अब कहीं दैरो-हरम से दूर चल।

हर सियासी पेंचों-ख़म से दूर चल।।

घटती बढ़ती उलझनें सुलझी हैं कब

जिंदगी इस ज़ेरो-बम से दूर चल।।

कलम खेमों में न हो जायें क़लम

हो न जाए सच कलम से दूर चल।।

कौन अब आवाज़ देगा बेवजह

चल दिया तो हर वहम से दूर चल।।

अब तो खलवत से तनिक बाहर निकल

अब तो एहसासे-अदम से दूर चल।।

चल कि अब हर इल्तिज़ा से दूर चल

चल कि अब रंज़ो-अलम से दूर चल

सुरेशसाहनी

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

श्री योगेश छिब्बर की कविता -अम्मा

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है