करने लगे हैं लोग जो वादे नये नये लगता है दिन चुनाव के नजदीक आ गए।। शायद कि जंग खा चुके है उनके असलहे या इस चुनाव में कहीं से टिकट पा गये।। लगता नहीं है कि वो मुहल्ले के भाई है अब वो अबे से आप के लेवल पे आ गए।।
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Showing posts from January, 2023
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इससे पहले कि कोई उज़्र उठे आओ हम तर्के-मुहब्बत कर लें... साथ भी कितनी घड़ी रहना है और दो चार घड़ी की ख़ातिर ले लें रुसवाई ज़माने भर की सिर्फ इक दिल के सुकूँ की ख़ातिर इस से पहले कि ज़माना बदले आओ हम तर्के-मुहब्बत कर लें.... प्यार है भी क्या अज़ीयत के सिवा दर्दो -ग़म ,रंजो- अलम ,अश्को- खला हीर -राँझा हो कि लैला- मजनू सबको फुरक़त के सिवा कुछ न मिला इससे पहले कि यही हमको मिले आओ हम तर्के-मुहब्बत कर लें.... क्यों ज़रूरी है मुहब्बत ही करें काम कुछ और भी कर सकते हैं ज़ुल्मो-गुरबत से भरी दुनिया के- वास्ते ज़ीस्त भी कर सकते हैं यूँ ज़माने से बग़ावत है फ़िज़ूल आओ हम तर्के-मुहब्बत कर लें..... सुरेशसाहनी, कानपुर
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मेरे दिल के अंदर तुम हो इतना काफी है। मैं हूँ हंस सरोवर तुम हो इतना काफी है।। ताजमहल बनवाने वाली बातें ठीक नहीं इक घर हो ,उस घर में तुम हो इतना काफी है।। हम पे जान न देना हमपे मर मिट मत जाना हम तुमसे हैं हमसे तुम हो इतना काफी है।। सुंदर तन पर रीझे तो कितने दिन रीझेंगे हा मन से भी सुन्दर तुम हो इतना काफी है।। क्या मतलब है हमसे कोई कितना सुन्दर है मेरी ख़ातिर बेहतर तुम हो इतना काफी है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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तन पर थकन लपेटें कितना। कैसे जग का मेला भाये सभी अज़नबी सभी पराये ख़ुद से ख़ुद ही भेटें कितना।।तन पर ..... मन जैसे टूटा सा दर्पण हर आकर्षण बना विकर्षण बिखरे भाव समेटें कितना।।तन पर..... जन्म मरण के गोरखधन्धे जग बौराया हम भी अंधे क्या जागे हम लेटें कितना।।तन पर.... एक हृदय है एक गेह है अगणित माया मोह नेह है पाया कितना बांटें कितना।। तन पर... सुरेशसाहनी, कानपुर
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वो हम पे ज़ुल्म ढाने पर अड़े हैं। तो हम भी जां लुटाने पर अड़े हैं ।। हम उनके इश्क़ में डूबे हैं लेकिन वो हमको आज़माने पर अड़े हैं।। है ज़िद अपनी जिन्हें हम याद आये वही हमको भुलाने पर अड़े हैं।। हम उनको कैफ़ देना चाहते थे वही हमको रुलाने पर अड़े हैं।। उन्हें कह दो कि अब तो बाज आयें अभी भी दिल दुखाने पर अड़े है।। ज़माना जा चुका है हद से आगे हमीं रिश्ते निभाने पर अड़े हैं।।
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अंग्रेजों से जीत गए थे इन से जीत न पाओगे तुम। गांधी जन्म न लेना वरना फिर से मारे जाओगे तुम।। अंग्रेजों के राजतंत्र में प्रजातंत्र का मान बड़ा था नैतिकता और सदाचार के प्रति उनमें सम्मान बड़ा था किन्तु आज अपनों के आगे अडवाणी बन जाओगे तुम।। कैसे मन जीतोगे इनके ये हिटलर के रक्तबीज हैं स्वस्थ भले दिखते हैं तन से मन से ये हिंसक मरीज हैं तुम्हें मारकर मांस तुम्हारा देंगे कैसे खाओगे तुम।। आज गोडसे के मंदिर हैं गली गली में शहर शहर में नित नित गांधी मारे जाते गांव गांव में नगर नगर में अपने आगे अगणित गांधी मरते देख न पाओगे तुम।। मूर्ति टूट कर जुड़ सकती है मन को जोड़ न पाओगे तुम।। सुरेश साहनी, कानपुर
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ये नॉन टेक्निकल लोग ****************** कल अमर उजाला द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन में श्रोता के रूप में मैं भी आमंत्रित था। हाल में सबसे सबसे पीछे बैठकर शहर के उदीयमान राष्ट्रीय हास्य कवि अंशुमान दीक्षित और हास्य के प्रबल हस्ताक्षर और अंशुमान जी के अनुसार #प्रेमचतुर्दशी पर कवि सम्मेलन के संयोजक श्री Amit Omar के साथ कार्यक्रम का आनन्द लिया।इस कार्यक्रम में मेरी उपस्थिति में भीमकाय शम्भू शिखर जी लेकर अखिलेश द्विवेदी जैसे कृशकाय द्विज भी काव्यपाठ के लिए मंच पर आसीन होकर गौरवान्वित थे। कार्यक्रम का संचालन सुप्रसिद्ध शायर कलीम कैसर साहब कर रहे थे।कार्यक्रम अब पूरे शबाब पर था।अखिलेश द्विवेदी जी का काव्य पाठ समाप्त होते होते हाल में गर्मी आ गयी। मैं भी जलपान के लिए भवन के बाहर अपने वाहन के करीब आया।क्योंकि बनारसी चाय की दुकान वहाँ से खासा दूर है। पर यह क्या ! मैंने चावी लगाई किन्तु गाड़ी का हैंडल नहीं खुला।मुझे लगा कि कहीं मैं किसी दूसरे की स्कूटी तो नहीं ट्राई कर रहा हूँ।मैंने एक बार आश्वस्ति के लिए अपनी गाड़ी को पुनः निहारा।यह मेरी स्कू...
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तुम्हीं कहो हम किसे भुला दें किसको याद करें। किसे त्याग दें किस से मिलने की फरियाद करें।। कितने अपने रहे उम्र भर बेगानों से बढ़कर वहीं रहे कितने बेगाने उन अपनों से बेहतर वक़्त तल्खियों ऱंज़ों में कितना बर्बाद करें।। तुम्ही कहो हम किसे....... वक़्त ख़राब रहा तो कितने अपने हुए पराए थे ऐसे बेगाने भी जो काम समय पर आए क्यों रुसवा हों किसे उजागर हम रूदाद करें।। तुम्ही कहो हम किसे भुला दें....... अच्छा समय रहा तो अपने घूमे पीछे आगे साथ साथ चलना छोड़ो वे कदम मिलाकर भागे क्या हम खुद पर हँसें खिलखियाएँ दिल शाद करें।। तुम्हीं कहो हम किसे भुला दें.....
