कौन रखे अब  चातक जैसी स्वाति बूंद की प्यास रे।

कौन बुलाये अब मेघों को कौन जगाए आस रे।


कौन प्रतीक्षा करता है अब शबरी बनकर राम की

कहाँ सुदामा रख पाता है आज लगन घनश्याम की


छल छंदों से भरे समय मे टूट गए विश्वास रे।।


यूँ भी भौंरें कब रुकते हैं एक कली के आँगन में

एक अनोखे प्रीतम की छवि कब बसती है नैनन में


एक प्रेम हित कितना रोये कौन भरे उच्छवास रे।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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