हमारा समाज आर्थिक,शैक्षिक, सामाजिक और राजनैतिक अर्थात हर रूप से पिछड़ा समाज है।जबकि समाज उत्थान के लिए लंबे समय से लोग प्रयासरत हैं।मुझे इसका मूल कारण यही जान पड़ता है कि हमारे समाज के अधिकतर अगुआकार समाज के उत्थान से अधिक अपने उत्थान के लिए ही सामाजिक होने का दिखावा करते रहे।अर्थात उनकी हैसियत के अनुसार पद मिलते ही उन्होंने अपने सिद्धांतों की तिलांजलि दे दी। बहुत बढ़े भी तो विधायक-सांसद बनने तक उनके जोश ठंडे हो गये।

 एक गांव में जहाँ मेरी बराबर आवाजाही बनी रहती थी।वहाँ के प्रधान जी मेरे निकट सम्बन्धी थे। पूरे गोरखपुर मण्डल के स्वजातीय समाज में प्रधान जी का बड़ा नाम था।वे समाज मे फैली कुरीतियों जैसे,नशाखोरी,बालविवाह, दहेज प्रथा, और अशिक्षा आदि पर बोलते थे।उन्होंने अपने छोटे बेटे मुन्नर को भी दहेज़ के ख़िलाफ छोटा सा भाषण सिखा दिया था।

  एक बार की बात सलेमपुर से कुछ लोग  मुन्नर की शादी के सम्बंध में आये हुए थे।सौभाग्य से मैं भी वहीं था। प्रधान जी के द्वार पर ही बैठक सजी थी। बात 95 हजार नगद, एक राजदूत मोटरसाइकिल सोना की सीकड़, हाथ घड़ी और रेडियो पर अटक गई थी। लड़की पक्ष मोटरसाइकिल या सीकड़  में कोई एक पर सहमत था।पता नहीं क्या हुआ कि अचानक लड़की पक्ष बिगड़ गया।एक सज्जन ने कहा, तुहार लईका सात में पढ़त बा!आ हेतना दहेज माँगत बाड़S!!

इतना दहेज में हम इंजीनियर लईका से बियाह करवा देईब जा।

 गांव के लोगों ने भी समझाने की कोशिश की। का प्रधान जी!आप तो दहेज के खिलाफ भाषण भी देते हैं।आप को यह शोभा नहीं देता। 

 "अरे तो हम अपने लिए थोड़ी देते हैं।वह तो समाज के लिए हैं।फिर कौन नहीं लेता।, - प्रधान जी ने खीझ कर जबाब दिया था। किंतु एक युवा तुर्क ने तुरंत प्रतिवाद किया,

   - सुरेश भैया तो दहेज नहीं लिए थे।

अब प्रधान जी ने लगभग आपा खो दिया था।वे बड़े क्रोध में बोल पड़े,

         - अरे त ऊ चूतिया हवें त का हमहूँ चूतिया बनि जाईं।,

 इस गहमागहमी में जैसे सभा विसर्जित हो गयी हो। सब लोग उठ उठ कर चल दिये ।

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