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कभी हदों ने कभी दायरों ने घेर लिया। उन्हें उम्मीद हमें आसरों ने घेर लिया।। नज़र मिली है अभी है कोताह ये मसला न जाने कैसे इसे तज़किरों ने घेर लिया।। अभी थी बादे-नसीमे-सहरे- इश्क़ मिली अभी से नफरतों के कोहरों ने घेर लिया।। अभी असासे की शिनाख़्त भी न हो पाई अभी से बाँटने के मशवरों ने घेर लिया।। जिये तो उम्र परेशानियों से रब्त रही मरे तो जैसे लगा मकबरों ने घेर लिया।। ग़ज़ल अदीब की बाज़ार भी नहीं पहुँची न जाने कैसे इसे तबसिरों ने घेर लिया।। सुरेश साहनी, अदीब कानपुर बादे-नसीमे-सहरे- इश्क़ /प्यार के सुबह की पुरवाई असासे- मृतक की संपत्ति, विरासत तब्सिरा / प्रकाश डालना ,आलोचना तज़किरा/ चर्चा मशवरा/ प्रस्ताव, सलाह
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प्रजा से तुनकबाजियाँ चल रही हैं। फ़क़त तन्त्र की लाठियां चल रही हैं।। कोई दीप सिद्धू है उनका जमूरा उसी की कलाबाजियां चल रही हैं।। सवा गज जुबाँ पर कई मन की बातें कि हाकिम की मनमर्जियाँ चल रही हैं।। वतन से मुहब्बत विरासत है अपनी सियासत में खुदगरज़ियाँ चल रही हैं।। दिए जाओ तुम इम्तेहां कुछ न होगा वहाँ नाम की पर्चियाँ चल रही हैं।। यहाँ ज़ाम के दौर चलते रहेंगे वहाँ लेह में गोलियां चल रही हैं।। वहां कौन सुनता है फरियाद सच की जहाँ झूठी लफ़्फ़ाजियाँ चल रही हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
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क्या नहीं था नहीं हुआ क्या क्या। आदमी जानवर ख़ुदा क्या क्या।। फूल फल और हरी भरी दुनिया इस कुदूरत ने भी दिया क्या क्या।। जिस्म-फानी है था पता फिर भी हम रहे पालते अना क्या क्या।। हम ही लुट गये हमी हुए रुसवा क्या बताएं मिली सज़ा क्या क्या।। एक मिट्टी को कर दिया मिट्टी क्या दिया राम ने लिया क्या क्या।। मय है जन्नत में और हूरें भी मैक़दे में है फिर बुरा क्या क्या।। हाथ खाली हैं वक़्ते-रुखसत जब फिर ज़हां से हमें मिला क्या क्या।। सुरेश साहनी, कानपुर
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चलो माना मुहब्बत है न हो तो। अभी मुझसे ज़रूरत है न हो तो।। बदल जाती है गर्दिश में निगाहें जवानी की ये दौलत है न हो तो।। यकीनन क़ाबिले-तारीफ हो तुम तुम्हें सुनने की आदत है न हो तो।। कोई भी आपका दुश्मन न होगा ज़माने को शिकायत है न हो तो।। हमारा प्यार भी परवान चढ़ ले जो उनके दिल मे नफरत है न हो तो।। सुरेशसाहनी
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चलो बाहर टहल कर देखते हैं। ज़रा इक मन बदल कर देखते हैं।। सुना मौसम गुलाबी हो गया है चलो हम भी मचल कर देखते हैं।। तुम्हारे प्यार में है दर्द पिन्हा इसे पहलू बदल कर देखते हैं।। तुम्हारा साथ पाकर लड़खड़ाए तुम्हारे बिन सम्हल कर देखते हैं।। मुहब्बत की डगर यूँ क्या बतायें क़दम कुछ साथ चलकर देखते हैं।। हमें शायद सरापा नूर कर दे तेरे साँचे में ढल कर देखते हैं ।। सुरेशसाहनी
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जितना संसार समझ आया । जीवन दिन चार समझ आया।। जब उम्र हमारी गुज़र गयी तब आकर प्यार समझ आया।। उस ना में था इक़रार छुपा अब जाकर यार समझ आया।। जब कर ली दुनिया मुट्ठी में तब जग विस्तार समझ आया।। घर आँगन अपना बँटने पर उठना दीवार समझ आया।। सुख में तो दुनिया अपनी थी दुख में परिवार समझ आया।। वो हम में है और बाहर भी कब पारावर समझ आया।। उस निराकार को क्या समझे कब वह साकार समझ आया।। है प्रेम जगत में सार मगर क्या सचमुच सार समझ आया।। सुरेश साहनी,कानपुर
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हौसले देख आसमान नहीं। इतनी कम भी मेरी उड़ान नहीं।। कुछ ख़ुदा ही निगाहबान नही। वरना इतना बड़ा जहान नहीं।। क्या ज़रूरत मुझे वसीले की है ख़ुदा का भी खानदान नहीं।। उस के दैरोहरम बना डाले है अज़ल से जो लामकान नहीं।। खाक़ घबरायें उस के आने से मौत है कोई इम्तेहान नहीं।। अपनी हस्ती से प्यार है मुझको ये सदाक़त कोई गुमान नहीं।। वक़्त आने पे बोलना तय है हूँ तो ख़ामोश बेजुबान नहीं।। सुरेश साहनी , कानपुर 9451545132
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मेरी नई कविता को अपना आशीर्वाद दीजिये। अब तुम्हारे बिन उमर कटती नहीं है। घट रहे हैं दिन उमर कटती नहीं है।। यूँ न झिझको यूँ न शर्माती फिरो यूँ भी मरना है तो उल्फ़त में मरो अब भी है मुमकिन उमर कटती नहीं है।। चाहती हो तुम कहो या ना कहो दर्द है कोई तो हमसे भी कहो एक साथी बिन उमर कटती नहीं है।। सत्य से कब तक कटोगी बावरी ओढ़नी होगी तुम्हे भी चूनरी एक न एक दिन उमर कटती नहीं है।। दिल धड़कता है तुम्हारे वास्ते किसलिए अपने अलग हों रास्ते तारकों को गिन उमर कटती नहीं है।। इस जनम में हम अगर न मिल सकेंगे दस जनम तक हम बने फिरते रहेगे नाग या नागिन उमर कटती नहीं है।।
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मेरी निजताओं को क्यों मंचो पर गाते हो। फिर क्योंकर हमपर अगणित प्रतिबन्ध लगाते हो।। हम जो एक दूसरे के नैनों में बसते हैं हम जो एक दूसरे में ही खोये रहते हैं इन बातों को क्यों चर्चा के विषय बनाते हो।। आखिर हमने प्रेम किया कोई अपराध नहीं अंतरंग बातें हैं अपनी जन संवाद नहीं अंतरंगता को क्यों इश्तेहार बनाते हो।। फिर अपने संबंधों की भी इक मर्यादा है मानवीय है ईश्वरीय है कम या ज्यादा है महफ़िल में क्यों मर्यादा विस्मृत कर जाते हो।। हम को एक दूसरे के दिल में ही रहने दो सम्बन्धों की प्रेम नदी को कलकल बहने दो क्यों तटबन्ध तोड़कर उच्छ्रंखल हो जाते हो।।
