देश के कोने कोने में डर बैठा है। क्या गद्दी पर एक जनावर बैठा है।। कितना कोहरा छाया है दुपहरिया में शायद दिन भी ओढ़े कंबर बैठा है।। जहां जरा जो चूका उसका टिकट कटा गोया मौसम घात लगा कर बैठा है।। इतना कुहरा इतनी ठण्डक ठिठुरन भी जैसे जाड़ा जाल बिछा कर बैठा है।। नए साल मे भी छाया है मातम क्यों कौन साँप कुण्डली लगाकर बैठा है।। उससे कहदो मौत उसे भी आएगी कौन यहाँ पर अमृत पीकर बैठा है।। कोरोना से कहो तुम्हारी खैर नहीं हर हिंदुस्तानी में शंकर बैठा है।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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Showing posts from December, 2023
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नया साल औरों के साथ मनाओगे। या फिर बीते कल में वापस आओगे।। धन दौलत में सचमुच ताकत होती है प्यार-मुहब्बत में आख़िर क्या पाओगे।। यूँ भी ज़ख़्म ज़दीद सताते रहते हैं लगता है फिर ज़ख़्म नए दे जाओगे।। तुमको दिल का मन्दिर महफ़िल लगता है दिल के तन्हा घर को खाक़ सजाओगे।। तुमको शायद नग़्मे-वफ़ा से नफ़रत है फिर तुम कैसे गीत वफ़ा के गाओगे।। सुरेश साहनी, कानपुर
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तुम अगर एतबार पढ़ पाते। मेरी आंखों में प्यार पढ़ पाते।। तुम मेरा हाथ थाम लेते तो वक़्त रहते बुखार पढ़ पाते।। मेरे दिल की रहल में रहते तो हम तुम्हें बार बार पढ़ पाते।। यूँ न् परदेश में बने रहते तुम अगर इंतज़ार पढ़ पाते।। गुलशने दिल हरा भरा रहता तुम जो इसकी बहार पढ़ पाते।। हम तुम्हें गुनगुना रहे होते तुम जो मेरे अशआर पढ़ पाते।। हम न बाज़ार में खड़े मिलते हम अगर इश्तहार पढ़ पाते।। सुरेश साहनी, कानपुर
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इधर किश्तों में पैकर बंट गया है।। मेरे आगे मेरा क़द घट गया है।। कहाँ से क्या लिखें कैसे लिखें हम अभी मन शायरी से हट गया है।। हमें तूफान आता दिख रहा है उन्हें लगता है बादल छंट गया है।। भरोसा उठ गया है राहबर से चलो अब ऊंट जिस करवट गया है।। भला गैरों से क्या उम्मीद हो जब मेरा साया भी मुझसे कट गया है।। ख़ुदा को क्या ग़रज़ जो याद रखे हमें ही नाम उसका रट गया है।। सुरेश साहनी
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क्या बात करें गुज़रे कल की। जब रीत गयी गागर जल की।। करते करते कल की आशा हम भूल गए जग की भाषा जो पूर्ण समय पर नहीं हुई क्या रखते ऐसी अभिलाषा कुछ ढलकाये कुछ खुद ढलकी।। तुमने कितने इल्ज़ाम दिए स्वारथी छली सब नाम दिए पर इतने निष्ठुर नहीं रहे तुमने ग़म भी इनाम दिये कुछ मज़बूरी होगी दिल की।। जग को बतलाना ठीक नहीं पीड़ा को गाना ठीक नहीं तुमने बोला बस प्यार करो होठों पर लाना ठीक नहीं छलिया को सुन आंखें छलकी।। तुम कब समझे हो प्रीत इसे मत कहो प्रीत की रीत इसे मैं तुमको हारा समझूंगा तुम कहते रहना जीत इसे कामना गयी फल प्रतिफल की।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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लोग कहते हैं समन्वय जैसी कोई स्थिति नहीं बन सकती। जो विज्ञान से परिचित नहीं वो पदार्थ की प्लाज्मा अवस्था को भी नहीं मानते।आज के सामाजिक राजनीतिक परिदृश्यों पर विहंगावलोकन करें तब देखेंगे।पूंजीवाद राष्ट्रवाद की मजबूत आड़ ले चुका है। मनुवाद दलित हितैषी होने का नाटक कर रहा है। दलित पुरोधा सामंतवाद की ढाल बनकर खड़े हैं। आज आंदोलन देशद्रोह और सरकारी दमनचक्र को राष्ट्रहित बताया जा रहा है।इन स्थितियों के पनपने का कारण यही है कि हम समन्वय के मार्ग से भटक गए थे। या यूं कहें कि समन्वयवादी निषाद(द्रविण) संस्कृति को शनैःशनैः ध्वस्त कर दिया गया। प्राचीन आर्ष ग्रंथों में जहां एक ओर शैव और वैष्णवों में समन्वय स्थापित करने की बात की जाती रही, वहीं दूसरी ओर शिव भक्तों को आज की भांति ही खलनायक बता बता कर मारा जाता रहा। यह समन्वय और विग्रह का संघर्ष आज भी जारी है। जब तक समन्वयवाद एक राजनैतिक दर्शन के रूप में नहीं उभरेगा। तब तक देश इन दमनकारी व्यवस्थाओं से मुक्त नहीं होगा। सुरेश साहनी, प्रणेता- समन्वयवाद
