हें सब सिखाया है छोटों को स्नेह और बड़ों को आदर देना मैंने तुम्हें दिए हैं अच्छी शिक्षा,अच्छे संस्कार और ढेर सारी नसीहतें जैसे सदैव सत्य बोलने की चोरी न करने की और बुराईयों से दूर रहने की और यह भी बताया है कि सड़क देख कर पार करना आग ,पानी,बिजली से सावधान रहना अनजान लोगों से दूर रहना कमजोरों की मदद करना  आदि आदि बस नहीं सिखा सके हैं मानव मात्र से नफरत करना धन, जाति भाषा ,धर्म अथवा  प्रान्त के नाम पर भेद करना मेरे बच्चे हम उस देश से हैं जहां यह सब  समय स्वतः सिखा देता है।। Suresh Sahani
 धरती पर तारों के पटने का मौसम अंधियारों के पाँव सिमटने का मौसम।। जुगनू दीये तारे सारे साथ हुए तम से दो दो हाथ निपटने का मौसम।। ऋद्धि सिद्धि के साथ पधारे प्रथमेश्वर सुख समृद्धि के साथ लिपटने का मौसम।।
 ये कैसी तिश्नगी है राम जाने। कहाँ से कब जगी है राम जाने।। नहीं था नाम जिनका तज़किरे में उन्हें ही क्यों खली है राम जाने।। ख़ुदा से भी अदावत मानता है कोई कितना बली है राम जाने।। गया गुज़रा है जो इक जानवर से वो कैसे आदमी है राम जाने।। कोई रातों को तारे गिन रहा है कहीं कुछ तो कमी है राम जाने।। अभी बारिश का मौसम भी नहीं है फिज़ां में क्यों नमी है राम जाने।। तुम्हारा इस तरह ख़्वाबों में आना ये क्या लत लग गयी है राम जाने।। सुरेश साहनी, कानपुर
 वहीं बातें वही किस्से पुराने। हैं उनको याद करने के बहाने।। हमें दुनिया की परवा भी नहीं है सिवा उनके कोई जाने न जाने।। हरीफ़े- जां के साथ आने से बेहतर न आते तुम हमारे आस्ताने।। नहीं हैं हम तो क्या रहते ज़हां में चलेंगे हश्र तक अपने फ़साने।। कि नगमागर किसी से कम न थे हम कहाँ जाते मगर किसको सुनाने।। सुरेश साहनी, कानपुर
 चाहते हैं तुम्हें बहुत लेकिन तुम इसे प्यार वार मत कहना। देखते हैं तुम्हारी राह मगर तुम इसे इंतेज़ार मत कहना।। दिल ने जब तब तुम्हें सदा दी है और ख्वाबों में भी बुलाया है तेरी यादों में जाग कर तुझको अपनी पलकों पे भी सुलाया है इससे दिल को करार मिलता है तुम मग़र बेक़रार मत कहना।। तुम ख्यालों में पास आते हो रह के ख़ामोश मुस्कुराते हो बंद पलकों में कुछ ठहरते हो आँख खुलते ही लौट जाते हो ये जो छल है तुम्हारी आदत में तुम इसे कारोबार मत कहना।। सुरेश साहनी कानपुर
 अब गरीबों की ख़ुशी के वास्ते कुछ कीजिये। हो सके त्यौहार पर पाबंदियां रख दीजिये।। ये पटाखे फुलझड़ी लैया बताशे हो न हों राजपथ पर पेट भरकर  रौशनी कर दीजिये।। क्या फरक पड़ता है उनके घर में राशन हो न हो भाषणों में वायदों की चाशनी भर दीजिये।। जो करे तारीफ़ उसको रत्न-भारत दीजिये जो करे फरियाद उसको जेल में कर दीजिये।। एक दिन आएंगे अच्छे दिन भरोसा कीजिये सिर्फ हम जैसों की झोली वोट से भर दीजिये।। व्यंग्य
 कुछ कह दिया कुछ सुन लिया। इक जाल गोया बुन लिया।। मन ना मिला कतरा गए मन मिल गए तो चुन लिया।। निर्णय लिए खुश हो लिए बस ना चला सिर धुन लिया।। सावन मिला घनश्याम से मन रंग कर फागुन लिया।। किसको कहें अपना गुरु जब सब ज़हाँ से गुन लिया ।। तुलसी से गुण में रम गए कबिरा मिले निर्गुन लिया।। सुरेश साहनी
 आपन तौ ईहै दीवाली हय। दुइ बच्चे यक घरवाली हय।। थरिया में लाई खील अहै घर मे दुइ चार दियाली हय।।
 हम अपने को समझ न पाये औरों  को  कैसे   समझाते जामवन्त सा साथी मिलता हम हनुमान स्वतः बन जाते।। तुमको पाना कठिन नहीं था यदि हम अपने पर आ जाते पर दुनिया से टकराने का अलग मनोबल कैसे लाते।। मिली जिंदगी चार दिनों की कटी कमाते जीते-खाते तुमको पाने की चाहत में  दो दिन और कहाँ से लाते।। तुम हमसे नाराज़ न होना कर न सका तुमसे दो बातें कुछ मेरी मजबूरी थी ,कुछ - दुनियां की घातें प्रतिघातें।। Suresh Sahani Kanpur
 ऊँची ऊँची बातों से क्या मतलब है। लम्बे चौड़े वादों से क्या मतलब है।। उनको मतलब है जनता के वोटों से जनता के ज़ज़्बातों से क्या मतलब है।। दल में शामिल हैं जो कल तक दागी थे   अब उनके अपराधों से क्या मतलब है।। जब सारी दुनिया को अपना मान लिया जातों और जमातों से क्या  मतलब है।। वात अनुकूलित बंगलों में जो रहते हैं सेठों को फुटपाथों से क्या मतलब है।। जो उलझाते हैं मन्दिर- ओ- मस्जिद में उनको भूखी आंतों से क्या मतलब है।। कैसे माने    वो   नेता या   सन्यासी  है सन्यासी को ठाठों  से क्या मतलब है।। कविता पूरी होगी भाव प्रवणता से केवल शब्द-समूहों से क्या मतलब है।।  मतलब केवल मतलब भर रखते हैं वे        उनको इन जजबातों से क्या मतलब है।। सुरेश साहनी
 अब भी हूक उठा करती है सीने में अब भी याद तुम्हारी आया करती है। जब तब तुम ख़्वाबों में भी आ जाती हो और मेरी नींदें उड़ जाया करती हैं।। तुमने प्यार किया हो ऐसी बात नहीं तुमसे प्यार रहा हो यह भी याद नहीं। वैसे तुम सहरा में चश्मे जैसी थी मैं कैसा था बेशक़ तुमको याद नहीं।। कह सकती हो मेरा मन बंजारा है मैं कहता हूं अपना दिल आवारा है। तुम क्या हो तुम खुद तय कर सकती हो लेकिन मेरे कवि होने में हाथ तुम्हारा है।। सुरेश साहनी
 दूर तक तीरगी के आलम में चंद उम्मीद के दिये लेकर रोशनी ढूंढने को निकले हैं कुछ रदीफ़ और काफिये लेकर हम तो गाते हैं मर्सिया अपना ग़म सजाता है काफिला अपना हसरतें तोड़ती हैं दम पर हम जश्न करते हैं ताजिये लेकर....