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अमर क़िरदार होना चाहता है। वो रूसी ज़ार होना चाहता है।। हमारे मुल्क़ की हालत न पूछो कोई यलगार होना चाहता है।। कोई है चाहता खुद को छिपाना कोई अखबार होना चाहता है।। अगर सचमुच कोई दरवेश है वो तो क्यों सरकार होना चाहता है।। उसे जम्हूरियत से चिढ़ है शायद वो ख़ुद मुख़्तार होना चाहता है।। इधर अकुता गया है आशिक़ी से ये दिल दरबार होना चाहता है।। ज़ेह्न की खिड़कियां खोलो तो देखो ये घर संसार होना चाहता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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अब कहीं दैरो-हरम से दूर चल। हर सियासी पेंचों-ख़म से दूर चल।। घटती बढ़ती उलझनें सुलझी हैं कब जिंदगी इस ज़ेरो-बम से दूर चल।। कलम खेमों में न हो जायें क़लम हो न जाए सच कलम से दूर चल।। कौन अब आवाज़ देगा बेवजह चल दिया तो हर वहम से दूर चल।। अब तो खलवत से तनिक बाहर निकल अब तो एहसासे-अदम से दूर चल।। चल कि अब हर इल्तिज़ा से दूर चल चल कि अब रंज़ो-अलम से दूर चल सुरेशसाहनी
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कितना बिगड़े कितना सँवरे। कब सुधरे थे हम कब सुधरे।। चार दिनों में क्या क्या करते आये खाये सोये गुज़रे।। राहें भी तो थक जाती हैं तकते तकते पसरे पसरे।। पते ठिकाने अब होते हैं। तब थे टोला,पूरे, मजरे।। आने वाले कल के रिश्ते छूटे तो शायद ही अखरे।। एक समय जोड़े जाते थे रिश्ते टूटे भूले बिसरे ।। सुरेश साहनी,कानपुर
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दोस्ती थी ये बात भी सच है। दुश्मनी है ये बात भी सच है।। लोग कितने सवाल करते हैं जैसे मैं किसके साथ दिखता हूँ किससे मिलता हूँ या कि जुलता हूँ आजकल वो इधर नहीं आता साथ तेरे नज़र नहीं आता तुझको ये ज़िन्दगी नहीं खलती क्या तुझे ये कमी नहीं खलती कुछ कमी थी ये बात भी सच है हाँ कमी है ये बात भी सच है।। और तुम कबसे जानते हो उसे और तुम कितना जानते हो उसे दूर से है कि कुछ करीब से है कौन है किसके घर की नेमत है धनी घर से है या गरीब से है तेरी आँखों मे ये नमी क्यों है हरकतों से वो अजनबी क्यों है अजनबी थे ये बात भी सच है अजनबी है ये बात भी सच है।।
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जान तुम्हें भी जान लिया बस । दिल दे कर एहसान लिया बस।। क्या तुम ख़त पढ़ना चाहोगे मैंने भी इमकान लिया बस।। तुम ख़ुद में खोए खोये थे इस दिल ने पहचान लिया बस।। तुम कैसे हो ये तुम जानो मैंने अपना मान लिया बस।। राह कठिन है प्रेम नगर की मैंने था आसान लिया बस।। उस बुत की लज़्ज़त तो देखो इक मेरा ईमान लिया बस।। तुम मेरा सब कुछ ले बैठे मैंने इक उनवान लिया बस।। सुरेश साहनी, कानपुर
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नयन हैं या कि मधुशाले समझ मे कुछ नहीं आता। भ्रमित हैं तेरे मतवाले समझ मे कुछ नहीं आता।। इधर दैरो-हरम छूटे उधर वो मयकदा छूटा कहाँ जाएं वजू वाले समझ मे कुछ नहीं आता।। जो शीशा बन छलकते हैं तुम्हारे होठ ही है या शराबों से भरे प्याले समझ मे कुछ नहीं आता।। जो तुमने फेर ली नज़रें करेंगे याचना भंवरे कोई डेरा कहाँ डाले समझ मे कुछ नहीं आता।। सुरेश साहनी।।
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क्या पत्थर से यारी रखते। अपना ही दिल भारी रखते।। हम पहले से नाजुक दिल हैं क्यों कर इक बीमारी रखते।। बेशक़ अपने दिल की हसरत हम क़वारी की क़वारी रखते।। उसने रिश्ते तोड़ लिये थे हम भी कब तक ज़ारी रखते।। आख़िर आ ही पहुँची यादें कितना चारदीवारी रखते।। तुम मिलते तो ज़ख़्म हृदय के आगे बारी बारी रखते।। दिल कोई जागीर नहीं है जिस पर मनसबदारी रखते।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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देवता जब भी मुझको बताया गया। मेरे इंसां को पत्थर बनाया गया।। एक बुत सा तराशा गया फिर मुझे ज़ख़्म दे दे के मरहम लगाया गया।। फूल जैसा उठाया गया जब मुझे मेरा क़िरदार क्योंकर गिराया गया।। बिक गया आज आते ही बाज़ार में मुझको बेमोल कहके था लाया गया।। मुझको रुसवा किया गोया नमरूद था कह के मंसूर सूली चढ़ाया गया।। अपने जीते जी बेघर रहा मैं मगर मेरे मरने प घर भी दिलाया गया।। अब न ताब है न सेहरे की इतनी तलब क्यों अदीब आज इतना सजाया गया।। सुरेश साहनी, `अदीब" कानपुर 9451545132
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महाभारत काल के निषाद भी आज के निषादों की तरह आपस में झूठे अहं में लड़े और राजसी वैभव से च्युत हुए। मुझे लगता है कि निषादराज जिनमें स्वयं प्रभु श्री राम के ईश्वर स्वरूप को पहचानने की क्षमता थी।इसके साथ ही उनमें शकुन-अपशकुन विचारने की क्षमता थी । ऐसे दिव्य पुरुष जिन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम के एकमात्र मित्र होने का सम्मान मिला हो, ऐसे महान व्यक्तित्व के वंशज भी इसी अहंकार कर्क-प्रवृत्ति के चलते पतनोन्मुख हुए होंगे। काश इस समाज के लोग अन्वय छोड़कर #समन्वय के गुण अपना लेते।
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किसने बोला है ये कि चाह मुझे। रस्म की हद में तो निबाह मुझे।। दुश्मनों की न कर पज़ीराई फिर है तस्लीम मत सराह मुझे।। ज़िन्दगी नर्क है जो तेरे बिन आ के करने दे इक गुनाह मुझे।। रख ले अपने लिए हसीं महफ़िल सौंप दे मेरी खानकाह मुझे।। तेरा आशिक़ हूँ तुझको हक़ भी है अपने हाथों से कर तबाह मुझे।। सुरेश साहनी, कानपुर
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पहले सोचा प्यार लिखूँगा फिर मैंने कुछ शब्द लिख दिए कागज पर कुछ आड़े तिरछे जाने कैसे उस कागज के शब्द शब्द अदृश्य हो गए कभी कभी ऐसा लगता है मैं बीते युग का नायक हूँ इस युग के व्यवहार जगत के पैमानों पर नालायक हूँ क्या अब सचमुच इतनी ज्यादा भौतिकता हावी है सब पर जहाँ भावनाओं का जैसे रत्ती भर भी मोल नहीं हैं मन से मन के तार मिला दे ऐसे सुरभित बोल नहीं हैं बोल नहीं हैं दुखती रग पर मरहम जैसे लगने वाले हैं भी तो वह तीरों जैसे मन को आहत करने वाले गोली जैसे दगने वाले या फिर इतनी मधुर चाशनी में डूबे अनुभव मिलते हैं जिनको सुनकर डर लगता है बहुत मिले हैं ठगने वाले अब यह सोच सिहर उठता हूँ यूँ भी अंदर तक टूटा हूँ अबकी बार बिखर ना जाऊं फिर भी मैं कोशिश करता हूँ इस मन के कोरे कागज पर सर्दी के सूखे अन्तस् पर इंद्रधनुष के रंग चुराकर फागुन की बौछार लिखूंगा फिर तुम धानी धानी होगी इतना सारा प्यार लिखूंगा सम्हल गया तो यार लिखूंगा एक नहीं सौ बार लिखूंगा........