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हिन्दू या मुसलमान भी रहने नहीं दोगे। तो क्या हमें इंसान भी रहने नहीं दोगे।। मौला को निगहबान भी रहने नहीं दोगे। फिर कहते हो भगवान भी रहने नहीं दोगे।। जीने के लिए जान भी रहने नहीं दोगे। मर जाएं यूँ बेजान भी रहने नहीं दोगे।। सुख चैन के सामान भी रहने नहीं दोगे। घर मेरा बियावान भी रहने नहीं दोगे।। फतवों के तले कौम दबी जाती है सारी क्या जीस्त को आसान भी रहने नहीं दोगे।। क्या इतने ज़रूरी हैं सियासत के इदारे तालीम के ऐवान भी रहने नहीं दोगे।। अब काहे का डर तुमने कलम कर दीं जुबानें अब बोलते हो कान भी रहने नहीं दोगे।। हर रोज़ बदल देते हो तुम नाम हमारे क्या कल को ये उनवान भी रहने नहीं दोगे।। हल बैल गये साथ मे खेतों पे नज़र है शायद हमें दहकान भी रहने नहीं दोगे।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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मेरी आंखों में प्यार पढ़ पाते। वक़्त रहते बुखार पढ़ पाते।। मेरे दिल की रहल में रहते तो हम तुम्हें बार बार पढ़ पाते।। यूँ न् परदेश में बने रहते तुम अगर इंतज़ार पढ़ पाते।। गुलशने दिल हरा भरा रहता तुम जो इसकी बहार पढ़ पाते।। हम तुम्हें गुनगुना रहे होते तुम जो मेरे अशआर पढ़ पाते।। हम न बाज़ार में खड़े मिलते हम अगर इश्तहार पढ़ पाते।।
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सोच रहे हैं नए साल में कुछ तो नया नया सा लिख दें। स्वागत कर लें अभ्यागत का गए साल को टाटा लिख दें।। छू कर आये चरण बड़ों के बच्चों को जाकर दुलरायें और सभी मिलने वालों से मिलकर मंगल वचन सुनाएं नए तरह से लिखें बधाई या संदेश पुराना लिख दें।। बोल बोल कर वहीं पुराने जुमले मजमा नया लगाएं या कह कर के नया तमाशा खेल पुराने ही दोहराएं लम्बे चौड़े भाषण पेलें जन कल्याण जरा सा लिख दें।। सोच रहे हैं नया कहाँ है यह निस दिन आता जाता है है भविष्य से आशंकाएं पर अतीत से कुछ नाता है मन को नया कलेवर तो दें तन हित भी प्रत्याशा लिख दें।।
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आप नाहक कमान ताने थे। जान लेने के सौ बहाने थे तीर थे जाल और दाने थे। मेरे जैसे कई निशाने थे ।। चाहते तो वो जीत भी जाते उनको पाशे ही तो बिछाने थे।। दिमाग दिल जिगर मेरी नज़रें उनकी ख़ातिर कई ठिकाने थे।। उनकी ताकत नई थी जोश नया हां मगर पैंतरे पुराने थे।। लोग पलकें बिछाए रहते थे हाय क्या दौर क्या ज़माने थे।। गर्द में वो भी मिल गए जिनके आसमानों में आशियाने थे।।
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चलो वो दुश्मनी ही ठान लेंगे। तो क्या ले लेंगे मुझसे क्या न लेंगे।। ख़ुदा सुनता है मैंने भी सुना था कभी मेरी सुनें तो मान् लेंगे।। अमां घोंचू हो क्या वे दिल के बदले भला काहे तुम्हारी जान लेंगे।। नज़र से तोलना आता था उनको वो कहते हैं कि अब मीजान लेंगे।। ख़ुदारा आप इतना बन संवर कर ज़रूर इकदिन मेरा ईमान लेंगे।। सुरेश साहनी, कानपुर
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आज ये ज़िक्रे- आशनाई क्यों। पहले शाइस्तगी दिखाई क्यों।। मुझसे तुमने कभी कहा तो नहीं फिर ये इल्ज़ामें- बेवफ़ाई क्यों।। अजनबी हूँ तो अजनबी ही रह आशना है तो ये ढिठाई क्यों।। इंतेख़ाबात को गए रिश्ते कशमकश तक ये बात आई क्यों।। राब्ता जब नहीं रहा उनसे देख कर आँख डबडबाई क्यों।। साहनी तुम से प्यार करता था बात इतनी बड़ी छुपाई क्यों।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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ज़ख़्म भी किसलिए सजाते फिरें। कोई तगमे हैं जो दिखाते फिरें।। वो हमें रात दिन सताते फिरें। और हम उनपे जां लुटाते फिरे।। दर्द चेहरे पे दिख रहा होगा क्या ज़रूरी है हम बताते फिरें।। वो हमारे हैं सब तो जाने हैं हक भला किसलिए जताते फिरें।। जब ज़माना है दिलफरेबों का हम भी किस किस को आज़मातें फिरें।। तगमे/ बैज, पदक , स्मृति चिन्ह, ताम्रपत्र, तमगे फ़रेब/ छल सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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मेरी जानकारी में कानपुर में लगभग चार सौ सक्रिय कवि या शायर हैं।छुपे हुए डायरी बन्द और शौकिया हज़ार से कुछ अधिक ही होंगे। प्रदेश में सौ गुना मान लीजिए। इस सूची से अपना नाम वापस लेने में भलाई लगती है। अच्छा ही हुआ अपने समय के सुप्रसिद्ध कवि प्रतीक मिश्र जब "कानपुर के कवि" पुस्तक लिये सामग्री जुटा रहे थे, तब हम छूट गए थे। उनको किसी ने बताया ही नहीं। जलने वाले कवि तो तब भी रहे होंगे। जब कबीर और तुलसी से जलने वाले कवि हुए हैं तो हमसे जलने वाले क्यों नहीं हो सकते। अभी एक कवि महोदय को एक गोष्ठी में नहीं बुलाया।उन्हें बहुतै बुरा लगा। उन्होंने तुरंत एक गोष्ठी का आयोजन किया, और किसी को नहीं बुलाया। एक पौवा, चार समोसे एक प्याज, एक चिप्स का पैकेट और एक बीड़ी का बंडल।और शीशे के सामने महफ़िल सजा के बैठ गए। मुझसे बताने लगे तब पता चला।मैंने कहा यार मुझे ही बुला लिया होता।मैं तो पीता भी नहीं। वे बोले,"-इसीलिए तुम कवि नहीं बन पाए, और यही हाल रहा तो कवि बन भी नहीं पाओगे।" हमेशा फ्री के जुगाड़ में रहते हो। मैने जोर देकर कहा, भाई! में बिलकूल ...
