कल एक संस्थान के हिंदी अधिकारी जी ने मुझे फोन पर आमंत्रित करते कहा कि साहनी सर!इस बार हम आपके साथ हिंदी डे सेलिब्रेट करना चाहते हैं।क्या आप चौदह सितम्बर को उपलब्ध हो सकते हैं? मैंने समय पूछा तो उन्होंने ऑफ्टर नून बताया। मैंने उन्हें अपनी सहमति जताई। उन्होंने तुरंत गर्मजोशी से कहा ओह थैंक्स! आई विल वेलकम सर!! और सच बता रहे हैं भैया। हम इतना ग्लैड हुये कि अपने नाम के आगे पोएट भी एड कर लिया। वो अलग बात है घरवाली कहा करती है कि ई कविताई वगैरह छोड़ के कउनो ढंग का काम पकड़िये। मुला क्या करें छुटती नहीं है काफ़िर मुँह से लगी हुई।। व्यंग 27/08/22
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Showing posts from August, 2022
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चाहते हैं आप कवि सब सच लिखे चाहते हैं आप कवि ही क्रांति लाये चाहते हैं सब कलम कुछ आग उगले चाहते हैं सब कलम सर भी कटाये चाहते हैं आप फिर आज़ाद बिस्मिल जन्म लें लेकिन किसी दूजे के घर मे चाहते हैं आप का बेटा पढ़े और नेक हो साहब बहादुर की नज़र में सच बताना आप ने कब किस कलम की अपने स्तर से मदद कोई करी है दरअसल है सच कि सब ये सोचते हैं खेल है कविता हँसी है मसखरी है आप खुद क्यों मौन हैं अन्याय सहकर जी रहे हैं अंतरात्मा का हनन कर हर कलम बोलेगी सच बस शर्त ये है आप सच का साथ दें घर से निकल कर 28/08/22
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ज़ुल्म ने देखा हसरत से बेवा का तन काम के दास पर बेबसी हँस पड़ी।। उम्र भर जो डराती फिरे थी उसी मौत को देखकर ज़िन्दगी हँस पड़ी।। मौत के डर से भागी इधर से उधर आज करते हुए खुदकुशी हँस पड़ी।। रोशनी अपने होने के भ्रम में रही साथ दे कर वहीं तीरगी हँस पड़ी।। जन्म से मृत्यु तक जीस्त भटकी जिसे है सफ़र के सुन के आवारगी हँस पड़ी।। सुरेशसाहनी कानपुर 29/08/22
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मैं तो बड़े गुलाम साहब का शुरू से फैन रहा हूँ। लेकिन जब से सुना है कि गुलामे- मुस्तफा अपनी छियालीस साल की क़ैदे- बामशक़्क़त से आज़ाद हुए हैं। और उनकी हुब्बुलवतनी वज़ीरे- आज़मे-दोआलम साहब ने आहो ज़ारी के साथ मन्ज़रेआम की है बाखुदा अपने ज़मीर को बेचकर उनका फैन हो गया हूँ। ज़रा सोचिए किस तरह से बिचारे अपना ईमान बेचकर किसी पार्टी में शामिल हुए ,एम पी बने, कश्मीर जैसे सूबे के वज़ीरे आला बने । मजलिसे-आम और मजलिसे खास दोनों के तीस साल तक नुमाईन्दे बने रहे।एक आदमी पर इतना बोझ लादा गया।बिचारे चुपचाप सहते रहे।इतने बोझ में तो एक गधा भी जवाब दे जाता। ख़ैर आप तो पहले से बड़े मेरा मतलब के काबिल और साबिर हैं। और कहा भी गया है किस वक़्त बदल जाये भरोसा नहीं कोई ये आज का इन्सान भी मौसम की तरह है।। आज़् आप की मुल्कपरस्ती और अवाम से मुहब्बत देख कर रोना आ रहा है। कोई बात नहीं जाने दीजिए। मेरे लिए खुशी की बात ये है कि आपका वो बंगला सही सलामत है जिसमे आप गोल्फ़ खेल सकते हैं। भले इसके लिए कूफ़े की बैयत यज़ीद को देनी पड़ी , जनाब हिज़रत स...