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तुम्हें होगा मुहब्बत का गुमाँ पर। हवस के हैं बहुत भूखे यहाँ पर।। बुलाया था तुम्हें पहले भी मैंने तुम्हारा ध्यान था अहले-ज़हां पर।। अभी भी मैं वहीं पर मुंतज़िर हूँ मुझे तुम छोड़ आये थे जहां पर।। पहुँच अपनी ज़मीं वालों तलक थी तुम्हारी बैठकें थी आसमाँ पर।। भटक जाती हैं क़ौमें मरहलों में नज़र रखना अमीरे-कारवाँ पर।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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फेसबुकिया कवियों के स्तर को लेकर बहुत सारी समीक्षाएं ,आलोचनाएँ पढ़ने को मिलती है ।कई मित्र तो आग्रह से टिप्पणी मांगते है ।मैं इसे साहित्यिक विकास का एक चरण मानता हूँ ।हो सकता है की कविता के व्याकरण के पैमानों को ये कवितायेँ न पूरी करती हों ,किन्तु उनका भाव-सम्प्रेषण सफल होता है ।जो वह कहना चाहते है वह समझने योग्य और दिल पर असर डालने में सफल होता है ।ऐसी ही एक कविता प्रस्तुत है ,- गुड़ फूस और घास । यही है च्यवनप्राश ।। अन्ना का प्रयास । बदल दो इतिहास ।। खरगोश करे राज , और शेर खाए घास ।। हमारी अम्मा अम्मा , उनकी अम्मा सास ।।--खानदानी कवि छपास दीवाना
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मेरे आगोश में आकर तो देखो। कभी मुझसे मुझे पाकर तो देखो।। अदूँ होकर ज़हां अपना लगेगा मुहब्बत पे यक़ीं लाकर तो देखो।। ये दुनिया इतनी अच्छी भी नहीं है मेरे दिल से ज़रा जाकर तो देखो।। मुहब्बत के ख़ज़ानों से भरे हैं मेरे खाते मेरे लॉकर तो देखो।। जुबां शीरी शहद से होठ होंगे मुझे गीतों में तुम गाकर तो देखो।। मुहब्बत का समर मीठा तो होगा तनिक कड़वा भी है खाकर तो देखो।। तुम्हारे झूठ पर भी मर मिटेगा किसी मुफ़लिस को फुसला कर तो देखो।। सुरेश साहनी, अदीब कानपुर
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इस सफ़र की इन्तेहाँ मत पूछिये। कौन जायेगा कहाँ मत पूछिए।। हो सके तो दर्द मेरा बाँटिये हमसे जख़्मों के निशाँ मत पूछिए।। जब की बेघर हो गए हम जिस्म से लामकाँ से अब मकाँ मत पूछिए।। बेखबर हैं बेसरो-सामा है हम बेवजह हाले-जहाँ मत पूछिये।। दार पे जिसकी वजह से चढ़ गए अब वो तफ़सील-ए-बयाँ मत पूछिए।। साफ़ दिखता है मेरा घर जल गया हर तरफ क्यों है धुआं मत पूछिए।।
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उस पार अगर जीवन है तो चलते हैं प्रभु का मन है तो...उस हम किस से नेह जगाते हैं जब नश्वर सारी बातें हैं कच्चे घट सा यह तन है तो...उस ये जीवन तब तक जीवन है जब तक तन में स्पंदन है यदि जीवन भी बंधन है तो...उस सांसे कब साथ निभाती हैं हाँ मृत्यु हमें कब भाती है प्रियतम सा आलिंगन है तो...उस ये काया कितनी जीर्ण हुयी इसकी समयावधि पूर्ण हुयी वस्त्रों का परिवर्तन है तो.... चलते हैं प्रभु का मन है तो उस पार अगर जीवन है तो
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सिर्फ़ दुनिया नहीं मुक़ाबिल है। मेरे अन्दर भी एक क़ाबिल है।। मुझको बे-जिस्म क्या करेगा वो हाँ मगर साजिशों में शामिल है।। नेमतें जब मिली तो खलवत में बाईस-ए-ज़िल्लतें तो महफ़िल है।। अब मैं शिकवे गिले नहीं करता ये मेरी ज़िंदगी का हासिल है।। सुबह दैरो-हरम ही मंजिल है शाम को मयकदा ही मंजिल है।। तू न ऐसे नज़र झुकाया कर सब कहेंगे क़ि तूही क़ातिल है।।
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क्या सच है अनुमान लगा कर देखो। इक दीवारों से कान लगा कर देखो।। कमियां तो हम में भी हैं तुम में भी अपने अंदर ध्यान लगा कर देखो।। डर में ताकत भी है काबिलियत भी केवल कटि में म्यान लगा कर देखो।। एक मसीहा मैं भी हो सकता हूँ बस मुझमें ईमान लगाकर देखो।। तुमसे डरकर मौत पनाहें मांगेगी कोशिश में जी जान लगा कर देखो।।
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खुश हैं वो सर के निगूँ होने पर। मेरे जज़्बात का खूं होने पर।। फायदा क्या जो मेहरबां होंगे खत्म सब जोशो-जुनूँ होने पर।। जो दिखाते हैं कि तस्कीन में हैं खुश तो दिखते वो सुकूँ होने पर।। सुन के अगियार-ओ-हबीब हँसते हैं हादसा किससे कहूँ होने पर।। हमने हर बात छुपाई लेकिन खुल गयी ज़ख्म नमू होने पर।। कौन से दर्द नहीं बोलेंगे दर्द कैसे न कहूँ होने पर।। सरनिगूँ/ पराजय जोश-ओ-जुनूँ / उत्साह और उन्माद नमू/प्रगटीकरण सुकूँ/ सन्तुष्टि अगियार/ दूसरे लोग , विरोधी हबीब/अपने ,प्रिय सुरेश साहनी, कानपुर
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कभी बातिल से डरना भी नहीं है। कभी सच से मुकरना भी नहीं है।। चटकना या बिखरना भी नहीं है। मुझे सजना सँवरना भी नहीं है।। मरहले सायबाँ तुमको मुबारक मेरी फ़ितरत ठहरना भी नहीं है।। समन्दर है मिरा क़िरदार गोया किनारों से मगर ना भी नहीं है।। कमी तुममें बताओ क्या बतायें तुम्हें शायद सुधरना भी नहीं है।। मुहब्बत है तो कोई शर्त छोड़ो कोई वरना वगरना भी नहीं है।। तुम्हारा घर नहीं है जिस गली में उधर से तो गुज़रना भी नहीं है।। जहाँ तक हुस्न फानी है ये सच है मुहब्बत को तो मरना भी नहीं है।। अगर डरना है तो डरना ख़ुदा से ज़हां वालों से डरना भी नहीं है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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क्या ज़रूरी है हर घड़ी मिलना दूर रहकर भी प्यार होता है।। वो खलिश मिल के मिल नहीं सकती जिसके होते ही प्यार होता है।। तुम मेरे दिल से खेल सकती हो पर ये दिल खेंलने की चीज़ नहीं धीरे धीरे समझ ही जाओगी होते होते ही प्यार होता है।। जब समझना था तब नहीं समझे प्यार कितनी हसीन नेमत है क्या हुआ है तुझे दिले-नादाँ न समझना भी प्यार होता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कुछ विषय ऐसे होते हैं जिन पर लिखने की इच्छा होते हुए भी नहीं लिखना ज्यादा श्रेयस्कर होता है। गुनगुन को खारिज़ करना सामाजिक अक्लमंदी तो नहीं कही जाएगी।क्योंकि मैं कुछ ऐसे मिलने वाले भले लोगों को जानता हूँ जो समाज मे जिस रूप में प्रतिष्ठापित हैं उन की वास्तविकता उससे ठीक विपरीत है।एक बड़े धर्मज्ञ के साथ मैं उनके दो एक यजमानों के यहां गया भी हूँ।मैंने अनुभव किया कि वे यजमान के घर की बच्चियों के प्रति कुछ अधिक स्नेहिल हो उठते थे।यहाँ तक कि वे बच्चे कसमसा कर दूर भागते थे।कभी कभी वे बच्चों को अजीब ढंग से भींच लेते थे।कुछ देर बाद जैसे वे शिथिल होकर बच्चों को छोड़ देते थे। यद्यपि वे तुरन्त उसके बाद भोजन आदि की व्यवस्था करने को कहकर शौचालय की दिशा में बढ़ जाते थे। सम्प्रति वे सम्मानित कथावाचक हैं। किंतु यह लेख लिखते हुए उनका स्मरण क्यों आया यह भी विचारणीय है। किसी ने कहा भी है- "जड़े फ्रेम में टँगे हुए हैं ब्रह्मचर्य के कड़े नियम उसी फ्रेम के पीछे चिड़िया गर्भवती हो जाती है।।" आज हम गुनगुन को ख़ारिज कर सकते हैं।जाने अनजाने वह अरुंधति रॉय की भांति स्टारडम में आ गयी है।हो सकता ...