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जोड़ तोड़ कर ही लिखना है तो तुम यह करते भी होंगे तुम कौए को हंस दिखाने- की कोशिश करते भी होंगे किन्तु सभी कवितायें केवल तुम तक ही रह जाती होंगी कुछ शुभेच्छुओं और चारणों- से प्रशस्ति ही पाती होंगी जोड़ गाँठ कर शब्द गाँज कर गीत नहीं बन पाते हैं प्रिय ढेरों कूड़ा कंकड़ पत्थर भवन नहीं कहलाते हैं प्रिय बाद तुम्हारे उन गीतों को कोई मोल न देगा प्यारे सिवा तुम्हारे कोई अधर भी अपने बोल न देगा प्यारे गीतों को लिखने से पहले भावों को जीना पड़ता है अमिय-हलाहल सभी रसों को यथा उचित पीना पड़ता है सुरेशसाहनी कानपुर
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मेरे चेहरे की जब किताब पढ़ो। सर्द आंखों में ग़र्क़ ख़्वाब पढ़ो।। मेरी हालत को यूँ न समझोगे जो अयाँ है उसे हिजाब पढ़ो।। मेरे आमाल पढ़ न पाओगे तुम असासे गिनो हिसाब पढ़ो।। तो तुम्हे शाह से ही निस्बत है जाओ ज़र्रे को आफ़ताब पढ़ो।। हाले-हाज़िर की वज़्ह भी तुम हो मेरा खाना भले ख़राब पढ़ो।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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आज मेरे प्यारे मित्र हकीक भाई हम सबको छोड़ गए। हकीकत था आज बन के फ़साना चला गया। घर भर की नेमतों का खज़ाना चला गया।। तन्हाइयों ने घेर लिया दिल को यकबयक जैसे सुना कि दोस्त पुराना चला गया।। क्यों कर कहें कि आके क़ज़ा ले गयी उसे हक़ बात है कि जिसको था जाना चला गया।। जाने की उस गली में तमन्ना चली गई मिलने का था वो एक बहाना चला गया।। तुम क्या गए हकीक कि आलम है ग़मगुसार गोया कि नेकियों का ज़माना चला गया।। हिन्दू मुसलमा अपने पराये से था जो दूर गा कर मुहब्बतों का तराना चला गया।। कितने ही आसियों की उम्मीदें चली गईं कितनी ही यारियों का ठिकाना चला गया।। मौला ने ले लिया उसे अपनी पनाह में प्यारे हुसैन तेरा दीवाना चला गया।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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ये किसकी सिम्त चलना चाहता हूँ। मैं आख़िर क्या बदलना चाहता हूँ।। तेरे ख्वाबों में पलना चाहता हूँ। मैं खुश होना मचलना चाहता हूँ।। है मुझ सा कोई मेरे आईने में मग़र मैं मुझसे मिलना चाहता हूँ।। ये माना हूँ गिरा अहले नज़र में अभी तो मैं सम्हलना चाहता हूं।। मैं लेकर तिश्नगी की शिद्दतों को तेरे शीशे में ढलना चाहता हूँ।। मुझे इन महफिलों में मत तलाशो मैं अन्धेरों में जलना चाहता हूँ।। चलो तुम तो वहाँ गुल भी खिलेंगे गुलों सा मैं भी खिलना चाहता हूँ।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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पहले से धारणा बना ली प्रिय एक बार मिले तो होते। हम भी तुमको प्यारे लगते दो पग संग चले तो होते।। तुमने मुझ को जब भी देखा औरों की आंखों से देखा औरों से मेरे बारे में सुना खींच दी लक्ष्मण रेखा रावण नहीं पुजारी दिखता मैं पर तुम पिघले तो होते।। उपवन उपवन तुम्हें निहारा कानन कानन तुम्हें पुकारा पर्वत जंगल बस्ती बस्ती भटका यह पंछी आवारा एक अकेला क्या करता मैं दो के साथ भले तो होते।। तुमको भाया स्वर्ण-पींजरा मैं था खुले गगन का राही मैं था याचक निरा प्रेम का तुमने कोरी दौलत चाही यदि तुम तब यह प्यार दिखाते मन के तार मिले तो होते।। सुरेशसाहनी कानपुर
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कौन अब गीत गुनगुनाता है। छंद पढ़ता है गीत गाता है।। आज श्रोता डिमांड करते हैं और कवि चुटकुले सुनाता है।। है नजाकत समय की कुछ ऐसी पेट से भाव हार जाता है।। और फिर कवि कहाँ से दोषी है आप का भी दवाब आता है।। आज के दौर में हँसा पाना आदमी है कि खुद विधाता है।। दर्श देते हैं देव उतना ही भक्त जितना प्रसाद लाता है।।
