ये सच है ये वो सहर नहीं है।
सुआओं में वो असर नहीं है।।
ये वो अंधेरी है रात जिनमें
कहीं भी दिन दोपहर नहीं है।।
कहाँ से दहकां लड़ेंगे आख़िर
जिगर तो है सिर्फ ज़र नहीं है।।
कहाँ गिरायेगा बर्क़ जालिम
हमारा जब दैरो-दर नहीं है।।
ये मत समझना मक़ाम पा के
कि इस के आगे सफ़र नहीं है।।
न काम आएगी तेग तेरी
हमारे सानों पे सर नही है।।
ज़मीर और ऐसी सल्तनत का
बिका तो है बस ख़बर नहीं है।।
तुम्हें चिरागों की फ़िक्र है कब
हमें भी आँधी का डर नहीं है।।
सुरेश साहनी , कानपुर
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