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कुछ वज़ह तो मिले मुस्कुराने की फिर। वक़्त की कोशिशें हैं रुलाने की फिर।। अपनी ज़िद आशियाना बनाने की फिर। बर्क की कोशिशें हैं जलाने की फिर।। थक गए हम भरोसा दिलाते हुए उनकी फितरत रही आज़माने की फिर।। आ रहे हैं वो फिर से मनाने हमें उनमें हसरत जगी है सताने की फिर।। मौत ने कुछ तसल्ली जगाई मगर ज़ीस्त ने कोशिशें की डराने की फिर।। सुरेश साहनी, कानपुर 31/08/22
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यार हम तुम अलग हुए क्यूँकर। हम जुड़े थे तो इक कसम लेकर।। तुम हमे याद अब भी आते हो रात दिन सुबह शाम रह रह कर।। दिन का क्या है गुजर ही जाता है रात कटती हैं करवटें लेकर।। नींद में भी सफर में रहता हूँ तेरे ख्वाबों का कारवां लेकर।। आज भी तेरा मुंतज़िर हूँ मैं देखता हूँ मैं तेरी राहगुजर।। लाख जिन्दा हूँ मैं जुदा होके ये जुदाई है मौत से बदतर।। यार हमतुम अलग हुए क्यूँकर।। Suresh Sahani Kanpur
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यार इतनी बड़ी सजा मत दे। बिन तेरे जीस्त की दुआ मत दे।। दिल के पन्नों को फड़फड़ाने दे इनको कसमों तले दबा मत दे।। राख यादों की है दबाये रख भूल कर भी इसे हवा मत दे।। जिनके हाथों में सिर्फ पत्थर हों भूल कर उनको आईना मत दे।। दिल्लगी दिल से भूलकर मतकर ऐसे जज्बों को हौसला मत दे।। मैं मेरे हाल में मुनासिब हूँ यूँ मुझे देवता बना मत दे।। बेहतर है अदीब अनपढ़ ही ढाई अक्षर कोई पढ़ा मत दे।। सुरेश साहनी, अदीब, कानपुर
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आइये मिल कर पढ़ें यह मर्सिया मर चुकी संवेदनाओं के लिए या कि सोई चेतनाओं के लिए निज हितैषी भावनाओं के लिए।। आईये मिल कर पढ़ें यह मर्सिया फेसबुकिया प्रतिक्रियाओं के लिए व्हाट्स एप पर उग्रताओं के लिए कबीलाई भावनाओं के लिए।। आईये मिलकर पढ़ें यह मरसिया जाति वाली धर्म वाली सोच पर या कि हिंसक भीड़ वाली सोच पर हमसे क्या मतलब है,वाली सोच पर।। आईये मिलकर पढ़ें यह मर्सिया मुल्क़ की जम्हूरियत के नाम पर डूबती इन्सानियत के नाम पर गंग जमुनी तरबियत के नाम पर।। आईये मिलकर पढ़ें यह मर्सिया..... Suresh Sahani,kanpur
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समाअत फरमायें कोई मुतमईन है ज़वाब से। कोई खुश नहीं है हिसाब से।। जो ख़ुदा से है तेरी गुफ़्तगू तो डरे है किसके अज़ाब से।। तुझे हारना है तो हार जा मुझे क्या गरज है खिताब से।। उसे तालिमात से क्या गरज़ जिसे उज़्र है तो किताब से।। मेरी हौसलों की उड़ान को क्या डरा रहा है उक़ाब से।। उसे खार क्यों न अज़ीज़ हों जिसे डर लगे है गुलाब से।। उसे कैसे कह दें फक़ीर है करे ऐश है जो नवाब से।। सुरेश साहनी, कानपुर