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उनके कितने ताम झाम हैं शायद दरबारी गुलाम हैं।। कविता शायद कभी लिखी हो पर मंचों के बड़े नाम हैं।। ये सलाम करते हाकिम को तब खाते काजू बदाम हैं।। अपने हिस्से मूंगफली के दाने खाली सौ गराम हैं।। सत्ता के हित में भटगायन बड़े लोग हैं बड़े काम हैं।। ये एमपी के सेवक ठहरे अपने मालिक सियाराम हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
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ज़िन्दगी अब हो गयी है हसरतों की क़ैद में। हर खुशी दम तोड़ती है ख्वाहिशों की क़ैद में।। ताज अपने वास्ते बनवा के वो जाता रहा ज़ीस्त तन्हा रह गयी है वारिसों की क़ैद में।। अब कफ़स खुद तोड़ना चाहे है अपनी बंदिशें नफ़्स अब घुटने लगी है खाँसियों की क़ैद में।। बंट गए हैं आसमां भी बाद भी परवाज भी अब परिंदे उड़ रहे हैं सरहदों की क़ैद में।। कौन कहता है मुहब्बत बंधनों से दूर है आज है आशिक़मिजाजी मज़हबों की क़ैद में।। ग़म के बादल छा गए हैं कस्रेदिल पर इस तरह ढह न जाये इश्क़ का घर बारिशों की क़ैद में।। दिल किसी बिंदास दिल को दें तो कैसे दें अदीब नौजवानी रह गयी है हासिलों की क़ैद में।। सुरेश साहनी, अदीब
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आपने प्यार से क्या पुकारा मुझे। ख़ुद ही देने लगे सब सहारा मुझे।। आप से हसरतें तो मुकम्मल हुई ज़िन्दगी ने भी हँस कर सँवारा मुझे।। मुझको कंधे मिले इसमें हैरत तो है अब तलक था सभी ने उतारा मुझे।। नूर उनका मुजस्सिम हुआ इस तरह ख़ुद बुलाने लगा हर नज़ारा मुझे।। इक दफा जिसकी महफ़िल में रुसवा हुए फिर उसी ने बुलाया दुबारा मुझे।। साथ मेरा नहीं जिनको तस्लीम था आज वो कर रहे हैं गंवारा मुझे।।
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इनकी उनकी रामकहानी छोड़ो भी। क्या दोहराना बात पुरानी छोड़ो भी।। अक्सर ऐसी बातें होती रहती हैं इनकी ख़ातिर ज़ंग जुबानी छोड़ो भी।। शक-सुब्हा नाजुक रिश्तों के दुश्मन हैं यह नासमझी ये नादानी छोड़ो भी।। आओ मिलकर आसमान में उड़ते हैं अब धरती की चूनरधानी छोड़ो भी।। चटख चांदनी सिर्फ़ चार दिन रहनी है मस्त रहो यारों गमख़्वानी छोड़ो भी।। मर्जी मंज़िल मक़सद राहें सब अपनी सहना ग़ैरों की मनमानी छोड़ो भी।। दो दिन रहलो फिर अपने घर लौट चलो मामा मौसी नाना नानी छोड़ो भी।। सुरेश साहनी, कानपुर
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बद करामत मुझे नहीं आती। ये सियासत मुझे नहीं आती।। उसकी नफ़रत से है कड़ी नफ़रत फिर भी नफ़रत मुझे नहीं आती।। यां अक़ीदत से कोई उज़्र नहीं पर इबादत मुझे नहीं आती।। बदनिगाही नहीं रही फ़ितरत और हिक़ारत मुझे नहीं आती।। यूँ भी तनक़ीद किस तरह करता जब मलामत मुझे नहीं आती।। कौड़ियों में रहा इसी कारण ये तिजारत मुझे नहीं आती।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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मैं अपने पढ़ने वालों की ख़ातिर लिखता हूँ। लिखने में थक भी जाता हूँ पर फिर लिखता हूँ। औरों ने मजहब के आगे दिल तोड़े होंगे मैं दिल को गुरुद्वारा- मस्जिद-मन्दिर लिखता हूँ।। जो मज़हब को मानवता से ऊपर रखते हैं मैं उनको ढोंगी तनखैया काफ़िर लिखता हूँ।। जिन लोगों ने मजहब को व्यापार बनाया है मैं ऐसों को संत न लिखकर ताज़िर लिखता हूँ।। धनपति जो हो गया आज सब माया है कहकर मुझको बोला मैं पैसों की ख़ातिर लिखता हूँ।। जो सत्ता के इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं तुम साधू समझो मैं उनको शातिर लिखता हूँ।। सुरेश साहनी, कानपुर