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आओ दिल पर कोई किताब लिखें। दिल की दुनिया मे इन्किलाब लिखें।। इश्क़ पर हुस्न कुछ सवाल करे हुस्न को इश्क़ के जवाब लिखें।। खुशनुमा कल हो तर्जुमा जिसका आओ ऐसा भी एक ख़्वाब लिखें।। इसमें घाटा नफा नहीं चलता प्यार का और क्या हिसाब लिखें।। दिल पे चलता है कोई जोर कहाँ दिल्लगी कैसे इंतिख़ाब लिखें।। उनकी तस्वीर भी हैं यादें भी कैसे खाना-ए-दिल ख़राब लिखें।। सुरेश साहनी, कानपुर
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हम जब प्रेम कहानी लिखते। बेशक़ तुमको रानी लिखते।। कुछ बातें अनजानी होतीं कुछ जानी पहचानी लिखते।। हाँ दाने को दाना लिखते फिर पानी को पानी लिखते।। पर जब बात तुम्हारी आती हम तुमको लासानी लिखते।। बेशक़ दीवाने हम ही थे पर तुमको दीवानी लिखते।। मन अपना फागुन हो जाता रंग तुम्हारा धानी लिखते।। सुरेश साहनी, कानपुर
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यार तू कैसी बात करता है। इश्क़ करके कोई सँवरता है।। ज़िन्दगी दिन ब दिन गुजरती है आदमी दिन ब दिन बिखरता है।। चढ़ गया है निगाह में ऐसे ज्यूँ नज़र से कोई उतरता है।। इश्क़ कितना बड़ा है कुज़ागर हुस्न क्यों दिन ब दिन निखरता है।। इसके पहले कि आसमां बांटे वो परिंदों के पर कतरता है।। उसकी जिंदादिली को क्या कहिए मेरी सादादिली पे मरता है।। क्या शरीयत है कुछ शरीफों पर कौन दूजा खुदा से डरता है।। सुरेश साहनी कानपुर
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इश्क़ की अलगनी गज़ब की है। आज कुछ चाँदनी गज़ब की है।। नूर मेहमाँ है आज मेरे घर हर तरफ रोशनी गज़ब की है।। आज हैं धड़कने भी द्रुत लय में स्वास की रागिनी गज़ब की है।। एक गुल और चार सू भौंरें हुस्न में चाशनी गजब की है।। इक क़मर की कमर सुभान अल्लाह उस पे ये करधनी गज़ब की है।। उस तरफ है अजब सी ख़ामोशी इस तरफ सनसनी गज़ब की है।। आप पर है मेरी ग़ज़ल यारब कुछ भी कहिए बनी गज़ब की है।। उनकी नज़रें कटार है जैसे शोखियों की अनी गज़ब की है।। कल थी नज़रें झुकी झुकी जिनकी भौह उनकी तनी गज़ब की है।। हुस्न अब जान लेके मानेगा इश्क़ से जो ठनी गज़ब की है।। सुरेश साहनी कानपुर
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मौसम जैसा सब बदल गया। तुम क्या बदले रब बदल गया।। सब स्वप्न सरीखा लगता था जग रंग बिरंगा लगता था सारा जग अपना लगता था इक पल में मनसब बदल गया।। अब लगता है क्यों प्यार किया अपना जीवन बेकार किया ऐसा क्या अंगीकार किया जीवन का मतलब बदल गया।। जो बीत गया कब आता है जो चला गया कब लौटा है मन अब काहे पछताता है जो बदल गया सो बदल गया।। सुरेश साहनी, कानपुर
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हमारा समाज आर्थिक,शैक्षिक, सामाजिक और राजनैतिक अर्थात हर रूप से पिछड़ा समाज है।जबकि समाज उत्थान के लिए लंबे समय से लोग प्रयासरत हैं।मुझे इसका मूल कारण यही जान पड़ता है कि हमारे समाज के अधिकतर अगुआकार समाज के उत्थान से अधिक अपने उत्थान के लिए ही सामाजिक होने का दिखावा करते रहे।अर्थात उनकी हैसियत के अनुसार पद मिलते ही उन्होंने अपने सिद्धांतों की तिलांजलि दे दी। बहुत बढ़े भी तो विधायक-सांसद बनने तक उनके जोश ठंडे हो गये। एक गांव में जहाँ मेरी बराबर आवाजाही बनी रहती थी।वहाँ के प्रधान जी मेरे निकट सम्बन्धी थे। पूरे गोरखपुर मण्डल के स्वजातीय समाज में प्रधान जी का बड़ा नाम था।वे समाज मे फैली कुरीतियों जैसे,नशाखोरी,बालविवाह, दहेज प्रथा, और अशिक्षा आदि पर बोलते थे।उन्होंने अपने छोटे बेटे मुन्नर को भी दहेज़ के ख़िलाफ छोटा सा भाषण सिखा दिया था। एक बार की बात सलेमपुर से कुछ लोग मुन्नर की शादी के सम्बंध में आये हुए थे।सौभाग्य से मैं भी वहीं था। प्रधान जी के द्वार पर ही बैठक सजी थी। बात 95 हजार नगद, एक राजदूत मोटरसाइकिल सोना की सीकड़, हाथ घड़ी और रेडियो पर अटक गई थी। लड़की पक्ष मोटरसाइ...