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तमाम उम्र मेरी आशिक़ी ने रश्क़ किया। जो दिल लगा तो मेरी दिलवरी ने रश्क़ किया।। मुहब्बत करके भी डूबा नहीं मुहब्बत में तभी तो मुझसे मेरी ज़िंदगी ने रश्क़ किया।। ग़ज़ल से नज़्म तलक सब फिदा रहे मुझ पर इस एक फ़न पे मेरी शायरी ने रश्क़ किया।। किसी ने याद किया ना कोई भुला पाया इसी अदा पे मेरी बेख़ुदी ने रश्क़ किया।। जो तूने दे दिए वे ग़म ख़ुदा की नेमत थे मेरे ग़मों से मेरी हर खुशी ने रश्क़ किया।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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हम ही ख़ुद से छल करते हैं किसको कौन छला करता है। अपनी गलती से यह जीवन रेत सदृश फिसला करता है।। हम खुद को हम नाहक डरते रहते हैं हानि लाभ उत्थान पतन से कर्म प्रधान विश्व में डर क्या छुद्र ग्रहों के चाल चलन से उगता चढ़ता ढलता सूरज अपनी चाल चला करता है।।हम खुद को जन्म मृत्यु केवल पड़ाव है खोना पाना सहज क्रिया है ईश्वर ने सम्पूर्ण प्रकृति को जीवन का सन्देश दिया है नश्वरता के गुण से जातक वस्त्र नये बदला करता है ।।हम खुद को जीवन के आगे जीवन है सपनो की भाषा जीवन है स्वप्न सजाकर देखो नूतन आशा प्रत्याशा जीवन है जागी अधनिंदी आँखों में सपना एक पला करता है।। हम खुद को सुरेश साहनी,कानपुर
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सवाल पूछना जैसे कोई गुनाह हुआ। जो डर रहा है भला कैसा बादशाह हुआ।। सुना था हमने मुहब्बत में लोग बनते हैं हमारा दिल तो मुहब्बत में ही तबाह हुआ।। अगरचे तुम न दिखे कैसे चाँद रात हुई जहाँ न तुमसे मिले कैसा ईदगाह हुआ।। गुरुरे-हुस्न में तोड़ें हैं जिसने लाखों दिल हुआ उसी से हमें इश्क़ बेपनाह हुआ।। सुरेश साहनी, कानपुर
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हम हैं इक अदना कलमकार तुम हो ऊँचे साहित्यकार तुम कुछ भी लिख दो चलता है गाली गँवई सब अलंकार तुम शहरी सभ्य सुसंस्कृत हो हम निराभट्ट देशी गँवार तुम तथाकथित एलीट क्लास हम थर्डक्लास वाले विचार हम अच्छा लिख कर भी होंगे दो रुपया के कूड़ा कबार तुमको अग्रिम भी हासिल है हम सम्पादक को लगे भार तुम छंद बद्ध हम छंद मुक्त हम बन्द बुद्धि तुम समझदार तुमको आख़िर किसका भय है क्यों हम पर करते हो प्रहार ओ भटगायक दरबारदार ओ तथाकथित साहित्यकार...... Suresh Sahani ,कानपुर
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कुछ शह पर कुछ मातों पर। बातें निकली बातों पर।। शायर आँखे मूंदे थे मौजूदा हालातों पर।। काम किये होते तो क्या टिकटें बाँटी जातों पर।। माँ चुप थी आँगन रोया बहुएं खुश थी सातों पर।। प्यार हुआ जब दौलत से क्या कहता जज़्बातों पर।। रातें भारी नींदों पर दिन भारी हैं रातों पर।। मौसम नम था अश्क़ों से शक़ ठहरा बरसातों पर।। सुरेश साहनी, कानपुर
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इतवार को आलस्य को सिर चढ़कर बोलना चाहिए।लेकिन ऐसा नहीं होता। सप्ताह के छह दिन तो सुबह उठना तकलीफदेह रहता है।अलार्म बजते बजते परेशान हो उठता है। कई बार अलार्म की घण्टी बजते ही बंद कर देते हैं।लेकिन उससे घड़ी की सुइयों पर कोई फर्क नहीं पड़ता।फिर उठते गिरते दौड़ते भागते ड्यूटी पहुँच ही जाते हैं।यद्यपि यह तेजी सड़क पर नहीं रहती।यहाँ मेरा संतोषी होना मेरे काम आता है।