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भूख और प्यास के मुद्दों को दबा देता है। जब वो मज़हब की कोई बात उठा देता है।। इतनी चालाकी से करता है मदद क़ातिल की मरने वाले को कफ़न उससे दिला देता है।। अपना घर दूर जज़ीरे में बना रखा है जब शहर जलता है वो खूब हवा देता है।। अपने परिवार के हक में कभी अपनी ख़ातिर कौम के सैकड़ों परिवार मिटा देता है।। कौन सी कौम है जिससे न हो रिश्ते उसके कौम के क़ौम वो चुटकी में लड़ा देता है।। रोज खाता है हक़-ए-मुल्क़ में इतनी कसमें पर सियासत के लिए रोज भुला देता है।। बख्शता है कहाँ वो मुल्क़ को मजहब को भी ग़ैर तो ग़ैर वो अपनों को दगा देता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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दिन रहे उलझन भरे रातों रही बेचैनियां। फागुन नहीं सावन नहीं फिर क्यूं रही हैरानियाँ।। मैं इस गली तुम उस गली ,मैं इस डगर तुम उस डगर इक नाम जुड़ने से तेरे इतनी मिली बदनामियाँ।। लैला नहीं मजनू नहीं फरहाद- शीरी भी नहीं अब आशिक़ी के नाम पर बाक़ी रहीं ऐयारियां।। सब चाहते हैं जीस्त में सरपट डगर मिलती रहें पर इश्क़ ने देखा नहीं आसानियाँ दुश्वारियां।।
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न्याय पर से भी भरोसा उठ गया। अब व्यवस्था का ज़नाज़ा उठ गया।। आईये मिल कर पढ़ें यह मर्सिया लग रहा है कोई अच्छा उठ गया।। अब तेरी महफ़िल में रौनक ख़त्म है दिल तेरी महफ़िल से तन्हा उठ गया।। इक मदारी को यही दरकार है चंद सिक्के और मजमा उठ गया।। बन्द कमरे में हुई कुछ बैठकेँ और फिर नाटक का पर्दा उठ गया।। सुरेश साहनी
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इस कविता की प्रेरणा अनूप शुक्ल जी की पोस्ट बनी। नोटबन्दी ने सियासत में नए आयाम जोड़े हैं। समूचे देश को अब एक जैसा काम जोड़े हैं।। सभी हैं चोर अधिकारी,करमचारी कि व्यापारी मिले हैं शाह चौकीदार बहुत बदनाम जोड़े हैं।। खड़े हैं एक सफ में सारे मोदी जी की मर्जी से नहीं तो कब सियासत ने रहीम-ओ-राम जोड़े हैं।। जिसे गांधी न कर पाये करा तस्वीर ने उनकी घुमाया सिर्फ चेहरा और खास-ओ-आम जोड़े हैं।। तुम्हें मुजरिम ने लूटा है ,लुटे हैं मुंसिफ़ी से हम मेरे हिन्दोस्तां को एक सा अंजाम जोड़े हैं।।
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सम्बन्धों में समरसताएँ बनी रहें किन्तु प्रेम को सम्बन्धों का नाम न दो। सत है चित है सदानन्द है तुम इसको काम जनित उन्मादों के आयाम न दो।। तुमको बचपन से यौवन तक देखा है साथ तुम्हारा प्रतिदिन प्रति क्षण चाहा है। किन्तु वासना जन्म नहीं ले सकी कभी इस सीमा तक हमने धर्म निबाहा है।। जो शिव है है वही सत्य वह सुन्दर भी जो सुन्दर है केवल भ्रम कुछ पल का है। पा लेने में खारापन आ सकता है पर प्रवाह मीठापन गंगा जल का है।। हम तुमको चाहें तुम भी हमको चाहो सम्बन्धों से परे प्रेम यूँ पावन है। जन्म जन्म तक प्रेम रहेगा कुछ ऐसे जैसे धरती पर युग युग से जीवन है।। सुरेशसाहनी
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यह भारतीय राजनीति का संक्रमण काल चल रहा है। आम जनता ,किसान, आदिवासी समुदाय, जलवंशी समुदाय ,सवर्ण समाज और पिछड़ी जातियां आदि अनेक मुद्दे हैं जिन पर लिखा जा सकता है। लेकिन कुछ भी लिखने के लिए कुछ तो समय चाहिए। सो है नहीं। रोजी रोटी के लिए सुबह शाम की मशक्कत आपकी चिन्तन क्षमता हर लेती है। उससे भी बड़ी दिक्कत है कि भारत सरकार की आर्थिक नीति बड़ी तेजी से बाज़ारवाद के अंधे कुएं की ओर बढ़ रही है। मीडिया केवल उन्ही राजनैतिक दलों को भारतीय राजनीति के विकल्प बता रहा है, जो आर्थिक उदारवाद के नाम पर गरीब-विरोधी आर्थिक नीतियों को प्रश्रय देते आ रहे हैं।आज देश के अधिकांश बुद्धिजीवी इन ज़मीनी सच्चाईयों से मुँह फेरकर जाति-धर्म की राजनीति पर जुगाली कर रहे हैं। ये सब घूमकर केवल इस बात पर जोर देने में लगे हैं कि जहां जिस भी दल से इनकी बिरादरी या धर्म के लोग लड़ रहे हों उनके समर्थन का दिखावा करो।इन सब का देश के समाज के ,इनके खुद के जातिय समाज के विकास से कोई मतलब नहीं।आख़िर इन सबके धर्म, मजहब, पंथ और जाति को ख़तरा जो है। ऐसे में आप कुछ भी सकारात्मक लिखें,लोग उसे नकारात्मक रूप में लपकने...
