क्या नहीं था नहीं हुआ क्या क्या।

आदमी जानवर ख़ुदा क्या क्या।।


फूल फल और हरी भरी दुनिया

इस कुदूरत ने भी दिया क्या क्या।।


जिस्म-फानी है था पता फिर भी

हम रहे पालते अना क्या क्या।।


हम ही लुट गये हमी हुए रुसवा

क्या बताएं मिली सज़ा क्या क्या।।


एक मिट्टी को कर दिया मिट्टी

क्या दिया राम ने लिया क्या क्या।।


मय है जन्नत में और हूरें भी

मैक़दे में है फिर बुरा क्या क्या।।


हाथ खाली हैं वक़्ते-रुखसत जब

फिर ज़हां से हमें मिला क्या क्या।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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