दिमाग जाने कहाँ भटकता है

दिल भी अपने ख़याल में गुम है

नींद मौके के इन्तेज़ार में है 

कब वो आगोश में ले ले मुझको,

 शायरी आज ये किस मोड़ पे ले आयी है

जिस जगह एक तबस्सुम को भी

मोहताज है ज़ीस्त

ना लरजते हुए गेसू ना सुलगती सांसे

न दहकते हुए गालों की मचलती लाली

गुलमोहर हैं तो मगर सुर्ख़ नहीं

जैसे बैठे हों कहीं भूख के मारे बच्चे

हैं अमलतास के चेहरों प अजब पीलापन

बेटियां जैसे कि सहमी सी कहीं बैठी हों

और बोसीदनी है भी तो इस अंदाज में है 

जैसे नाज़ुक सा नर्म जिस्म कोई

अपने जख्मों की नुमाइश पर हो  

ये बहारों का है आलम तो खिज़ा क्या होगी

ये अगर ख़्वाबखयाली है जल्दी टूटे

और ये सच है तो फिर राम सम्हालो दुनिया

दौरे-वहशत से मेरे राम निकालो दुनिया.........

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