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मत पूछो किस बात का डर है। बे मौसम बरसात का डर है।। कतराते हो दिल देने से क्या दिल के आघात का डर है।। ग़ैरों से उम्मीद नहीं है पर अपनों से घात का डर है।। रात सजा करती है महफ़िल अब दिन को भी रात का डर है।। हम ख़ुद पर काबू तो कर लें इस दिल को जज्बात का डर है।। दिल्ली की बातें मत पूछो भूतों को जिन्नात का डर है। लोग बहुत सहमे हैं उनको अनजाने हालात का डर है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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जिनसे कभी मिले नहीं अक्सर उन्ही में हम। ख़ुद को तलाशते रहे खोकर उन्हीं में हम।। क्यों जाये हम बहिश्त कहीं और ढूंढ़ने शायद कि ख़त्म कर सकें बंजर उन्हीं में हम।। वैसे तो किस्मतों पे भरोसा नहीं रहा फिर भी जगा रहे हैं मुक़द्दर उन्हीं में हम।। ग़ैरों के आसमान में जाएं तो किसलिए दिल कह रहा है होंगे मुनव्वर उन्हीं में हम।। बेशक़ मिले नहीं हैं ख़्याली ज़हान से लेकिन बने रहेंगे बराबर उन्हीं में हम।। माना कि ऐसी राह में हैं राहजन मगर पाते हैं हर मुकाम पे रहबर उन्हीं में हम।। दिल में बिठा के अपने ही दिल के लिए अदीब ताउम्र खोजते फिरे इक घर उन्हीं में हम।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कह रहा है मुजस्समा मुझको। कैसे मानूँ है जानता मुझको।। जानते हैं कई भला मुझको। कह रहा है कोई बुरा मुझको।। जिसको अहले वफ़ा कहा तुमने दे रहा है वही दगा मुझको।। हो न् हो लौट कर वो आएगा उम्र भर ये भरम रहा मुझको।। मैंने उसका मुकाम माँगा जब उसने सौंपा मेरा पता मुझको।। दूर रहता है इस तरह गोया दे रहा है बड़ी सज़ा मुझको।। अलविदा क्यों सुरेश को कह दें मुद्दतों बाद है मिला मुझको।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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तुम्हे देख कर क्यों लगता है जैसे हम कुछ हार गए हों या अपना कुछ छूट गया हो या ऐसा लगता है जैसे तुम्हे समय ने मेरी किस्मत- की झोली से चुरा लिया है किन्तु इसे दावे से कहना अब जैसे बेमानी सा है.... कभी मिलो तो हो सकता है तुमसे मिलकर मेरी आँखें हौले से यह राज बता दें तुम ही उनका वह सपना हो जिसकी ख़ातिर वे बेचारी रातों को जागा करती थीं और सुबह से उस रस्ते पर दिन भर बिछी बिछी रहती थीं जिन से होकर जिन पर चलकर तुम आया जाया करती थी।
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हम जन्मजात अभिचिन्तक है सदियों पहले के सूत्रधार बल से कम छल से गए हार उस छल की पीड़ा को लेकर मन मे इस बीड़ा को लेकर हम सोते में भी जगते हैं इक ऐसी सुबह हम लाएंगे जब हमसे छल करने वाले अपने छल से घबराएंगे हर रोज सुबह तब होती है जब इस प्रसूति पीड़ा का फल कविता अपना आकार लिए कागज की धरती पर आकर जब स्वयम प्रस्फुटित होती है मैं नहीं मात्र तब साथ मेरे सदियों की पीड़ा उठती है सदियों की पीड़ा उठती है जब जन्म नई कविता लेगी हर बार प्रथम प्रसवानुभूति से कवि तो निश्चित गुजरेगा पर जब भी कविता जन्मेगी हर बार किसी अव्यवस्था से आक्रोश प्रथम कारण होगा....
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जय जवान तब तक है जय किसान तब तक है जब तक वे अपने अधिकार नहीं मांगते जब तक वे अपनी सरकार नहीं मांगते जय जवान तब तक है जय किसान तब तक जब तक वे सेवा का दाम नहीं मांगते नाम नहीं मांगते आराम नहीं मांगते जय जवान तब तक है जय किसान तब तक हर मजूर मालिक है भाव ताव होने तक किसान अन्नदाता है बस चुनाव होने तक मान जान कब तक है जय जवान तब तक है जय जवान कब तक है जय किसान तब तक है सुरेश साहनी, कानपुर
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आदमी से कहाँ बचा रहता। वो अगर यूँ न् लापता रहता।। वक़्त वो उम्र भर नहीं लौटा फिर मैं किसके लिए रुका रहता।। हुस्न ने जब बदल लिए चेहरे इश्क़ कब तक वही बना रहता।। उसकी मर्ज़ी पे क्यों गुरेज़ करें देर कितना है बुलबुला रहता।। खलवतें ज़िन्दगी का हिस्सा हैं साथ कब तक है काफिला रहता।। साहनी तू है तो ख़ुदा खुश है मैं जो होता क्या ख़ुदा रहता।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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जाने कैसे इन हाथों से हो जाती है हर रोज ग़ज़ल।। लेकिन बाज़ारी दुनिया में खो जाती है हर रोज ग़ज़ल।। ख्वाबों के टूटा करने से हर रोज उजड़ती है दुनिया पर फसल सुहाने ख़्वाबों की बो जाती है हर रोज ग़ज़ल।। कुछ अपनी फिक्रों के कारण कुछ दुनिया की चिंताओं से मैं जगता रहता हूँ लेकिन सो जाती है हर रोज ग़ज़ल।। मैं रोज हथौड़ी छेनी से कुछ भाव तराशा करता हूँ पर अगले दिन ही पत्थर क्यों हो जाती है हर रोज ग़ज़ल।। मेरे मिसरे उन गलियों में क्यों जाकर भटके फिरते हैं जब उन गलियों से ही होकर तो जाती है हर रोज ग़ज़ल।। सुरेश साहनी, कानपुर अदीब
