कभी हदों ने कभी दायरों ने घेर लिया।
उन्हें उम्मीद हमें आसरों ने घेर लिया।।
नज़र मिली है अभी है कोताह ये मसला
न जाने कैसे इसे तज़किरों ने घेर लिया।।
अभी थी बादे-नसीमे-सहरे- इश्क़ मिली
अभी से नफरतों के कोहरों ने घेर लिया।।
अभी असासे की शिनाख़्त भी न हो पाई
अभी से बाँटने के मशवरों ने घेर लिया।।
जिये तो उम्र परेशानियों से रब्त रही
मरे तो जैसे लगा मकबरों ने घेर लिया।।
ग़ज़ल अदीब की बाज़ार भी नहीं पहुँची
न जाने कैसे इसे तबसिरों ने घेर लिया।।
सुरेश साहनी, अदीब
कानपुर
बादे-नसीमे-सहरे- इश्क़ /प्यार के सुबह की पुरवाई
असासे- मृतक की संपत्ति, विरासत
तब्सिरा / प्रकाश डालना ,आलोचना
तज़किरा/ चर्चा
मशवरा/ प्रस्ताव, सलाह
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