कुछ विषय ऐसे होते हैं जिन पर लिखने की इच्छा होते हुए भी नहीं लिखना ज्यादा श्रेयस्कर होता है। गुनगुन को खारिज़ करना सामाजिक अक्लमंदी तो नहीं कही जाएगी।क्योंकि मैं कुछ ऐसे मिलने वाले भले लोगों को जानता हूँ जो समाज मे जिस रूप में प्रतिष्ठापित हैं उन की वास्तविकता उससे ठीक विपरीत है।एक बड़े धर्मज्ञ के साथ मैं उनके दो एक यजमानों के यहां गया भी हूँ।मैंने अनुभव किया कि वे यजमान के घर की बच्चियों के प्रति कुछ अधिक स्नेहिल हो उठते थे।यहाँ तक कि वे बच्चे कसमसा कर दूर भागते थे।कभी कभी वे बच्चों को अजीब ढंग से भींच लेते थे।कुछ देर बाद जैसे वे शिथिल होकर बच्चों को छोड़ देते थे। यद्यपि वे तुरन्त उसके बाद भोजन आदि की व्यवस्था करने को कहकर शौचालय की दिशा में बढ़ जाते थे। सम्प्रति वे सम्मानित कथावाचक हैं। किंतु यह लेख लिखते हुए उनका स्मरण क्यों आया  यह भी विचारणीय है। 

किसी ने कहा भी है-

  "जड़े फ्रेम में टँगे हुए हैं ब्रह्मचर्य के कड़े नियम उसी फ्रेम के पीछे चिड़िया गर्भवती हो जाती है।।"

आज हम गुनगुन को ख़ारिज कर सकते हैं।जाने अनजाने वह अरुंधति रॉय की भांति स्टारडम में आ गयी है।हो सकता है ऐसा उसका उद्देश्य भी रहा हो ।तब भी अपने बच्चों को इन अनजाने प्रेतों से परिस्थिति जन्य भयकातरता को संज्ञान में अवश्य लेते रहे।और आतिथेय धर्म का पालन करने के साथ साथ गृहस्थ धर्म भी निर्वहन करते रहें।

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