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हमपे तोहमत भले लगा देते। तुम तो अहदे वफ़ा निभा देते।। तुम पे हर इक खुशी लुटा देते। प्यार से तुम जो मुस्करा देते।। ज़ख़्म सीने के जगमगा उठते तुम जो झूठा भी आसरा देते।। तुमसे प्याले की जुस्तजू कब थी जाम आंखों से जो पिला देते।। क्या ज़रूरी थी ग़ैर की महफ़िल हमसे कहते तो क्या न ला देते।। हम न पी कर भी बेख़ुदी में रहे। कोई इल्ज़ाम मय को क्या देते।। तुम जो आते सुरेश इस दिल मे क्यों किसी और को बिठा देते।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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#लघुकथा - मरीज़ कल मैं शहर के व्यस्त क्षेत्र से अपने बच्चे के साथ गुज़र रहा था। सड़क पर भीड़ भाड़ यथोचित ही थी।लाल बत्ती खुल चुकी थी। तभी पीछे से अचानक एम्बुलेंस के सायरन की आवाज सुनाई पड़ी। लोग तितर बितर होने की स्थिति में आ गए। मैं भी असहज होकर और किनारे यानि लगभग सड़क से की तरह सरक आया। कुछ देर बाद किसी सत्ताधारी दल से सम्बंधित झंडा लगाए एक एसयूवी टाइप गाड़ी गुज़री। भीड़ होने के कारण स्पीड उनके अनुसार कम ही थी। उसमें कुछेक सदरी टाइप लोग खीखी करके हँसते बतियाते दिखाई दिए। और वह गाड़ी आगे चली गयी। बच्चे ने पूछने के अंदाज़ में बताया 'पापा ये एम्बुलेंस नहीं थी।" मै क्या बताता। पर यह बात तो तय है कि उसमें मरीज ही थे। शायद मानसिक मरीज जो सैडिज़्म या किसी हीनता श्रेष्ठता बोध से ग्रसित रहते हैं। सुरेश साहनी, कानपुर
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जनता सच में बेबस है क्या। फिर सत्ता में काकस है क्या।। हक़ से हैँ महरूम रियाया गद्दी पर पॉन्टीयस है क्या।। साधु प्रहरी क्या क्या है ये ये भी कोई सिरदस है क्या।। ये ये भी है ये वो भी है ये मायावी राक्षस है क्या।। दुनिया सारी घूम रहा है अवतारे-कोलम्बस है क्या।। चारो ओर हुआ अँधियारा सूली पर फिर जीसस है क्या।। रावण भी पूजा जाता है अपयश है यह तो यश है क्या।। हेरोदस / एक राजा जिसने प्रभु यीशु को मृत्युदंड दिया सुरेश साहनी कानपुर 9451545132 सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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ज़ुल्म हम पे भी कम नहीं गुज़रे। सिर्फ़ ये है कि हम नहीं गुज़रे।। राब्ता उस गली से क्या रखते जिस गली से सनम नहीं गुज़रे।। हैफ़ जिस से अदूँ रहे हम भी इक उसी के सितम नहीं गुज़रे।। उस को दरकार थी नुमाइश की आप लेकर अलम नहीं गुज़रे।। यूँ जुदाई है मौत से बढ़कर आप के हैं सो हम नहीं गुज़रे।। तिश्नगी थी तो लज़्ज़तें भी थीं सर कभी कर के खम नहीं गुजरे।। सुरेश साहनी,कानपुर
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मेरी गली में आपका आना अगर है तो। मिलिएगा मुझसे दिल जो लगाना अगर है तो।। यूँ इश्क़ में बहाने ज़रूरी नहीं मगर अच्छा रहेगा कोई बहाना अगर है तो।। दैरोहरम से मेरा ख़ुदा लापता मिला ले चलिए मैक़दे में ठिकाना अगर है तो।। सागर में डूबने से कहाँ उज़्र है मुझे क़िस्मत में आशिक़ी का खज़ाना अगर है तो।। ऐ ज़ीस्त झूठी तोहमतों का डर है किसलिए फिर फिर नये लिबास का पाना अगर है तो।। दुनिया से उठ लिए तो कोई इंतज़ार क्यों ले चलिए रस्म सिर्फ़ उठाना अगर है तो।। उससे तो बेहतर है चरिंदों कि ज़िन्दगी इक अपने वास्ते जिये जाना अगर है तो।। इक आप साथ हैं तो कोई ग़म नहीं अदीब होने दें उसके साथ ज़माना अगर है तो।। सुरेश साहनी, कानपुर