 क्या लिखूँ प्यार मुहब्बत बेहतर। या कि दुनिया से अदावत बेहतर।। घर पड़ोसी का जलाया किसने  क्या गरज अपनी शराफ़त बेहतर।। बोझ उसका है उठाने दो उसे कुछ तो है अपनी नज़ाकत बेहतर।। झूठ ने खूब तरक्की की है किसने बोला है सदाक़त बेहतर।। गर्म साँसों की तपिश चुभती है ताब की हद में है चाहत बेहतर।। आज का दौर यही है शायद प्यार से है कहीं नफ़रत बेहतर।। एक मुखबिर को मिले देश रतन कैसे कह दें है शहादत बेहतर।। सुरेश साहनी, कानपुर
 रावण मर जायेगा तो आलू प्याज महंगा कैसे बिकेगा?  रावण उस पुतले में नहीं है। रावण की नाभि में अमृत था था नहीं मालूम हाँ रावण की नाभि-नाल आज भी सुरक्षित है ये जमाखोर कौन हैं?
 इक मुलाक़ात तो कर ली होती। कम से कम बात तो कर ली होती।। तुमको शिकवे भी बहुत थे मुझसे वो शिक़ायात तो कर ली होती।। यार तुम पर था भरोसा कितना एक दो घात तो कर ली होती।।   खल्क ख़ुद अर्ज़-ओ-गुज़ारिश करता इतनी औकात तो कर ली होती।। यार अर्थी ही समझ कर चलते मेरी बारात तो कर ली होती।।  दुश्मनी मुझसे निभाने वाले कुछ मसावात तो कर ली होती।। सिर्फ इक रोज मुझे दे देते वस्ल इक रात तो कर ली होती।। शिक़ायात/शिकायतें ख़ल्क़/ संसार मसावात/बराबरी वस्ल/ मिलन सुरेश साहनी, कानपुर
 रुग्णता को मेट दूं उपचार दे दूँ। ज़िंदगानी को नया आधार दे दूं।। खिल उठे फिर फिर गुलाबों सी जवानी भाव के वैधव्य को श्रृंगार दे दूं।। मानिनी का मान अक्षुण हो अमर हो रीझ कर रूठो तुम्हें मनुहार दे दूं।। तुम कहो तो प्यार की हर रीति मानूँ मेरी निजता का सकल संसार दे दूं।।
 अभी बाज़ार में आया हुआ हूँ। मगर बिकने से घबराया हुआ हूँ।। मुझे बाज़ार के लहजे पता हैं बराये-रस्म शरमाया हुआ हूँ।। कभी आता था मैं भी बन के ताज़िर   अभी बिकने को ही आया हुआ हूँ।। ज़माने से शिकायत किसलिए हो अभी मैं ख़ुद पे झुंझलाया हुआ हूँ।। कम-अज़-कम बदनज़र से अब न देखो कि अंतिम बार  नहलाया हुआ हूँ।। सुरेश साहनी कानपुर
 बस एक्के दिन उहाँ के साथ रहनी। लगत बा जाने केतना रात रहनी।। उ एक्के रात रहुवन साथ जागल कई दिन ले मगर जमुहात रहनी।। भटकलीं एह तरह से का बताईं कहाँ बानीं कहाँ हम जात रहनी।। लजाइल भूलि गइनीं का बताईं कहाँ ऊ दिन रहे सकुचात रहनी।। ए माई ऊहे मनभावन भईल बा कहाँ ओही से हम अझुरात रहनी।। सुरेश साहनी
 खा लेंगे हम जो भी चना चबैना है। खुशियों से अपना क्या लेना देना है।। भारत जीता मैच खुशी की बात तो है फिर छूटा रॉकेट खुशी की बात तो है भाई बना प्रधान विलायत का भईया झूम रहा है देश खुशी की बात तो है पर चाची को हिस्सा एक न् देना है। हमें विलायत से क्या लेना देना है।।....... आयी दीवाली बज़ार में रौनक है खूब मजा मा मोटा भाई शौनक है दौलत है तो रोज मनाओ दीवाली दौलत गाड़ी बंगला चम्मक धम्मक है हम मज़दूरों की छेनी ही छेना है। बस बच्चों के खील बतासे लेना है।।...... सुरेश साहनी कानपुर
 धरने पर बैठे किसान हैं  चोरों ने रखवाली ले ली। पहले बोला भोजन देंगे फिर आगे से थाली ले ली।। जब आये थे वोट मांगने तब मुझको भगवान कहा था पूछा कौन देश का मालिक तब मजदूर किसान कहा था हाय किसे सर्वस्व सौंपकर हमने झोली खाली ले ली।। बोल रहें धरतीपुत्रों से तुम धरती के मालिक कब थे पूछ रहे हैं आज लुटेरे हम किसान या सैनिक कब थे आतंकी अपराधी बर्बर हमने क्या क्या गाली ले ली।।
 माँ ने मुझसे नहीं लिया कुछ भी। कुछ न मांगा अगर दिया कुछ भी।। जितना माँ ने दिया अकथ ही है जितना माँ ने किया अकथ ही है क्या मैं लिख पाऊंगा कभी माँ पर मैंने माँ पर नहीं लिखा कुछ भी।।
 जब हवाओं ने सर उठाया है। वक़्त फानूस बन के आया है।। वक़्त है साथ साथ देंगे सब  वरना हर आदमी पराया है।। इल्म शाइश्तगी कि दानाई सब हमें वक्त ने सिखाया है।।
 हमनें की तदबीरें लेकिन। रूठी थी तक़दीरें लेकिन।। बेशक़ हम आईना दिल थे  पत्थर थी जागीरें लेकिन।। सोचा कुछ तो बात करेंगीं गूंगी थी तस्वीरें लेकिन।। किस्से तो अब भी कायम हैं टूट गईं तामीरें लेकिन।। राँझे अब भी जस के तस हैं बदल गयी हैं हीरें लेकिन।।
 क्यों मुँह है मेरा ढका हुआ। क्या जग है मुझसे पका हुआ।। बस गहन नींद में सोया हूँ हूँ जन्म जन्म का थका हुआ।। अब पता चला वह थी सराय  घर समझ जहाँ था रुका हुआ।। यह देह नहीं इक गेह कोई दस द्वार लिए तालुका हुआ।। मैं चाकर नहीं ब्रम्ह ही हूँ जितना सुमिरन हो सका हुआ ।। मन डूब गया जब ब्रजरस में तब जाकर मन द्वारका हुआ।। सुरेश साहनी कानपुर
 मेरी अपनी लिखी हुई  न जाने कितनी गज़लें नज़्में और प्रेमगीत केवल इसलिए मिटा डाले कि लोग कह मत दें काफिया रदीफ़ मकता मतला बहर ताल मात्रा  और छंद से परे  न जाने क्या क्या कभी बेसुरा होने के डर ने मुझे गाने नहीं दिया कभी बेढंगे होने के डर ने  खुल कर नाचने नहीं दिया बेताला होने का डर लय खोने का डर और सबसे बड़ा डर कि लोग क्या कहेंगे लोग जिनसे अपने सरोकार ही नहीं   थे और जो अपने थे उन्होंने कभी नहीं चाहीं औपचारिकतायें और दिखावे उन्होंने नहीं देखे बहर लय ताल सुर या मात्रायें दरअसल हमारे सरोकार एक थे और वे थी,हमारी सहजता सरलता और निश्छलता जिन्हें खोकर मैंने उन्हें खो दिया जो देते थे मुझे प्यार और दुलार मैंने खो दिए वे भाव जिनसे बन सकती थी मेरी नज़्में और गज़लें और खो दिया वह प्रवाह जो ले जा सकता था शांति के सागर तक......