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कोशिशन हमने बात टाली है। क्या करें ज़ीस्त ही बवाली है।। अब वे बेरोक टोक आते हैं हादसों ने जगह बना ली है।। मौत शायद जवाब भी दे दे ज़िन्दगी फितरतन सवाली है।। एक दो हों तो मशविरा लेते दर्द की एक गली बसा ली है।। इश्क़ है लाइलाज़ बीमारी क्या बतायें कि क्या दवा ली है।। मौत पर बस नहीं मेरा वर्ना आपकी कौन बात टाली है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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दूर रहकर जो मुस्कुराते हो। इस तरह से भी तुम सताते हो।। बेनक़ाब यकबयक न हो जाओ क्यों मेरा ताब आज़माते हो।। ये बिगड़ने पे बन न पाएगी तुम जो रह रह मुझे बनाते हो।। उठ गए तो नज़र न आएंगे यूँ जो महफ़िल से तुम उठाते हो।। दिल तुम्हारा ही आशियाना है जिसपे तुम बिजलियां गिराते हो।। हिर्सो-ग़म अपने मुझको दे जाना तुम कहाँ कुछ सम्हाल पाते हो।। कुछ तो सच बोलने की ताब रखो ख़ुद को यदि आइना बताते हो।। जब कि मुकरे हो मेरा दिल लेकर क्यों मेरी जान ले के जाते हो।। गुनगुनाता नहीं अदीब मगर तुम ही होंठों पे होठ लाते हो।। सुरेश साहनी, अदीब कानपुर
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तुमको आते है प्यार के माने। कुछ हमे भी सिखाओ तो जाने।। ऐसे जलवे अगर दिखाओगे मर मिटेंगे शहर के दीवाने।। तुम सरे-वज़्म क्या नजर आये बंद हो गए तमाम मैखाने।। तुम अगर संग हो तो जीवन है तुम नहीं हो राम ही जाने।। हर कोई अपने आप में गुम है भीड़ में कौन किसको पहचाने।। तेरे जैसा नहीं मिला कोई खोज डाले सभी सनमखाने।। हमको मशहूर कर दिया तुमने वरना हम थे शहर में बेगाने।।
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तुम भी कितने बदल गए हो। पहले जैसे कम लगते हो।। शहर क्या गए तुम तो अपनी गांव गली भी भूल गए हो।। कम से कम अपनी बोली में क्षेमकुशल तो ले सकते हो।। मैं भी कहाँ बहक जाता हूँ तुम भी कितने पढ़े लिखे हो।। मैं ठहरा बीते जीवन सा तुम अब आगे निकल चुके हो।। पर मैं राह निहार रहा हूँ देखें कब मिलने आते हो।। मैं यूँ ही बकता रहता हूँ तुम काहे दिल पर लेते हो।।
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वारिसों का किस्मतों का ज़िक्र हो। हासिलों का दौलतों का ज़िक्र हो।। ज़िक्र हो फिर हौसलों के साथ में कोशिशों का मेहनतों का ज़िक्र हो।। तज़किरे हो कुछ तुम्हारे हुस्न के कुछ हमारी उल्फ़तों का ज़िक्र हो।। जब ख़ुदा की रहमतों की बात हो तब कुदरती नेमतों का ज़िक्र हो।। ज़िक्र क्या करना किसी ज़रदार का कुछ फ़क़ीरी अज़्मतों का ज़िक्र हो।। Suresh sahani, adeeb
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हम महफ़िल में बेशक गीत सुनाते हैं। पर हर गीत तुम्हारी ख़ातिर गाते हैं।। मेरे गीतों को सुनना तनहाई में महफ़िल में अल्फ़ाज़ मेरे शर्माते हैं।। हम फलदारों की भी कैसी क़िस्मत है फल देते हैं फिर भी पत्थर खाते हैं।। सफर इश्क़ का जब करना तन्हा करना जज़्ब काफ़िलों में अक्सर लुट जाते हैं।। अब भी जब तब बात तुम्हारी चलती है अब भी हम उन यादों में खो जाते हैं।। इन नम आंखों पर संजीदा मत होना हम अक्सर जज़्बातों में बह जाते हैं।। सुरेशसाहनी
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कौन रखे अब चातक जैसी स्वाति बूंद की प्यास रे। कौन बुलाये अब मेघों को कौन जगाए आस रे। कौन प्रतीक्षा करता है अब शबरी बनकर राम की कहाँ सुदामा रख पाता है आज लगन घनश्याम की छल छंदों से भरे समय मे टूट गए विश्वास रे।। यूँ भी भौंरें कब रुकते हैं एक कली के आँगन में एक अनोखे प्रीतम की छवि कब बसती है नैनन में एक प्रेम हित कितना रोये कौन भरे उच्छवास रे।। सुरेश साहनी, कानपुर
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चिंता रुपी चूहे नींदे कुतर गए। सपने रातों बिना रजाई ठिठुर गए।। ग़म के सागर में हिचकोले खाने थे तुम भी कितनी गहराई में उतर गए।! परी कथाओं के किरदार कहाँ ढूंढें दादा दादी नाना नानी किधर गए।। कितनी मेहनत से चुन चुन कर जोड़े थे गोटी सीपी कंचे सारे बिखर गए।। बचपन जिधर गया मस्ती भी उधर गयी बिगड़ा ताना बाना जब हम सँवर गए।। सुरेश साहनी
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तुम किसी मुक्ति की बात कर रहे थे फिर तुमने आधी दुनिया की आज़ादी पर बात की फिर तुम्हारे तर्क , तर्क पर तर्क जिन पर पसरा मौन तुम्हारे अहम को हक़ देता है कि कह दो तुम्हारे तर्क अकाट्य है तर्क जिनके उत्तर तुम खुद ढूढ़ लेते हो उन तर्को के उत्तर अपरिहार्य भी नहीं फिर तुम्हारा क्या तुम दिए गए उत्तरों को प्रतिवाद भी कह सकते हो मैंने बहुत से फेमिनिस्ट पुरुष देखे हैं वे ऐसे तर्कों से सहानुभूति रखते हैं उन्हें इन तर्कों में ढेर सारी सम्भावनायें दिखती हैं वे तुम्हारे साथ कल के सपने देखने लगते हैं सपने जिनमें उनका अपना उनके घर के किसी कोने में उनके लिए स्वेटर या दस्ताने बुन रहा होता है जब वे तुम्हारे तर्कों को किसी होटल के आकाश में पंख लगा रहे होंगे सच तो है आधी दुनिया की आज़ादी जब तुम अपनी व्यक्तिगत आज़ादी से जोड़ोगे तो वैचारिकता के यथार्थ का आसमान किसी होटल के कमरे की छत से बड़ा कभी नहीं हो पायेगा कभी नहीं हो पायेगा। सुरेश साहनी
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भूल से एक बार कर लेते। काश तुम हमसे प्यार कर लेते।। उम्र अपनी दराज हो जाती हम तेरा इंतज़ार कर लेते।। हंस के सहना तेरी जफ़ाओं को आदतों में शुमार कर लेते।। ये भी शोहरत का इक सबब होता तुम जो आशिक हज़ार कर लेते।। फिर तुम्हें तेग की जरूरत क्या सिर्फ नज़रो के वार कर लेते।। इतने कमजर्फ तो नहीं थे जो दूसरा कोई यार कर लेते।। ये तिज़ारत नहीं मुहब्बत है कैसे दौलत से प्यार कर लेते।। प्यार करते तो आजमाते भी आजमाते तो प्यार कर लेते।। प्यार में डूबने से डरते हो डूब जाते तो पार कर लेते।। जान देने की कोई बात न थी इक जरा एतबार कर लेते।। सुरेश साहनी, अदीब
