चूल्हा चौका  जूठे बर्तन   धोने तक। 

मीलों चल आती हैं रात बिछौने तक।।


जग जाती है सबके उठने से पहले

फिर खटती है वो घर भर के सोने तक।।


देहरी से भीतर सब उसकी दुनिया है

घर के आंगन से कमरे के कोने तक।।


आज़ादी है उसको भी दुख कहने की

पर छुपकर आंखों की कोर भिगोने तक।।


कुसुम सूख कर कांटा सी हो जाती है

रिश्तों में रिश्तों के तार पिरोने तक।।


लड़की की आँखों मे सपने रहते हैं

चूल्हे चौकी की दुनिया मे खोने तक।।


वो घर की है बेशक़ यह आधा सच है

सच मे घर है उसके घर मे होने तक।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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