हर घड़ी आसमां में रहते हो।
यार तुम किस गुमां में रहते हो।।
मछलियां मछलियां भी खाती हैं
तुम भी आबे-रवां में रहते हो।।
एक दिन तो ज़मीं पे लेटोगे
लाख महंगे मकाँ में रहते हो।।
सोचता हूँ तुम्हें न याद करूँ
रोज तुम ही ज़ुबाँ में रहते हो।।
सोच इतनी गिरी हुई क्यों है
तुम तो कोहे- गिरां में रहते हो।।
खुश हो वहशत-ओ-ज़ुल्म से बेशक़
सबकी आहो- फुगां में रहते हो।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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