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जान तुम्हारी आँखों में हैं। रात हमारी आँखों में हैं।। हम भी देखे आखिर क्या क्या ख़्वाब तुम्हारी आँखों में है।। रस के प्याले होठ तुम्हारे और ख़ुमारी आँखों में है।। सब ढूंढ़े हैं महफ़िल महफ़िल किन्तु कटारी आँखों में है।। वो खुश है उसके राजा की शान सवारी आंखों में है।। सपने हैं कुछ जनता के भी पर लाचारी आंखों में है।। अच्छा अब तो सो जाने दो नींद बिचारी आँखों में है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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क्या ज़रूरी है तुम्हें चाहूँ मैं क्या ज़रूरी है तुम्हें प्यार करूँ अब न वो वक्त ,न वो दिल न जुनूँ अब न वो जोश न आलम के कहूँ प्यार तुमसे है किधर जाऊं मैं यार लाज़िम है तुम्हें चाहूँ मैँ एक अरसे से जुदा हैं हम तुम बाद उसके भी जिये जाते हैं तेरी आँखों से पिये थे जो कभी अब तेरे ग़म में पिये जाते हैं अब न आवाज कोई दे मुझको अब न पीछे से पुकारे कोई अपने उजड़े हुए हालात से यकसां हूँ मैं अब परिशां मेरी ज़ुल्फ़ें न सँवारे कोई सुरेश साहनी, अदीब
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तिश्नालब यूँ भी सहम उठते हैं। तेरे सागर के जो ख़म उठते हैं।। इक सुलगती हुई चिंगारी से ये अंधेरे क्यों सहम उठते हैं।। मर्गजां हूँ मैं पड़ा रहने दो मेरे उठने पे अलम उठते हैं।। तुम मेरे ख़्वाब में कब आये हो फिर क्यों होने के वहम उठते हैं।। अपनी नज़रें यूँ उठाया न करो हर तरफ शोरे- रहम उठते हैं।। क्या रहेंगे तेरी महफ़िल में अदीब जब कि पत्थर के सनम उठते हैं।। इश्क़ उस हद्दे-जुनूँ पर है अब पर्दा उठता है कि हम उठते हैं।। सुरेश साहनी"अदीब, कानपुर
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कितने ढके पुते चेहरे हैं अन्दर कुछ है बाहर कुछ। भावों पर छल के पहरे हैं अन्दर कुछ है बाहर कुछ।। ऊपर से ये धवल वसन हैं अंदर से ये काले मन हैं कृत्य कपट जायज़ ठहराते कह नवयुग के यही चलन हैं हर चेहरे में दस चेहरे हैं अंदर कुछ है बाहर कुछ।। क्या कहकर हैं आते चेहरे मन में घर कर जाते चेहरे फिर अपनों को अपने घर से बेघर हैं करवाते चेहरे ये वो ही भोले चेहरे हैं अंदर कुछ है बाहर कुछ।। सुरेश साहनी,कानपुर
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सौ क्या दस फीसदी नहीं है। ये वो गंगा नदी नहीं है।। सचमुच गंगा साफ हो गयी अब नाला है नदी नहीं है।। हँस लो मां की दीन दशा पर यह सच है गुदगुदी नहीं है।। गंगा है युग युग की गाथा कोई इक दो सदी नहीं है।। आज पावनी पतित बनी क्यों यह कुछ कम त्रासदी नहीं है।। आज बचा लो एक सभ्यता गंगा केवल नदी नही है।। गौरव गाथा है सदियों की यह फिल्मी कॉमडी नहीं है।। सुरेश साहनी
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हम ख़ुद को कहां किसकी वफाओं में तलाशें। बेहतर है बुजुर्गों की दुआओं में तलाशें।। मग़रूर है कोई कोई मशरूफ अना में तस्कीने-ज़िगर किसकी अदाओं में तलाशें।। दुनिया के कारोबार में गुम हो गए हम ही अब ख़ुद को कहाँ जाके खलाओं में तलाशें।। महताब की किरनों से जली ज़ीस्त का मरहम हम किसलिये सूरज की सुआओं में तलाशें।। इंसान के इंसान बने रहने की ख़ातिर हम कितने ख़ुदा इतने ख़ुदाओं में तलाशें।। तुम छोड़ के चल दोगे किसी रोज हमें भी तो हम भी कोई दर कहीं गांवों में तलाशें।। सुरेश साहनी, कानपुर
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ये सच है ये वो सहर नहीं है। सुआओं में वो असर नहीं है।। ये वो अंधेरी है रात जिनमें कहीं भी दिन दोपहर नहीं है।। कहाँ से दहकां लड़ेंगे आख़िर जिगर तो है सिर्फ ज़र नहीं है।। कहाँ गिरायेगा बर्क़ जालिम हमारा जब दैरो-दर नहीं है।। ये मत समझना मक़ाम पा के कि इस के आगे सफ़र नहीं है।। न काम आएगी तेग तेरी हमारे सानों पे सर नही है।। ज़मीर और ऐसी सल्तनत का बिका तो है बस ख़बर नहीं है।। तुम्हें चिरागों की फ़िक्र है कब हमें भी आँधी का डर नहीं है।। सुरेश साहनी , कानपुर
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खूब इलज़ाम लगाये हमपर। क्या कभी देखा है हमको आकर।। बोलते हैं सभी इंशा -अल्लाह और एतबार नहीं रत्तीभर।। जिनको इस्लाम पे एतबार नहीं कौन समझायेगा उनको जाकर।। वो जो फैलाते हैं दहशतगर्दी सिर्फ इब्लीस के हैं लख्ते-जिग़र।। वो मुसलमां नहीं हिन्दू भी नहीं कोई आतंकी कोई दहशतगर।। पूरी दुनिया मेरे अल्लाह की है पूरी दुनिया है मेरे राम का घर।। सुरेश साहनी अदीब
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मैं किसी धनवान का बेटा न था। इस कदर फिर भी गया गुजरा न था।। तेरा ग़म यादें तेरी औ दर्दे-दिल मैं किसी सूरत कभी तन्हा न था।। मुझको दुनिया की न थी परवाह पर तुम बदल जाओगे ये सोचा न था।। उनका गुस्सा देख कर हैरत हुयी चाँद को जलते कभी देखा न था।। फेर कर मुंह चल दिए थे किसलिए दिल के बदले मैंने कुछ माँगा न था।। प्यार में सब हारना भी जीत है ये सबक स्कूल में सीखा न था।। सुरेश साहनी, अदीब कानपुर
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बसा लो घर बना लो जिंदगानी। अधूरी क्यों रहे कोई कहानी।। गयी बातों में क्यों उलझे हुए हो उन्ही बीते पलों में जी रहे हो बदल डालो हुयी चादर पुरानी।। बसा लो घर.. नियति का खेल था हम मिल न पाये समय प्रतिकूल था हम मिल न पाये घडी बीती हुयी अब फिर न आनी।।बसा लो घर... अगर भटकोगे हम बेचैन होंगे तेरे आंसू हमारे नैन होंगे धरा पकड़े उड़ानें आसमानी।।बसा लो घर
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समय साथ लेकर चलता है यादों की बन्दूक। फिर मन को देता रहता है समय समय पर हूक।। टुकड़े टुकड़े दिन बीता करता है तन घट शनैः शनैः रीता करता है हम अपना सब साथ समय के हारे समय साथ रहकर जीता करता है किरचे किरचे ख़्वाब बताते एक हमारी चूक।। आज लब्धियाँ हैं केवल बचपन की माँ के आंचल की पितु के आंगन की हम उस क्षण को क्या भूलें क्या कोसें जिस क्षण राह पकड़ ली थी यौवन की उसी भूल ने आज हृदय के कर डाले सौ टूक।। सुरेशसाहनी कानपुर