 ओ रंगरेज नाम रंग रंग दे आज मन रंग दे अंग अंग रंग दे।। चूनर में नित दाग लगे है काम क्रोध मद राग लगे है दाग छुड़ा कर मन मलंग दे।।ओ रंगरेज ..... ना इत जाऊं ना उत जाऊं तेरे  दर पे   रैन  बिताऊँ दीनदयाल आज मोहें संग दे।।ओ रंगरेज.......
 दर्द के गहरे समन्दर और ये तन्हा सफर अपनी हस्ती एक किश्ती हर कदम पर इक भँवर आसमानों सी उदासी ज़ीस्त ढोती उम्र भर मंजिलों पर रक़्स करते साथ तुम देते अगर दोस्तों से हमने खाये जम के खंज़र पीठ पर चांदनी में वो जलन थी धूप है अब बेअसर अब न मिलना जा रहे हैं ये ज़हां हम छोड़ कर सुरेश साहनी, कानपुर
रोशनी को दिये जलाये हैं। पर अंधेरे अभी भी छाए हैं।। और बौना हुये हैं हम घर में कुछ बड़े लोग जब भी आये हैं।। अब किनारे न डूब जाएं हम बच के गिरदाब से तो आये हैं।। क्या किनारे मुझे डुबायेंगे जो बचाकर भँवर से लाये हैं।। दोस्तों को न आजमा लें हम कितने दुश्मन तो आज़माये हैं।। आप भी हक़ से ज़ख़्म दे दीजे क्या हुआ आप जो पराए हैं।। आप की दुश्मनी भी नेमत हैं यूँ तो रिश्ते बहुत निभाये हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 उम्र भर ख़ुद से छुपाया ख़ुद को। कब किया मैंने नुमाया ख़ुद को।। उसने कब मुझको कहा है अपना मैंने तो उसका बताया ख़ुद को।। ग़म सहे ज़ख़्म लिए तंज़ सुने हर तरह मैंने सताया ख़ुद को।। हर घड़ी मैंने तलाशा लेकिन पर कभी ढूंढ़ न पाया ख़ुद को।। आईना मेरा खफ़ा है इस पर क्यों नहीं उससे मिलाया ख़ुद को।। नफ़्स छूटी तो ज़मींदार हुआ आख़िरश कुछ तो बनाया ख़ुद को।। साहनी तोल में माशा न मिला और समझे था सवाया ख़ुद को।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 आना जाना रक्खा कर। ठौर ठिकाना रक्खा कर।। काम बुरे भी आते हैं कुछ याराना रक्खा कर।। ठीक नहीं पर लाज़िम है ठोस बहाना रक्खा पर।। पंछी छत पर आयेंगे आबोदाना रक्खा कर।। तन से तू संजीदा रह मन दीवाना रक्खा कर।। सुरेश साहनी, कानपुर
 रात दिन शामो-सहर अच्छे रहे। जब रहे आठो  पहर अच्छे रहे।। फिर करें किसकी शिकायत और क्यों अपनी नज़रों में अगर अच्छे रहे।।
 रोना धोना अनबन समझे। छूट गया अपनापन समझे।। गोदी, बाहें और बिछौना फिर घर आँगन कोना कोना चंदामामा, सूरज चाचा गुड्डा गुड़िया खेल खिलौना क्रमशः छूटा बचपन समझे।। टॉफी कम्पट चूरन चुस्की कंकड़ पत्थर घोंघे सीपी गुल्ली डंडा इक्खल दुक्खल दिन भर बातें इसकी उसकी यूँ ही गया लड़कपन समझे।। नासमझी में खाये खेले घूमे संग अकेले मेले समझे तो अनजान सफर में डोली में चल दिये अकेले छूट गया फिर आँगन समझे।। फिर चुनर में दाग लगाकर माली संग एक बाग लगाकर जाने कौन नगर जा बैठा विरहिन से बैराग लगाकर छूट गया फिर साजन समझे।। बाबुल को सुध आयी एकदिन डोली एक पठाई एक दिन मैली चुनर छुपती कैसे सचमुच मैं शर्मायी एकदिन छूट गया फिर जीवन समझे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 गिरती घुनती शहतीरों के साये में। जीवन जैसे जंज़ीरों के साये में।। तदबीरों ने हाथ पकड़ कर खींचा तो पैर फंसे थे तकदीरों के साये में।। तुमने हमको ढूंढ़ा है परकोटों में हम बैठे थे  प्राचीरों के साये में ।। दुःख ने साथ निभाया है हर हालत में सुख बंधक है जागीरों के साये में।। ताज पड़े हैं दरवेशों की ठोकर में क्यों जाएं आलमगीरों के साये में।। तुम शायर को शीशमहल में खोजोगे वो होगा नदियों तीरों के साये में।। सुरेशसाहनी,कानपुर
 रिश्ते जब भी स्वारथ पूरित लगते हैं। तब अपने ही लोग अपरिचित लगते हैं।। दुनियादारी की बातें करने वाले सच पूछो तो कितने सीमित लगते हैं।। उनको अपने दुख से कोई हर्ज नहीं वे औरों के सुख से पीड़ित लगते हैं।। वे भी मिलते हैं तो एक तकल्लुफ़ से तब कुछ हम भी खानापूरित लगते हैं।। हम औरों की तंग खयाली क्या जानें सच पूछो हम स्वयं संकुचित लगते हैं।। सुरेश साहनी,कानपुर
 किसने कहा मिल लिया  करिये। केवल याद कर लिया करिये।। चिट्ठियाँ आज कौन लिखता है जब तब फोन कर लिया करिये।।SS
