अगर बनानी है तकदीरें।
बन्द करो देखना लकीरें।।
बन्द खंडहर ढहने ही थे
कहाँ रोक पाती शहतीरें।।
हम गरीब हैं क्या उजड़ेंगे
उजड़ा करती हैं जागीरें।।
आवाजें तो दे सकते हैं
पैरों में होंगी जंजीरें ।।
कोशिश कर बुनियाद हिला दो
तब तो दरकेंगी तामीरें।।
बनती मिटती हुयी लकीरें
नहीं बदलती हैं तकदीरें।।
सुरेश साहनी,कानपुर
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