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हर घड़ी आसमां में रहते हो। यार तुम किस गुमां में रहते हो।। मछलियां मछलियां भी खाती हैं तुम भी आबे-रवां में रहते हो।। एक दिन तो ज़मीं पे लेटोगे लाख महंगे मकाँ में रहते हो।। सोचता हूँ तुम्हें न याद करूँ रोज तुम ही ज़ुबाँ में रहते हो।। सोच इतनी गिरी हुई क्यों है तुम तो कोहे- गिरां में रहते हो।। खुश हो वहशत-ओ-ज़ुल्म से बेशक़ सबकी आहो- फुगां में रहते हो।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कोई जब तुझसे प्यार करता है। ग़ैर से क्यूँ क़रार करता है।। जिससे चाहे निभा निभा लेकिन कोई तो ऐतबार करता है।। मौत का एक दिन मुअय्यन है रात क्यों इंतशार करता है।। झाँक उसकी निगाह में आकर जो तेरा इंतज़ार करता है।। तीर तेरे उसी की जानिब हैं तुझपे जो जाँनिसार करता है।। क्यों न राहत हो जान देने में अपना कोई जो वार करता है।। इश्क़ माने है दिल के बदले दिल क्या ये कोई उधार करता है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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चलो माना कि ये सब चोंचले हैं। बतादो कौन से मज़हब भले हैं।। जो कहते हैं कि दुनिया जोड़ देंगे उन्हीं सब की वज़ह से फासले हैं।। मुहल्ले के शरीफों की न बोलो उन्ही में हद से ज्यादा दोगले हैं।। ज़हाँ बदनाम है उनकी वजह से गला जो काटते मिलकर गले हैं।। जो मुंह पे बोलते हैं दिल की बातें वो अच्छे हैं बुरे हैं या भले हैं।। जो ऊँचे लोग हैं उनसे तो अच्छे मुहल्लों के हमारे मनचले हैं।। अभी भी प्यार बाकी हैं ज़हाँ में अभी भी लोग कितने बावले हैं।। सुरेश साहनी
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प्रजा प्रजा जब नहीं रहेगी क्या होगा ऐसे दिन लाकर। जब जनता सरकार बनेगी कौन रहेगा किसका चाकर।। ऐसे सपने दिखा दिखाकर तुमने सपने ही लूटे हैं। तुम्हें पता है ऐसे सारे - के सारे सपने झूठे हैं।। अपने के द्वारा अपनों पर हुक्म चलाना कैसा होगा। मज़दूरों का मजदूरों पर शासन करना कैसा होगा।। आगे चलकर फिर से शोषित शोषक वाली स्थिति होगी। फिर से लेबर अफसर नौकर- मालिक वाली स्थिति होगी।। वर्ग मिटेंगे वर्ग बनेंगे द्वंद सनातन बना रहेगा। मात्र समन्वय की स्थिति से ताना बाना बना रहेगा ।। इक साधारण सा किसान भी सामन्ती मन हो सकता है। और कोई राजा भी मन से साधू सज्जन हो सकता है।।
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दिमाग जाने कहाँ भटकता है दिल भी अपने ख़याल में गुम है नींद मौके के इन्तेज़ार में है कब वो आगोश में ले ले मुझको, शायरी आज ये किस मोड़ पे ले आयी है जिस जगह एक तबस्सुम को भी मोहताज है ज़ीस्त ना लरजते हुए गेसू ना सुलगती सांसे न दहकते हुए गालों की मचलती लाली गुलमोहर हैं तो मगर सुर्ख़ नहीं जैसे बैठे हों कहीं भूख के मारे बच्चे हैं अमलतास के चेहरों प अजब पीलापन बेटियां जैसे कि सहमी सी कहीं बैठी हों और बोसीदनी है भी तो इस अंदाज में है जैसे नाज़ुक सा नर्म जिस्म कोई अपने जख्मों की नुमाइश पर हो ये बहारों का है आलम तो खिज़ा क्या होगी ये अगर ख़्वाबखयाली है जल्दी टूटे और ये सच है तो फिर राम सम्हालो दुनिया दौरे-वहशत से मेरे राम निकालो दुनिया.........
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घर देहरी आंगन ओसारा छूट गया। धीरे धीरे कुनबा सारा छूट गया ।। गोली कंचे कौड़ी सीपी पत्थर तक खुशियों का भरपूर पिटारा छूट गया।। ढलता सूरज और कटारी का पानी सिधरी चमकी साथ तुम्हारा छूट गया।। वीथी पनघट गागर गोरी पनिहारिन नज़रों से क्या क्या नज़्ज़ारा छूट गया।। टेरर ट्रैफिक टेरेस वाले कल्चर में पगडंडी छूटी चौबारा छूट गया।। छूट गया बाबा के घर का दूध दही नाना के घर का हरकारा छूट गया।। हर चूल्हे पर मां सी ममता छूट गयी हर चौके में भाग हमारा छूट गया।। सुरेश साहनी
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लोग कहते हैं तो कहने दीजिये। ख़ुद को अपनी रौ में रहने दीजिए।। काल है निर्बाध सरिता की तरह हाँ समय को स्वतः बहने दीजिये।। औपचारिकताओं में मत बांधिये काल इनसे मुक्त रहने दीजिये।। हर शिकायत वक़्त की दरकार है पर समय को ही उलहने दीजिये।। आत्मा वैसे भी कालातीत है देह ढहती है तो ढहने दीजिये।। तप के कुंदन ही बनेंगे एक दिन दह रही है जीस्त दहने दीजिये।। एकपक्षीय प्रेम का क्या लाभ है कुछ उन्हें भी पीर सहने दीजिये।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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उफ़ ये ठण्डी धूप के दिन आदमी को क्या सुकूँ दें रात भी दहकी हुई ठिठुरन समेटे जिंदगी जैसे जलाकर राख करना चाहती है जेब इतनी ढेर सारी हैं पुरानी जैकेटों में पर सभी ठंडी गुफायें क्या हम अपने मुल्क में हैं!!!! कौन है यह लोग जो फिर लग्जरी इन गाड़ियों से होटलों में , रेस्तरां में जश्न जैसी हरकतों से रात में भी पागलों से शोर करते फिर रहे हैं।। सुरेशसाहनी
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आशिक़ी के अज़ाब तो दे दे। तिशनालब हूँ शराब तो दे दे।। ओ हसीं ख़्वाब बेचने वाले मेरे पहले हिसाब तो दे दे।। मेरी आँखों से जो चुराए हैं मुझको मेरे वो ख़्वाब तो दे दे।। हर घड़ी झूठ हर घड़ी एक छल कम से कम इज़तेराब तो दे दे।। आज जितने सवाल उट्ठे हैं है अगर कुछ जवाब तो दे दे।। ठीक है छोड़ दे मरुस्थल में चश्मोलब को सराब तो दे दे।। मुझसे सब कुछ तो छीन बैठा है मेरा खानाख़राब तो दे दे।। मैं नया साल भी मना लूंगा मेरे हक़ओरुआब तो दे दे।।
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जब भी लेकर कोई सवाल गया। मुंह चुरा कर जवाब टाल गया।। क्या नये साल में बना लोगे सब तो लेकर ये एक साल गया।। खाक़ खाओगे क्या बिछाओगे धान हड़पा लिये पुआल गया।। और इस देश के नहीं हैं हम इतनी तोहमत भी सर पे डाल गया।। खेत ले कर गया ये क्या कम है साथ हल बैल औ कुदाल गया।। जब तलक ज़िन्दगी है आफ़त है ये गयी सोच लो बवाल गया।। क्या गज़ब है मेरा मसीहा भी लेके हड्डी के साथ खाल गया।। सुरेश साहनी कानपुर
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शाम को सूरज को जाता देख कर सिरफिरी सी रात गहराने लगी। पर सुबह आहट उषा की देखकर कालिमा काई सी छितराने लगी।। साल आते और जाते है मगर इक मुसाफ़िर को सफर दरकार है ठीक ऐसे ही कलम चलती रहे सोचना क्या कौन सी सरकार है।। आपको शुभकामना नववर्ष की स्वास्थ्य सुख समृध्दि और उत्कर्ष की और हम मिलकर लुटाये वर्ष भर नेमतें, सद्भाव की आदर्श की।। सुरेशसाहनी