 किस्मत मिली फकीरों जैसी। फितरत मिली अमीरों जैसी।। मेरा होना कौन समझता हाथों खींची लकीरों जैसी।। उनकी जुल्फें उलझी उलझी अपनी बातें सुलझी सुलझी हम आज़ाद ख्यालों वाले रस्में थीं ज़ंजीरों जैसी।। जो मेरी कुटिया में आया बोल उठा इतना सरमाया उसे क्या पता है यह मड़ई मेरे लिए जगीरों जैसी।। जितना उठना उतना गिरना अपने ही घेरों में घिरना सारे काम असीरों वाले शोहरत थी तासीरों जैसी
 दूध दही की नदी बह रही भैया जी। जनता सुख से आज रह रही भैया जी।। आप हमारे देश के मुखिया बन जाओ सब देशन की प्रजा कह रही भैया जी।। आप की इज्जत महिलाएं भी करती है बीबी तक चुपचाप सह रही भैया जी।। दाम बढ़ाओ खूब हमें का दिक्कत है अर्थव्यवस्था लाख ढह रही भैया जी।। जनता तो यूँ ही चिल्लाया करती है सुख से है फिर भी उलह रही भैया जी।। सुरेश साहनी, कानपुर
 सोचा कि वाह वाह से फुर्सत मिले तो फिर। इक बार ज़िन्दगी तेरी क़ुर्बत मिले तो फिर।। जीना किसी भी हाल में लाज़िम तो है अदीब क्या हो जो अपने यार की चाहत  मिले तो फिर।।
 कभी मुझसे रूठ जाते कभी मुझसे प्यार करते।। तुम्हें दिल दिया था मैंने मेरा ऐतबार करते।। तुम्हे क्यों ये लग रहा था कहीं मैं बदल न जाऊं जो कहीं ठहर गया था मेरा इंतज़ार करते।। साहनी
 अभी एक कार्यक्रम की संभावना बन रही थी। एक कवि बोले भैया आप इसको अंतरराष्ट्रीय काव्य संगमन क्यों नहीं लिखवा रहे हैं। कुछ नहीं तो अखिल भारतीय कवि सम्मेलन ही लिखवा लीजिये। ये " कविता-यात्रा' भी कोई नाम है।  मैंने कहा भैया कानपुर और आसपास के कुछ कवि आ जाते हैं , यही बहुत बड़ी बात है। अखिल भारतीय का मतलब समझते हो? वो बोले , '" अरे तिवारी जी अइहें कि नहीं। अभी फेसबुक पर उनका 151वां सम्मान हुआ है। लगभग यूरोप ऑस्ट्रेलिया और अमरीका सब के ऑनलाइन कवि सम्मेलन कर चुके हैं। और वो विचित्तर भैया थापा जी तो नेपाली हइये हँय। और का चाही।'   सही बात बताएं यह बात सुन के हमारे मन मे भी इंटरनेशनल साहित्यकार वाली फीलिंग आने लगी है।
 उस को कैसे कहें भिखारी हैं रोज अरहर की दाल खाता है।।
 बताओ कौन सा अंदाज दे दें। कहानी को नया आगाज़ दे दें।। तुम आये हो करेंगे ख़ैर मक़दम मगर ये क्या कि अपने राज़ दे दें।।
 बसाना है मुझे दिल में बसा लो। नहीं रखना है छोड़ो बात टालो।। मेरे आंसू मेरी कमजोरियां हैं मेरी कमजोरियों पर धूल डालो।। अगर दिल के किसी कोने में मैं हूँ कोई सूरत बने बाहर निकालो ।।
 जब मैं पत्थर की तरह पिघलूँगा। ख़ुद को भगवान नहीं समझूंगा।। तेरे अपनों से मुझे क्या मतलब मेरे  ग़ैरों   को   मना ही लूंगा।।
 इश्क़ में ख़ुद को वारना तय था। हुस्न के हाथ हारना तय था।। हुस्न की फ़िक्र में जिया वरना इश्क़ का खुद को मारना तय था।। उसके बढ़ते कदम न् रुकते तो साथ जीवन गुज़ारना तय था।। क्यों गए भूल जितनी चादर हो पाँव उतना पसारना तय था।। क्या किसी गाम पर सदा आयी जबकि उसका पुकारना तय था।। लाख तूफान ज़िद पे आये हों अपना किश्ती उतारना तय था।। दिल की दुनिया उजाड़ दी उसने जिसका मुझको संवारना तय था।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 गरीब का मतलब बेईमान नहीं होता। आज मेरा  मोबाइल फोन  गिर गया था।अभी कुछ देर पहले जगन्नाथ पुरी पीठ के 145वें शंकराचार्य जगद्गुरु निश्चलानंद जी महाराज के हिन्दू राष्ट्र ,धर्म और संस्कृति पर उद्बोधन को सुनकर निकला था। सँयुक्त परिवार के टूटने से और एकल परिवारों के बढ़ने से जो सांस्कृतिक पर्युषण आया है, उस पर उनका आख्यान अद्वितीय था। आज मैं अपने राष्ट्र के  विश्वगुरु होने की संभावना मात्र से अभिभूत था।    परन्तु  फ़ोन गिरते ही सारा जोश ठंडा हो गया था।जहां फोन गिरे होने की संभावनाएं थी।मैंने उस रास्ते पर तक़रीबन 300 मीटर तक वापस आकर फिर दो तीन और ढूँढा, पर नतीजा शून्य ही रहा। एक दो भले लोगों ने अपने फोन से मेरा नम्बर मिलाया पर आउट ऑफ नेटवर्क बता रहा था।कुछ ने कहा शायद  किसी को मिल गया है और उसने स्विच ऑफ कर दिया है।किसी ने कहा  कहीं नाली में गिर गया होगा।आदि आदि। जितने लोग, उतनी सलाह, उतनी संभावनायें।    एक सज्जन बोले अरे इनका क्या? एक कवि सम्मेलन में निकल आएगा। कउन मेहनत का पैसा था। उन्हें क्या पता कि एक कवि का दिल इससे कितना आहत होता है।और...
