तुम किसी मुक्ति की बात कर रहे थे

फिर तुमने आधी दुनिया की आज़ादी पर बात की

फिर तुम्हारे तर्क , तर्क पर तर्क

जिन पर पसरा मौन तुम्हारे अहम को हक़ देता है

कि कह दो तुम्हारे तर्क अकाट्य है

तर्क जिनके उत्तर तुम खुद ढूढ़ लेते हो

उन तर्को के उत्तर

अपरिहार्य भी नहीं

फिर तुम्हारा क्या 

तुम दिए गए उत्तरों को 

प्रतिवाद भी कह सकते हो

मैंने बहुत से फेमिनिस्ट पुरुष देखे हैं

वे ऐसे तर्कों से सहानुभूति रखते हैं

उन्हें इन तर्कों में ढेर सारी सम्भावनायें दिखती हैं

वे तुम्हारे साथ कल के सपने देखने लगते हैं

सपने जिनमें उनका अपना उनके घर के किसी कोने में

उनके लिए स्वेटर या दस्ताने बुन रहा होता है

जब वे तुम्हारे तर्कों को किसी

होटल के आकाश में 

पंख लगा रहे होंगे

सच तो है आधी दुनिया की आज़ादी

जब तुम अपनी व्यक्तिगत आज़ादी से जोड़ोगे

तो वैचारिकता के यथार्थ का आसमान

किसी होटल के कमरे की छत से  बड़ा 

कभी नहीं हो पायेगा

कभी नहीं हो पायेगा।


सुरेश साहनी

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