पहले सोचा प्यार लिखूँगा
फिर मैंने कुछ शब्द लिख दिए
कागज पर कुछ आड़े तिरछे
जाने कैसे उस कागज के
शब्द शब्द अदृश्य हो गए
कभी कभी ऐसा लगता है
मैं बीते युग का नायक हूँ
इस युग के व्यवहार जगत के
पैमानों पर नालायक हूँ
क्या अब सचमुच इतनी ज्यादा
भौतिकता हावी है सब पर
जहाँ भावनाओं का जैसे
रत्ती भर भी मोल नहीं हैं
मन से मन के तार मिला दे
ऐसे सुरभित बोल नहीं हैं
बोल नहीं हैं दुखती रग पर
मरहम जैसे लगने वाले
हैं भी तो वह तीरों जैसे
मन को आहत करने वाले
गोली जैसे दगने वाले
या फिर इतनी मधुर चाशनी
में डूबे अनुभव मिलते हैं
जिनको सुनकर डर लगता है
बहुत मिले हैं ठगने वाले
अब यह सोच सिहर उठता हूँ
यूँ भी अंदर तक टूटा हूँ
अबकी बार बिखर ना जाऊं
फिर भी मैं कोशिश करता हूँ
इस मन के कोरे कागज पर
सर्दी के सूखे अन्तस् पर
इंद्रधनुष के रंग चुराकर
फागुन की बौछार लिखूंगा
फिर तुम धानी धानी होगी
इतना सारा प्यार लिखूंगा
सम्हल गया तो यार लिखूंगा
एक नहीं सौ बार लिखूंगा........
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