 कि अपने वक़्त से बिछुड़ा हुआ हूँ। मैं हाज़िर हूँ मगर बीता हुआ हूँ।। कहीं जुड़ने की ख्वाहिश भी नहीं है मैं जां से जिस्म तक टूटा हुआ हूँ।।
 इनसे उनसे दुनिया भर से हैं अपने नाते। संबंधों के मकड़जाल में नित फँसते जाते।। सुर नर मुनि सबकी है रीती स्वारथ की प्रीती एक तुम्ही थी जो इन सबसे अलग रही माते।।
 उसका रहमोकरम अजी है क्या। उस मुक़द्दर से ज़िन्दगी है क्या ।। हम न ढोएंगे अब मुक़द्दर को रूठ जाने दो प्रेयसी है क्या।। कुछ तो तदबीर पर भरोसा कर सिर्फ़ तक़दीर की चली है क्या।। क्यों मुक़द्दर से हार मानें हम कोशिशों की यहाँ कमी है क्या।। जागता भी है सो भी जाता है ये  मुक़द्दर भी आदमी है क्या!!साहनी
 "का बात है भाई साहब ! गुप्ताइन कछू थकी थकी लग रही हैं।आज रात दो बार पूजा होय गयी का?"मिश्रा जी ने पूछा।  नहीं ऐसे ही । ठीक तो हैं"गुप्ता जी ने अनमने मन से उत्तर दिया।शायद उन्हें मिश्रा जी मजाक पसंद नहीं आया था।फिर भी उन्होंने पूछ लिया कि कैसे आना हुआ मिश्रा जी? कछू नहीं यार! दोनो बेटियन को मेरे घर भेज देना ।कन्या पूजा करनी है।   मिश्रा जी का आग्रह था या आदेश, यह बात गुप्ता जी समझ नही पाए।लेकिन पूजा शब्द उन्हें बार बार  परेशान कर रहा था। #लघुकथा सुरेश साहनी,कानपुर
 जीत तो तय थी इश्क़ में लेकिन हार कर और ही मज़ा आया।।सुरेश साहनी
 इक ख़ुदा ही तलाश करना  था। या पता ही तलाश करना था।। मैं तो बेख़ुद था आप कर लेते मयकदा ही तलाश करना था।। हमसफ़र की किसे ज़रूरत थी हमनवा ही तलाश करना था।।  उसने झूठी तसल्लियाँ क्यों दी जब नया ही तलाश करना था।। मुझसे क्या उज़्र था अगर उसको बेवफ़ा ही तलाश करना था।। मुझको मंज़िल तलाश करनी थी उसको राही तलाश करना था।। साहनी सुरेश कानपुर 9451545132
 आप इतने करीब  क्यों आये। बनके मेरा नसीब क्यों आये। दिल हकीकत पसंद हैं यारब ख़्वाब इतने अजीब क्यों आये।। आप तो प्यार करने वाले थे लेके दार ओ सलीब क्यों आये।। कब्र को आग कौन देता है साथ कोई रक़ीब क्यों आये।। गुल से ज़्यादा जहाँ शिकारी हों फिर वहाँ अंदलीब क्यों आये।। सुरेश साहनी
 खाना बेहतर पीना बेहतर। क्या ये ही है जीना बेहतर।। चालीस चोर अलीबाबा से यूँ भी थी मरजीना बेहतर।। क्या बेहतर था अकबर या फिर थी उसकी काबीना बेहतर।। इन काली वहशी नज़रों से होते  हैं  नाबीना  बेहतर ।।
 सपने जब से सरकारों की क़ैद हुए। सच उस दिन से अख़बारों की क़ैद हुए।। भूले भटके जो मिल जाते थे पहले खुशियों के दिन त्योहारों की क़ैद हुए।। हिन्दू मुस्लिम के गंगा जमुनी रिश्ते मज़हब के पहरेदारों की क़ैद हुए।। ख़त्म हुए दिन अब रिंदों की मस्ती के सागर साकी सब बारों की क़ैद हुए।। मुक्ति कहाँ सम्भव है अब मरने पर भी जब से विवरण आधारों की क़ैद हुए।। प्रेम भटकता है उनमें जिन गलियों में दिल नफरत की दीवारों की क़ैद हुए।। परमारथ की नदियाँ सागर सुख गए हम स्वारथ वाले नारों की क़ैद हुए।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 मिलना ख़ैर ख़बर ले लेना हँस कर दो बातें कर लेना मौके बेमौके दिख जाना अक्सर राहों में दिख जाना ऐसे इत्तेफाक होने का  मतलब प्यार नहीं होता है......
 औपचारिकता कथन में भाव है किसके जेहन में।। यंत्रवत कर तो रहे हैं मन नहीं है आचमन में।। पोत कर कुछ रंग चेहरे भाव से बेरंग चेहरे आ रहे हैं जा रहे हैं छल कपट ले संग चेहरे कर रहे आसक्तियों की साधना कंक्रीट वन में।। हास्य स्वाभाविक नहीं है अश्रु नैसर्गिक नहीं है भावनायें कामधर्मी नेह अब सात्विक नहीं है हुस्न है बाजार में अब इश्क़ दैहिक संक्रमण में।। सुरेश साहनी, कानपुर
 घाट घाट का पानी पीना सीख गये। ठोकर खा कर हम भी जीना सीख गये।। भाषा ने ऐसा आक्रामक रूप लिया साला  कुत्ता और कमीना सीख गये।।
 सुरेश साहनी,कानपुर गांव सरीखी सर्दी बदरी  घाम मिले तो कहना। अपने घर को छोड़ कहीं आराम मिले तो कहना।। भली लगे है मुझे गांव सुखी रोटी चटनी हजम नहीं होती हैं मुझको बातें चुपड़ी चिकनी सतुवा भूजा बाटी चोखा नाम मिले तो कहना।। गांव सरीखी सर्दी ...... मुझे गाँव भाता है चाहे बैठा रहूँ निठल्ला तुम कह दो तो शहर चलूँगा मान तुम्हारी लल्ला धूप सेकने जैसा कोई काम मिले तो कहना।। कहीं गांव की प्रीत सरीखी प्रीत मिले तो कहना उनका नाम नहीं लेने की रीत मिले तो कहना कहीं द्वारका में राधा और श्याम मिले तो कहना।। प्रेम सुधा गांवों से अच्छी सस्ती कहाँ मिलेगी शहरों में मन्सूर सरीखी मस्ती कहाँ मिलेगी कहीं रुबाई को कोई ख़य्याम मिले तो कहना।। औरों के दुख जब अपने दुख हमें नज़र आएंगे पीड़ाओं की हंसी उड़ाने वाले छिप जाएंगे पीड़ाओं को यही नया आयाम मिले तो कहना।। कदम कदम पर असुर दशानन गली गली फिरते हैं निर्बल जन का हनन नित्य पट हरण किया करते हैं इनका उद्धारक फिर कोई राम मिले तो कहना।। सुरेशसाहनी,कानपुर
 हालते-जिस्म नमूदार हुयी जाती है। ज़िन्दगी मौत की हकदार हुयी जाती है।। आरजूएँ भी उम्मीदे भी तमन्नायें भी  उम्र के हाथ गिरफ्तार हुयी जाती है।। खैरख्वाही भी करी और मसीहाई भी  फिर भी ये इश्क़ की बीमार हुयी जाती है।। इश्क़ के साथ जुनूँ बढ़ता चला जाता है मैं नहीं दुनिया शर्मसार हुयी जाती है ।। उम्र भर मुझसे जफ़ा और जफ़ा और जफ़ा आज क्यों ज़ीस्त वफ़ादार हुयी जाती है।। सुरेशसाहनी,कानपुर हालते-ज़िस्म--शरीर की स्थिति नमूदार -- प्रकट होना ,सार्वजनिक होना आरजूएँ-- इच्छा तमन्ना --आकांक्षा  खैरख्वाह--हितैषी मसीहाई -- करामाती इलाज़ जुनूँ -- इच्छाशक्ति  जफ़ा--धोखा
 प्यार कभी था अब भी है। कुछ तो वैसा अब भी है।। तुमसे बेहतर क्या होता कोई तुम सा अब भी है।। सच बोलें तो मानोगे ये दिल बच्चा अब भी है।। होश नहीं कब देखा था ख़्वाब अधूरा अब भी है।। कुछ तो खोया तब भी था कुछ तो छूटा अब भी है।। माना पहले बेहतर था कुछ तो अच्छा अब भी है।। तब भी दुनियादार न था ये मन भोला अब भी है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जो थे मेरे करीब के सारे गुज़र गए।। यूँ एक एक करके न जाने किधर गए।। बेशक़ वो फिक्रमंद थे मेरे इसीलिए तन्हाइयों में ग़म के हवाले तो कर गए।। वो गिर गए फिसल के मेरे आंसुओं के साथ कैसे कहें कि मेरी नज़र से उतर गए।। हम मन्ज़िलों के वास्ते चलते रहे अदीब मौकापरस्त पा के मरहले ठहर गए।। सुरेश साहनी अदीब