सोचता हूँ "होइहि सोई जो राम रुचि राखा।।, पर रविवार की सुबह मैं जल्दी जाग जाता हूँ।मुझे लगता है कि रोज अकड़ कर बांग देने वाला मुर्गा भी सन्डे को मुझे देखकर शर्मिंदा हो जाता है।उधर पास के गुरुद्वारे से आवाज़ आ रही है 'कोई बोले राम राम कोई ख़ुदाये"..... मैं सुबह एक गिलास गुनगुना पानी एक बिस्किट और फीकी चाय लेने के पश्चात घर से प्रातःकालीन भ्रमण के लिए निकल पड़ा हूँ। उधर से मंदिर वाले पंडित जी आते दिख गये।मैंने उन्हें प्रणाम किया और उन्होंने जियत रहाS बच्चा! का आशीर्वाद दिया। आगे कूड़ा गाड़ी लिये जमादार खड़ा था। उसने देखते ही भैया राम राम कहा।मैंने भी राम राम कहकर जवाब दिया।अक्सर सुबह सुबह लोग राम राम कहके ही अभिवादन करते हैं। ...
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हमको बकरों से बैर नहीं। पर अब मुर्गों की ख़ैर नहीं।। कुछ भी हैरतअंगेज नहीं बकरे से भी परहेज़ नहीं सावन बीता अब देर नहीं।। अब सारी कसमें टूटेंगी फिर से फुलझड़ियां छूटेंगी अब से तौबा की टेर नहीं।। पौवा अद्धा पूरी बोतल ठेके मैखाने या होटल चल चलते हैं मुंह फेर नहीं।। छह दिन हाथों में ज़ाम रहे एक दिन बाबा के नाम रहे अब इतना भी अंधेर नहीं।। सब चलता है पर ध्यान रहे हर नारी का सम्मान रहे ये कम्पू है अज़मेर नहीं।। सुरेश साहनी , कानपुर
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वो फिर से याद आना चाहता है। न जाने क्यों सताना चाहता है।। नई तर्ज़े-ज़फ़ा ढूंढ़ी है शायद जो हमपे आज़माना चाहता है।। हमारे ख़्वाब कल तोड़े थे जिसने वही ख़्वाबों में आना चाहता है।। सरे-शहरे-ख़मोशा रो रहा है कोई किसको जगाना चाहता है ।। यहां दिल भी नहीं है पास अपने तो फिर क्यों दिल लगाना चाहता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मेरे अंजाम से कुछ तो अलग हो। ख़ुदा भी नाम से कुछ तो अलग हो।। अभी भी मौत पाती हैं वफ़ाएँ के इस ईनाम से कुछ तो अलग हो।। वही दिन रात की फिक्रें मुसलसल सुबह से शाम से कुछ तो अलग हो।। मेरे क़िरदार की तौफ़ीक़ बदले कि इस बदनाम से कुछ तो अलग हो।। कि हद नज़रे-उफ़क़ की कुछ तो बदले फ़लक़ से बाम से कुछ तो अलग हो।। निगाहों से पिला दे आज साक़ी ये मयकश आम से कुछ तो अलग हो ।। सुरेश साहनी, कानपुर
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सबके अपने अपने सुख हैं। सबके अपने अपने दुःख हैं।। सुख की वजह तलाशी किसने विला वजह के अपने दुःख हैं।। रोया कौन किसी की खातिर सबके हिस्से अपने दुःख हैं।। जेब पेट घर सभी भरे हैं फिर भी उनके अपने दुःख हैं।। सुख दुःख इस पर भी है निर्भर किनके कितने कितने दुःख हैं।। इनको उनके दुःख से सुख है दूजे का सुख अपने दुःख हैं।। और कबीर जगा करता है दुनिया के दुःख अपने दुःख हैं।। सुरेश साहनी,कानपुर
