तन पर थकन लपेटें कितना।

कैसे जग का मेला भाये

सभी अज़नबी सभी पराये

ख़ुद से ख़ुद ही भेटें कितना।।तन पर .....

मन जैसे  टूटा सा दर्पण

हर आकर्षण बना विकर्षण

बिखरे भाव समेटें कितना।।तन पर.....

जन्म मरण के गोरखधन्धे

जग बौराया हम भी अंधे

क्या जागे हम लेटें कितना।।तन पर....

एक हृदय है एक गेह  है

अगणित माया मोह नेह है

पाया कितना बांटें कितना।। तन पर...

सुरेशसाहनी, कानपुर

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