 रेत के आंसुओं को न समझोगे तुम तुमने मरुथल में रातें गुज़ारी कहाँ। जलती रेतों में झुलसे नहीं तुम कभी तुमने सहरा में किश्ती उतारी कहाँ।। होठ सूखे अगर पपडियां जम गयीं प्यास सदियों से पहले  बुझेगी नहीं ज़ीस्त भटकेगी दस्ते-सराबा में पर तिश्नगी उम्र भर फिर थमेगी नहीं
 अहले महफ़िल हैं नाबीना। किसको दिखलाये आईना।। जनता गूंगी राजा बहरा बेहतर है होठों को सीना।। एसी और बिसलेरी वाले कब समझें हैं खून पसीना।। जुल्म सहन करना चुप रहना अब इसको कहते हैं जीना।। किसे पुकारे आज द्रौपदी दुःशासन पूरी काबीना।। आज अलीबाबा मुखिया है चोरों का बोली मरजीना।। राम खिवैया हैं तो डर क्या बेशक़ है कमजोर सफीना।। सुरेश साहनी कानपुर  9451545132
 सरदी में गुनगुनी धूप सी गर्मी में शीतल फुहार है। बारिश में छतनार पेड़ की छाया जैसा तेरा प्यार है।।
 जो मित्रों की पोस्ट पर तनिक न् देते ध्यान। सुंदरियों की वाल पर बिछे मिले श्रीमान।। बोझ सदृश लगती जिन्हें  मित्रों की रिक्वेस्ट। महिला मित्रों में बने  बिना बुलाये गेस्ट।।
 मोबाइल से कर दिया तुमने जब डीलीट। यादों में फिर क्यों मुझे करते रहे रिपीट।।
 हमारी ख्वाहिशें हैं इक ज़रा सी। ख़ुदारा छीन लें सबकी उदासी।। जहाँ बच्चों के होठों पर हँसी हो वहीं है अपनी काबा और काशी।। वज़ह ढूंढ़ो कुछ इनकी अज़मतों की फ़क़ीरों की भी लो ज़ामातलाशी।। ख़ुदा जो कुछ करे अच्छा करेगा कभी खुद से न करना बदक़यासी।। दिखावे पर मरी जाती है दुनिया किसे भाती है अब सादालिबासी।। मेरी तुर्बत कहाँ है ये बताओ मुझे आने लगी है अब उबासी।। वो पत्थरदिल मेहरबाँ हो रहा है हमें भी आ गयी है संगतराशी।।                   सुरेश साहनी  कानपुर
 नाम बेशक़  है बड़ा दिल तो ज़रा सा निकला। वो जो बनता था समंदर वही प्यासा निकला।।SS
 ज़ीस्त होती जो कीमती इतनी इस तरह दर-ब-दर नहीं मिलती।। पार जाने के रास्ते हैं बहुत वापसी की डगर नहीं मिलती।। कितनी बेजा हैं ख्वाहिशें अपनी हर खुशी मोड़ पर नहीं मिलती।। आज दिल फिर उदास हो बैठा काश उनकी ख़बर नहीं मिलती।। टूटती हैं अना में साहिल पर इक  से  दूजी लहर नहीं मिलती।।
 मेरा वजूद मुझे आजमा के लौट गया। ले आज मैं ही मेरे पास आ के लौट गया।। मेरे ज़मीर को शायद ज़हां न रास आया बढ़े कदम तो वो पीछे हटा के लौट गया।।
 एक बार तौबा किया फिर जन्नत की मौज। इसी सोच से बढ़ गयी, इब्लीसों की फौज।।साहनी
 उम्र भर साथ निभाने वाले। हैं तो किरदार फ़साने वाले।। सोने–चाँदी में नहीं बिकते हैं दौलते–दिल को लुटाने वाले।। अच्छे दिन अब नहीं आने वाले। दिन गए गुजरे ज़माने वाले।।  दौरे–हाजिर तो नहीं दिखते हैं रस्मे उल्फ़त को निभाने वाले।। मुड़ के इक बार तो देखा होता  राह में छोड़ के जाने वाले।।  अब तो काजल से जलन होती है मुझकोआँखों में बसाने वाले।। सुरेश साहनी, कानपुर
 खूब पत्थर आज़माने चाहिए। आईने फिर भी बचाने चाहिए।। गुमशुदा भूले हुए रिश्ते सभी हो सके तो फिर बनाने चाहिए।। ये भी हो सकता है वो अनजान हो सोच कर तोहमत लगाने चाहिये।। पास मेरे दीन है  ईमान है क्या महारत और आने चाहिए।। सिसकियों में अब वो तासीरें कहाँ दर्द चिल्लाकर सुनाने चाहिए।। आदमी को चाहिए दैरो-हरम कुछ ख़ुदा को भी ठिकाने चाहिए।। कुछ नई तर्ज़े ज़फ़ा अपनाईये हमको पीने के बहाने चाहिए।। सुरेश साहनी, कानपुर
 कुछ लोग जम्हूरियत की मज़म्मत करते हैं,नकारते हैं।ऐसे लोगों की कमअक्ली पर हमें तरस आता है।यह हिंदुस्तान की ज़म्हूरियत की देन है कि आप अम्बेडकर नेहरू और दीनदयाल की आलोचना कर लेते हैं।सरकार के खिलाफ बोल लेते हैं।मनमोहन और मोदी के खिलाफ जुलुस निकाल लेते हैं।सोनिया और अमित शाह के पुतले फूंक लेते हैं।यह हिंदुस्तान की ज़म्हूरियत है,जिसमें आप को अपने मज़हब को मानने की आज़ादी हैं।कुछ छोटी बड़ी बातें और नामाकूल वारदातें हो जाने का मतलब यह नहीं कि हम ज़म्हूरियत पर ऊँगली उठाने लगें।काश्मीर की आज़ादी के मायने सिर्फ हिंदुस्तान की बुराई आप हिन्दुस्तान में कर पातें हैं,क्योंकि यहां ज़म्हूरियत है।ऐसे मुल्क जहाँ ज़म्हूरियत नही है वहां फ़क़त इतनी आज़ादी है कि किसी पर कोई इलज़ाम लगाकर उसे आसानी से क़ैद किया जा सकता है ,कत्ल किया जा सकता है,फाँसी दी जा सकती है।  इसलिए मुख़ालफ़त करिये,गुस्सा ज़ाहिर कीजिये।मनमुताबिक इंतिख़ाब करिये।हक़ मांगिये।हक़ दीजिये।सरकार बनाइये ।सरकार बदलिये।सरकारें आती और जाती रहेंगी।ज़म्हूरियत रहनी चाहिए।ज़म्हूरियत रहेगी।
 औरों में शामिल रहकर भी  औरों से आगे चलना है भीड़ हमारे साथ चलेगी हमको भीड़ नहीं बनना है पैदा होना कुछ दिन जीना मरकर मिटटी में मिल जाना इसमें अपना योगदान क्या सब कुदरत का ताना बाना कल निश्चित में नहीं रहूँगा लेकिन मेरी कहानी होगी मेरे कृत्य मेरी गाथाएं जग को याद जुबानी होंगी।। Suresh Sahani
 सारे कंक्रीटों के जंगल तपते हैं। अब तो अपने ग्रामीण अंचल तपते हैं।। और हवाओं की आज़ादी रूकने पर रेत समंदर साहिल बादल तपते हैं।।
 सुना है उनके क़रीब हूँ मैं ख़ुदा अना से बचाये रक्खे।।SS
 हमें पता है  प्रभु असत्य का  रावण कभी नहीं मरता है फिर भी हम खुश हो लेते हैं कागज का रावण जलने पर सचमुच की लंका हारी थी या असत्य की जीत हुई थी सचमुच का रावण वध था या रक्ष संस्कृति हार गई थी जाने कितने कालनेमि या रावण अब भी घूम रहे हैं घूम रहे हैं साधू बनकर राम नाम का परदा डाले उन्हें पता है इस कलियुग में राम नहीं अब आने वाले राजनीति के जिस प्रपंच से  राम स्वयम ही ऊब गए थे राम स्वयं ही जल समाधि लेकर सरयू में डूब गए थे माता सीता समझ गयी थी जिस रावण का वध होने पर वे सम्मान सहित लौटी थीं पूरण समयावधि होने पर उन्हें घूमते मिले अवध में उससे अधिक घिनौने रावण कर्मकांडतः ऊँचे लेकिन वैचारिकतः  बौने रावण माँ धरती की गोद समाती माँ सीता ने कहा राम से तुम्हें अवतरित होना होगा कलियुग में फिर इसी काम से....