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व्यंग्य इस देश में संस्कार नाम का चीज ही नहीं बचा है।इतने बड़े संत पर अंगुली उठा रहे हैं,जिनके लाखों अनुयायी हैं।जिनके बड़े बड़े नेता भक्त हैं।जिनके पीछे हज़ारो गाड़ियां चलती हैं। एक मुर्ख सज्जन कह रहे थे,बाबा कपड़े उतार के मसाज कराते थे।" अब उन्हें कौन समझाए कि कौन कपड़ा पहन के बॉडी मसाज कराता है। लोग कह रहे हैं बाबा ने अपराध किया।बाबा कह रहे हैं कि उन्होंने अपराध नहीं किया। उनके भक्त कह रहे हैं बाबा निर्दोष हैं।आप एक आदमी की सही मानोगे या लाखो आदमी की। हमारे देश के साधू नग्न रहकर भी माया की चादर ओढ़े रहते हैं। यह उनके संस्कार हैं।मजाल है जो कानून की माया उन्हें स्पर्श भी कर जाये।बकौल भक्त यदि ऐसे दिव्य साधू महात्मा जेल जाते भी हैं तो यह उनकी लीला का अंश होता है। भला हो श्री श्री 1008 उदासीन स्वामी साक्षी जी महाराज का कि वे आशाराम से लेकर झांसाराम बाबा तक सबके पक्ष में खड़े रहते हैं।
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माना उतने भले नहीं थे। पर दिल से हम बुरे नहीं थे।। तुम्हें चाहना स्वाभाविक था वैसे हम मनचले नहीं थे।। कैसे तुम तक पहुंच न पाए गीत मेरे अनसुने नहीं थे।। इक दूजे को समझ न पाते इतने भी फासले नहीं थे।। साथ निभाते क्या जीवन भर शायद दिल ही मिले नहीं थे।। दुनिया से टकराते कैसे दोनों के हौसले नहीं थे।। कुछ तुममे भी हिम्मत कम थी कुछ हम भी सिरफिरे नहीं थे।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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जब मुझको सारे पत्थर दिल कहते है। कैसे बुत को लोग रहमदिल कहते हैं।। मुझ कबीर को कहते हैं मैं अनपढ़ हूँ पर नफ़रत वालों को क़ामिल कहते हैं।। मैं क्या हूँ मैं पूछ रहा हूँ यारब से कहने वाले ख़ुद को क़ाबिल कहते हैं।। मरघट पर भी मंज़िल मेरे हाथ नहीं लोग मरहलों को भी मंज़िल कहते हैं।। उनसे नज़र मिले भी बरसों बीत गये जाने क्यों सब मुझको बिस्मिल कहते हैं।। हुस्न मुझे कुछ तोहमत दे इनकार नहीं दिल वाले क्यों मुझको बेदिल कहते हैं।। हाथ पसारे जाना है जब दुनिया से फिर जग वाले किसको हासिल कहते हैं।। हँस कर मैंने जिन पर जान निछावर की वे तानों में मुझको बुज़दिल कहते हैं।। मैं तो दिल को उनका मंदिर कहता था पर वे अपने दिल को महफ़िल कहते हैं।। वो क्या मुझसे इश्क़ के मानी समझेंगे जो मेरी राहों को मुश्किल कहते हैं।। सुरेश साहनी,अदीब
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आपसे जब मुलाकात के कुछ बहाने मुझे मिल गये। जैसे दौलत ज़हां की मिली सब ख़ज़ाने मुझे मिल गये।। आरज़ू कसमसाने लगी ज़िन्दगी मुस्कुराने लगी जा चुके थे कभी हाथ से वो ज़माने मुझे मिल गये।। लामकां ज़िन्दगी थी मेरी दिल की दुनिया भी वीरान थी आपका आस्ताना मिला सौ ठिकाने मुझे मिल गये।। रंज़ो ग़म ज़िन्दगी से गये सूनापन ज़िन्दगी से गया आप ने जब से आवाज़ दी सौ तराने मुझे मिल गये।। इसके पहले तो हालत ये थी होश इतना भी मुझको न था कब अलाने गए छोड़कर कब फलाने मुझे मिल गये।