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पैर जब जंज़ीर से वाकिफ़ न् थे। हम किसी तकदीर से वाकिफ न् थे।। ये नहीं तदबीर से वाकिफ़ न् थे। आप की तस्वीर से वाकिफ़ न् थे।। डूब कर हम रक़्स करते थे मगर रक़्स की तासीर से वाकिफ़ न् थे।। किस बिना पर मुझको काफ़िर कह गए आप जब तफ़्सीर से वाकिफ़ न् थे।। ख़्वाब अच्छे दिन के देखे थे मगर आज की ताबीर से वाकिफ़ न् थे।। इल्म का खाया न् था जब तक समर बाकसम तक़सीर से वाकिफ़ न् थे।। बालपन तक मन के राजा थे सुरेश तब किसी जागीर से वाकिफ न् थे।। तक़दीर-भाग्य, तदबीर- युक्ति , रक़्स- नृत्य, तासीर- प्रभाव, काफ़िर- धर्मविरुद्ध, तफ़्सीर- टीका, धर्मग्रंथ की व्याख्या, ताबीर- किसी स्वप्न की व्याख्या, तक़सीर-अपराध, समर- फल, इल्म- ज्ञान सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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सब थे अपने द्वारे साधो। हम ही थे बंजारे साधो।। भावों की बहरी बस्ती में जाकर किसे पुकारे साधो।। सच मे साथ चला क्या कोई यूँ थे सभी हमारे साधो।। जब दुनिया ही कंचन मृग है कितना मन को मारे साधो।। हार गहें मन से मत हारें हार है मन के हारे साधो।। मैं मैं करना मन का भ्रम है तू ही तू कह प्यारे साधो।। सोहम जपकर भवसागर से ले चल नाव किनारे साधो।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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हमारी ज़िंदगी ही झूठ पर है। यहां सच बोलना भी इक हुनर है।। ये दुनिया नफ़रतों को पूजती है मुहब्बत आज भी धीमा ज़हर है।। मैं सेहतयाब होकर लौट आया दुआओं में तेरी अब भी असर है।। ज़हर पीने की आदत डाल लें हम गृहस्थी जीस्त का लंबा सफर है।। अभी रिश्ते भी हैं अनुबन्ध जैसे रखो या तोड़ डालो आप पर है।। कोई उम्मीद मत रखना किसी से उम्मीदे ख्वाहिशों का बोझ भर है।। ठिकाना क्या बनाते हम गदायी ख़ुदा ख़ानाबदोशों का सदर है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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क्या तुम जो चाहोगे वो ही लिख दोगे। खेती है क्या अपनों को ही लिख दोगे।। तुमसे सहमत है तो कोई बात नहीं सच बोला तो उसको द्रोही लिख दोगे।। जिससे राहें तक बतियाती दिखती हैं उसको भी अनजान बटोही लिख दोगे।। छल से धन दौलत पा बैठे हो लेकिन किस्मत को कैसे आरोही लिख दोगे।। अपनो को ठगने में तुमको हर्ज कहाँ तुम तो मुझको ही निर्मोही लिख दोगे।।
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सपने लेकर नींद कुंवारी लेटी है।। खोई खोई आस बिचारी लेटी है।। क्या ज़िंदा रहना ही है ज़िंदा होना वो बिस्तर पे लाश हमारी लेटी है।। अस्पताल चलते हैं दौलत वालों से तुम क्या समझे वो बीमारी लेटी है।। बीबी खुश है आज़ादी की राह खुली वो माँ है जो ग़म की मारी लेटी है।। बोझ गृहस्थी का अब कौन उठाएगा वो घर भर की ज़िम्मेदारी लेटी है।। टूट रही हैं लोकतंत्र की सांसें अब बंदूकों पर रायशुमारी लेटी है।। इस शासन में अब शायद ही उठ पाये सीसीयू में जन ख़ुद्दारी लेटी है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कौन सी आरजू जिबह कर लें। कौन सी शर्त पर सुलह कर लें।। जुल्फ़ तेरी जो सर न हो पाए तुम कहो और क्या फतह कर लें।। तुम जो ख़ामोश हो तो किस दम पर कोई फ़रयाद या जिरह कर लें।। साथ तुम हो न चाँद है रोशन तीरगी में कहाँ सुबह कर लें।। जब मिले हो तो खानकाहों पर क्या हम अपनी भी खानकह कर लें।। तेरी ख़ातिर कहाँ कहाँ न लड़े और किस किस से हम कलह कर लें।। और कैसे करार पाएं हम ख़ुद को बेफिक्र किस तरह कर लें।। सुरेश साहनी, कानपुर
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अब कोई साहिबे-किरदार न ढूंढ़े मुझमें। मेरे जैसा कोई हर बार न ढूंढ़े मुझमें।। मुंसिफ़ाना हूँ तबीयत से सभी से कह दो कोई अपना ही तरफगार न ढूंढ़े मुझमें।। ग़ैर के घर हो भगतसिंह है चाहत जिसकी उससे कह दो कोई यलगार न ढूंढ़े मुझमें।। होंगे बेशक़ कई बीमार शहर में उसके हुस्न वैसा कोई बीमार न ढूंढ़े मुझमें।। इतनी मुश्किल से शफ़ा दी मेरे हरजाई ने अब कोई इश्क़ के आसार न ढूंढ़े मुझमें।। यूँ भी मजलूम हूँ मजदूर हूँ दहकां भी हूँ कोई परधान सा ऐयार न ढूंढ़े मुझमें।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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आदमी दो दिन इधर दो दिन उधर ज़िंदा रहा। किन्तु राक्षस आदमी में उम्र भर ज़िंदा रहा।। जिस किसी भी शख़्स की आंखों का पानी मर गया उसको ज़िंदा मान लें कैसे अगर ज़िंदा रहा।। एक अबला की किसी वहशी ने इज़्ज़त बख्श दी यूँ लगा उस शख़्स में इक जानवर जिन्दा रहा।। फिर से जिंदा हो न् जाये जानवर में आदमी हाँ यही डर रातदिन शामोसहर ज़िंदा रहा।। उम्र के हर मोड़ पर माँ बाप याद आते रहे मैं वो बच्चा था जो मुझमे उम्र भर जिन्दा रहा।। बंट चुके आँगन में दीवारों के जंगल उग गए फिर भी बूढ़े बाप की आँखों मे घर जिन्दा रहा।। दिल बियावां जिस्म तन्हा औ मनाज़िर अजनबी साहनी की सोच में फिर भी शहर ज़िंदा रहा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132