खूब पत्थर आज़माने चाहिए।
आईने फिर भी बचाने चाहिए।।
गुमशुदा भूले हुए रिश्ते सभी
हो सके तो फिर बनाने चाहिए।।
ये भी हो सकता है वो अनजान हो
सोच कर तोहमत लगाने चाहिये।।
पास मेरे दीन है ईमान है
क्या महारत और आने चाहिए।।
सिसकियों में अब वो तासीरें कहाँ
दर्द चिल्लाकर सुनाने चाहिए।।
आदमी को चाहिए दैरो-हरम
कुछ ख़ुदा को भी ठिकाने चाहिए।।
कुछ नई तर्ज़े ज़फ़ा अपनाईये
हमको पीने के बहाने चाहिए।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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