कभी बातिल से डरना भी नहीं है।
कभी सच से मुकरना भी नहीं है।।
चटकना या बिखरना भी नहीं है।
मुझे सजना सँवरना भी नहीं है।।
मरहले सायबाँ तुमको मुबारक
मेरी फ़ितरत ठहरना भी नहीं है।।
समन्दर है मिरा क़िरदार गोया
किनारों से मगर ना भी नहीं है।।
कमी तुममें बताओ क्या बतायें
तुम्हें शायद सुधरना भी नहीं है।।
मुहब्बत है तो कोई शर्त छोड़ो
कोई वरना वगरना भी नहीं है।।
तुम्हारा घर नहीं है जिस गली में
उधर से तो गुज़रना भी नहीं है।।
जहाँ तक हुस्न फानी है ये सच है
मुहब्बत को तो मरना भी नहीं है।।
अगर डरना है तो डरना ख़ुदा से
ज़हां वालों से डरना भी नहीं है।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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