 खूबसूरत है बेहिसाब कोई। उसका दिखता नहीं जवाब कोई।। आफताबी जलाल है उसका और रूख़ है कि माहताब कोई।। होठ उसके हैं कोई पैमाने उसकी आंखें हैं या शराब कोई।। रात ख्वाबों में वस्ल का होना कर गया है मुझे ख़राब कोई।। जो भी दिखता है वो नहीं होता ज़ीस्त है या कि है सराब कोई।। इश्क़ मेरा महक गया बेशक़ हुस्न जैसे खिला गुलाब कोई।। हो सके बेनकाब मत आना कैसे लाएगा इतना ताब कोई।। सुरेश साहनी, कानपुर
 अपने पंखों को कतर आया है। तब कहीं उड़ के शहर आया है।। छाँह गमलों में उगाने वाला काट कर बूढ़े शज़र आया है।। गाँव आया है कि कुछ बेचेगा किस तरह कह दें कि घर आया है।। आशना तो है मगर क्यों उसमें अजनबी शख़्स नज़र आया है।। ग़ैर जैसा तो नहीं है फिर भी कौन आया है अगर आया है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 रुक्नो- बहर के रगड़े देखें या लिक्खें। लिक्खाड़ों के लफड़े देखें या लिक्खें।। आलिम कोई है तो कोई कामिल है हम शोअरा के झगड़े देखें या लिक्खें।। अशआरों में बात मुकम्मल ना कहकर वज़नी देखें तगड़े देखें या लिक्खें।। फ़ितरत से दरवेश अदा शाहाना भी उस शायर के कपड़े देखें या लिक्खें।। उस्तादों में रक़बत कितनी ज़्यादा है उस्तादों के पचड़े देखें या लिक्खें।। सुरेश साहनी , कानपुर
 जब अंधेरों की हिफ़ाजत में दिये मुस्तैद हों। हम तो जुगनू हैं भला किसके लिये मुस्तैद हों।। इक गज़ाला के लिए जंगल शहर से ठीक है हर गली हर चौक में जब भेड़िये मुस्तैद हों।। और उस कूफ़े की बैयत कौन अब लेगा हुसैन जब वहां बातिल के हक़ में ताज़िये मुस्तैद हों।। ख़त किताबत वाली गुंजाइश वहाँ होती नहीं जब रक़ाबत लेके दिल में डाकिये मुस्तैद हों।। बेबहर हर वज़्म मे  बेआबरू होगी ग़ज़ल हक़ में कितने भी रदीफ़-ओ-काफ़िये मुस्तैद हो।। सुरेश साहनी ,कानपुर 9451545132
 हम खामोश रहे कभी ,कभी आप खामोश। आज स्वयं पर पड़ी ,तो  क्यों खोते हैं होश।।SS
 अगर बनानी है तकदीरें। बन्द करो देखना लकीरें।। बन्द खंडहर ढहने ही थे कहाँ रोक पाती शहतीरें।। हम गरीब हैं क्या उजड़ेंगे उजड़ा करती हैं जागीरें।। आवाजें तो दे सकते हैं पैरों में  होंगी जंजीरें ।। कोशिश कर बुनियाद हिला दो तब तो दरकेंगी तामीरें।। बनती मिटती हुयी लकीरें नहीं बदलती हैं तकदीरें।। सुरेश साहनी,कानपुर
 सीधा सादा सरल सलोना जीवन है। तुमसे घर का कोना कोना जीवन है।। बोलो रूठो रार करो मनुहार करो प्यार तुम्हारा घर में होना जीवन है।। झूटी शानो शौकत में सब डूबे है  ऊँचे  कद वालों का बौना जीवन है।। जीवन है उपहार इसे स्वीकार करो देह भले माटी है सोना जीवन है।। भागोगे तो बोझ सरीखी पाओगे अपनाओ तो खेल खिलौना जीवन है।। दौड़ कुलाँचे भर ओझल हो जायेगा गोया जंगल का मृग छौना जीवन है।। Suresh Sahani ,kanpur
 चूल्हा चौका  जूठे बर्तन   धोने तक।  मीलों चल आती हैं रात बिछौने तक।। जग जाती है सबके उठने से पहले फिर खटती है वो घर भर के सोने तक।। देहरी से भीतर सब उसकी दुनिया है घर के आंगन से कमरे के कोने तक।। आज़ादी है उसको भी दुख कहने की पर छुपकर आंखों की कोर भिगोने तक।। कुसुम सूख कर कांटा सी हो जाती है रिश्तों में रिश्तों के तार पिरोने तक।। लड़की की आँखों मे सपने रहते हैं चूल्हे चौकी की दुनिया मे खोने तक।। वो घर की है बेशक़ यह आधा सच है सच मे घर है उसके घर मे होने तक।। सुरेश साहनी, कानपुर
 ज़िन्दगी में अपनी बातें कुछ तो मानीखेज़ रख। या तो तेजी से निकल ले या स्वयम में तेज रख।।
 सितारे लेने गया था मगर नहीं लौटा। नया नहीं है जो जाके उधर नहीं लौटा।। वफ़ा की राह में इक बार बढ़ गया जो भी वो लौट आया तो उसका जिगर नहीं लौटा।। वो मरहले वो मुक़ामात और और ये हासिल करूँगा क्या  जो मेरा हमसफ़र नहीं लौटा।। किसी के ऐसे दिलासे ने और तोड़ दिया कि उधर गया है जो कोई बशर नहीं लौटा। जईफ वालिदैन अब भी राह तकते हैं मगर वो बेटा विलायत से घर नहीं लौटा।। ये बेख़ुदी का ठिकाना है जन्नतुल फिरदौस जिसे मिला वो कभी दैरोदर नहीं लौटा।।  अदीब कब तुझे समझेंगे ये खुदा वाले ख़ुदा इसीलिए ज़मीन पर नहीं लौटा।। सुरेश साहनी,अदीब  कानपुर
 ख़ुदा वालों से पाले पड़ गये हैं। के मयखानों में ताले पड़ गए हैं।। कहाँ दावा था उनका ज़न्नतों पर कहाँ दोज़ख़ के लाले पड़ गये हैं।।
