तिश्नालब यूँ भी सहम उठते हैं।

तेरे सागर के जो ख़म उठते हैं।।

इक सुलगती हुई चिंगारी से

ये अंधेरे क्यों सहम उठते हैं।।

मर्गजां हूँ मैं पड़ा रहने दो

मेरे उठने पे अलम उठते हैं।।

तुम मेरे ख़्वाब में कब आये हो

फिर क्यों होने के वहम उठते हैं।।

अपनी नज़रें यूँ उठाया न करो

हर तरफ शोरे- रहम उठते हैं।।

क्या रहेंगे तेरी महफ़िल में अदीब

जब कि पत्थर के सनम उठते हैं।।

इश्क़ उस हद्दे-जुनूँ पर है अब

पर्दा उठता है कि हम उठते हैं।।

सुरेश साहनी"अदीब,

कानपुर

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

श्री योगेश छिब्बर की कविता -अम्मा

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है