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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अधूरी जिंदगी की ख्वाहिशे हैं। हर एक सूं गर्दिशे ही गर्दिशें हैं।। यहाँ मिटटी का एक मेरा ही घर है मेरे घर के ही ऊपर बारिशें हैं।। मेरा हासिल न देखो मुख़्तसर है ये देखो क्या हमारी कोशिशें हैं।। इसे कह लो मेरी दीवानगी है हम अपने कातिलों में जा बसे हैं।। मेरी मंजिल मगर आसां नहीं हैं यहाँ तो हर कदम पर साजिशें हैं।। मुहब्बत से बड़ा मजहब नहीं है तो क्यों दुनियां में इतनी रंज़िशें हैं।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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आप का प्यार मौसमी क्यों है। आपका रुख सियासती क्यों है।। जबकि चेहरे बुझे बुझे से हैं आइना इतना आतिशी क्यों है।। क्यों उछलता नहीं सवाल कोई पत्थरों की यहाँ कमी क्यों है।। आग हर दिल में है ये मान लिया आग दिल में दबी दबी क्यों हैं।। क़त्ल से इंकलाब आते हैं फिर यहां सिर्फ़ मातमी क्यों है।। एक दिन ये सवाल उट्ठेगा घर तुम्हारा ही आख़री क्यों है।। सुरेशसाहनी, अदीब , कानपुर
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मैं खोज रहा हूं कविता को वीरानों में वन उपवन में किंचित वह बैठी है जाकर कंक्रीटों के वातायन में हर भीड़ भरे सन्नाटे में सूनेपन के कोलाहल में उद्गारों की नीरवता में या चिंताओं की हलचल में वह स्वार्थ भरे दुत्कारों में या त्याग लिए अवगाहन में उन व्यंग भरी मुस्कानो में या प्यार भरे उस गुस्से में कविता को जा जा खोजा है इस जीवन के हर हिस्से में शायद वह छिपकर बैठी हो जाकर खुशियों के आंगन में क्या मौत बदल हो सकती है इस जीवन के खालीपन का क्या राज सभाओं में होगा हल मेरे एकाकीपन का क्यों छंद निरुत्तर बैठे हैं दुनियादारी की उलझन में।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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आज वही सब खुद भी दहले बैठे हैं। जो जो बारूदों पर टहले बैठे हैं।। चकाचौंध होते हो जिन किरदारों से वे ही बनकर साँप सुनहले बैठे हैं।। भटका देंगे तुम्हें तुम्हारी मन्ज़िल से मन्ज़िल पर जो बने मरहले बैठे हैं।। साँप बिलों में मिलते हैं तुम सोचोगे आज बनाकर महल दुमहले बैठे हैं।। वक्त शेर को सवा सेर दे देता है हर नहले के आगे दहले बैठे हैं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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रोज पटकती हैं लहरें सर काहे को। उठ उठ गिरती हैं साहिल पर काहे को।। दूर क्षितिज पर आ धरती के पैरों पर गिर गिर जाता है वह अम्बर काहे को।। हम सागर में मीलों अंदर जाते हैं तुम साहिल पर हो तुमको डर काहे को।। सागर डरता है बादल बन जाने से वरना उठता रोज बवण्डर काहे को।। जो मरने से डरते हैं वे क्या जाने साहिल साहिल हैं अपने घर काहे को।। वैतरणी हिमगिरि से पार अगर होती सारे जाते गंगा सागर काहे को।। लादे फिरते हो दुनिया की चिन्ताये तुम अदीब बन बैठे शायर काहे को।। सुरेश साहनी,अदीब