 शहर में शादियाने चल रहे हैं। हमी तनहा सड़क पर मिल रहे हैं।। तुम्हारे मुन्तज़िर क्यों ना रहें हम अभी आंखों में सपने पल रहे हैं।। तेरी यादें हैं जैसे सर्द झोंके भले हम दहरे-ग़म में जल रहे हैं सुरेश साहनी
 इक ज़रा ख़ुद पे प्यार आने दे। हम  खिलेंगे बहार आने  दे।। मुख़्तसर वस्ल क्या क़यामत है कुछ तो दिल को क़रार आने दे।। इक तेरा साथ है बहुत यारब आफ़तें फिर हज़ार आने दे।। आएगा तुझको कैफ आएगा अपने  अबरू में धार आने दे।। इश्क़ चाहे है हुस्न की दौलत किसने मांगा है चार आने दे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 हर फ़न में माहिर हो जाना चाहेंगे। बेशक़ हम नादिर हो जाना चाहेंगे।। कितना मुश्किल है जीना सीधाई से कुछ हम भी शातिर हो जाना चाहेंगे।। दरवेशों की अज़मत हमने देखी है तो क्या हम फ़ाकिर हो जाना चाहेंगे।। ख़ुद्दारी गिरवी रख दें मंजूर नहीं बेहतर हम मुनकिर हो जाना चाहेंगे।। वो हमको जैसा भी पाना चाहेगा वो उसकी ख़ातिर हो जाना चाहेंगे।। यार ने जब मयखाना हममें देखा है क्यों मस्जिद मन्दिर हो जाना चाहेगे।। इश्क़ हमारा तुमने शक़ से देखा तो टूट के हम काफ़िर हो जाना चाहेंगे।। साहनी
 उस बेवफा के चाहने वाले नहीं रहे । शिकवे गिले उलाहने वाले नही रहे  ।। खुशियाँ तलाश लेना किसी और नाम से इस नाम के सराहने वाले नही रहे  ।।
 माँ भारती माँ भारती हे शारदे माँ सरस्वती। उपकार कर उपकार कर स्वीकार अपनी आरती ।।माँ भारती ममतामयी करुणामयी ज्ञानाश्रयी ज्योतिर्मयी अज्ञान हरने के लिए माँ तू अहर्निश जागती।। शुभ शूभ्र  वल्कल धारिणी कर पदम् वीणा धारिणी माँ हाथ में पुस्तक लिए है ज्ञान सब पर वारती।। सुख शांति देती प्रीत भी नव गीत भी संगीत भी अब क्या कहें कब कब नहीं है माँ हमें उपकारती।। माँ भारती माँ ज्ञान दे विज्ञान दे मम कण्ठ स्वर संधान दे अज्ञान मम पीड़ा विषम त्रय ताप तम संहारती।। माँ भारती रचना - सुरेश साहनी
 रूठना है तो रूठ जाया कर। फिर मनाने से मान जाया कर।। तेरे जाने से जान जाती है उठ के पहलू से यूँ न जाया कर।। दिल तेरे ग़म में डूब सकता है यूँ किनारे भी मत लगाया कर।।SS
 यार हैं ये भरम बुरा है क्या दुश्मनों को ही आज़माया कर।।
खो रही है सांस भी रफ्तार कुछ। ज़ीस्त भी है उम्र से बेज़ार कुछ।। हसरतों को तो है जीने की ललक मौत पर ज़्यादा दिखी तैयार कुछ।। इश्क़ की परवाह क्यों हो हुस्न को पूछता है जब तलक बाज़ार कुछ।। जंग लाज़िम है मुहब्बत में अगर कर ही लीजै रार कुछ तक़रार कुछ।। कैसे माने हम महाभारत इसे कह रहे हैं तीर कुछ तलवार कुछ।। एक से मुश्किल है सम्हले ये जहाँ हो सके तो कृष्ण लें अवतार कुछ।। सुरेश साहनी, अदीब कानपुर
 हमारे सच के तलबगार ही न थे शायद बगैर झूठ के बाजार ही न थे शायद।। जहाँ भी जाओ वहीं हुस्न को तवज्जो थी हमारे इश्क़ के बीमार ही न थे शायद।।साहनी
 प्रायोजित कलमें कहाँ सच पाती हैं देख। महँगाई के पक्ष में वे लिखती हैं लेख।।
 मंत्री जी का लड़का है सब कर सकता है। पुलिस प्रशासन उसका है सब कर सकता है।। वो चाहे तो भीड़ के ऊपर गाड़ी चढ़वा दे बेटा जो मनबढ़ का है सब कर सकता है।। सुरेश साहनी कानपुर
 तुम्हें भी आदमी लगने लगा हूँ। मुझे भी मैं कोई लगने लगा हूँ।। बताया मुझको मेरे आईने ने उसे में अजनबी लगने लगा हूँ।। सुना है कोई मुझपे मर मिटा है उसे मैं ज़िन्दगी लगने लगा हूँ।। ज़माना हो गया है दुश्मने-जां मैं हक़ की पैरवी लगने लगा हूँ।। अभी किस दौर में हम आ गए हैं जहां मैं मुल्तवी लगने लगा हूँ।। कोई तो मुझमे उसमें फ़र्क़ होगा कहाँ से मैं वही लगने लगा हूँ।। कहीं से साहनी को ढूंढ लाओ उसे मैं शायरी लगने लगा हूँ।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
बददुआ काम कर न जाये कहीं। दिल की दुनिया सँवर न जाये कहीं।। हम तेरे हुस्न से मुतास्सिर हैं इश्क़ में नाम हो न जायें कहीं।। वक़्त रहते  दवा पिला दीजै वक़्त यूँ ही गुज़र न जाये कहीं।।
 ग़ज़ल तुमने नींदें मेरी उचाटी है।  मैंने जग जग के रात काटी है।। मैंने किस पर खुशी लुटा डाली जिसने दौलत ही ग़म की बांटी है।। ख़ुद सलाम-ओ-पयाम दे देकर दिल ने दूरी हर एक पाटी है।। दिल के हाथों जहाँ लुटा था मैं हाँ यही दून की वो घाटी है।। मुझमें दुनिया में कोई फर्क नहीं मैं भी माटी हूँ ये भी माटी है।। सुरेश साहनी, कानपुर