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शीशा शीशा पत्थर पत्थर पटकोगे। क्या अपनी ख़ुद्दारी ही धर पटकोगे।। हाथ पसारोगे किस किस के आगे तुम किसकी किसकी ड्योढ़ी पर सर पटकोगे।। गर्द ज़मीं की ले जाओगे अम्बर तक या धरती पर लाकर अम्बर पटकोगे।। कुछ अपनी गलती भी मानोगे या फिर अपनी हर ख़ामी औरों पर पटकोगे।। माना साहब शौचालय बनवा देंगे भूखे पेटों क्या ले जाकर पटकोगे।। पैर पटकना बच्चो को ही भाता है पागल हो क्या बूढ़े होकर पटकोगे।। साँप निकल कर कुर्सी पर जा बैठा है अब क्या लाठी अपने ऊपर पटकोगे।। घर छूटा नौकरी गयी हल बैल बिके बेगारी में कितना जांगर पटकोगे।। सुरेश साहनी, अदीब
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रियाया के लिए भी सोचिए कुछ। ख़ुदा के वास्ते अब कीजिये कुछ।। हमारी जान किश्तों में न जाय ज़हर ही दीजिये पर दीजिये कुछ।। भला क्यों मुफ़्त देंगे ज़िन्दगी ये यहाँ मरना भी है तो चाहिये कुछ।। यहां सब तो खरीदा जा रहा है जिगर किडनी कि आंखें बेचिये कुछ।। भले सरकार बहरी हो चुकी है बहुत चुप रह चुके अब चीखिये कुछ।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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ज़िन्दगानी अपनी कामिल तो नहीं पर ठीक है। आप जैसा कोई हासिल तो नहीं पर ठीक है।। राह पर हैं जिंदगी भर , राह में ठहराव भी मरहले हैं कोई मंज़िल तो नहीं पर ठीक है।। चाहते थे इस नशेमन को नज़र लगने न दें दाग ही है कोई काजल तो नहीं पर ठीक है।। हम तुम्हारे इश्क़ में जो मर मिटे तो क्या हुआ हाँ तेरी चाहत के क़ाबिल तो नहीं पर ठीक है।। हम जहाँ हैं दर्द है, यादें हैं तनहाई भी है ये तेरे दर्जे की महफ़िल तो नहीं पर ठीक है।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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छुपे चाँद रातों में फैले उजाले। इन्हीं से छिने मुफ़लिसों के निवाले।। इन्हीं में कहीं आदमियत दफ़न है ये मंदिर ये मस्जिद ये गिरजे शिवाले।। कहीं एक कोने में बच ना गयी हो कोई आके एहसास दिल से निकाले।। कहे द्रौपदी कृष्ण क्या क्या करेंगा सुदामा को देखे कि तुमको सम्हाले।। करो कर्म कुछ है यही धर्म प्यारे नहीं कुछ मिलेगा यहाँ बैठे ठाले।। #सुरेशसाहनी
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कृष्ण है तन मेरा राधिका मन मेरा मत कहो बावरी श्याम है मन मेरा......... प्रेम आधा अधूरा कोई राग है या कि चढ़ते हुए चाँद का दाग है रागमय तन हुआ प्रेममय मन हुआ दागमय जब हुआ पीत दामन मेरा....... प्रेम में तो हलाहल भी अमृत लगे ज़िन्दगी से परे प्रेम शाश्वत लगे जब गरल पी गए मृत्यु को जी गए प्रेम में बन गया विश्व आँगन मेरा....... ब्रज की गलियों से जमुना के तट तक चलें बांसुरी की तरह हरि अधर से मिलें तन ये राधा रहे मन ये मीरा रहे साथ ब्रज में कटे शेष जीवन मेरा........
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जब तक तुम धड़कोगी दिल में तब तक गीत सुनाऊंगा मैं। जब तक महकोगी साँसों में तब तक तो मुस्काउंगा मैं।। कभी घड़ी की सुई जैसे साथ साथ टिक टिक करती हो कभी प्यार से छोटी छोटी बातों पर चिक चिक करती हो यूँ ही अमरबेल बन रहना पीपल बन हरियाउंगा मैं।। जीवन पथ पर हम दोनों हैं दो डग जैसे आगे पीछे जीवन के उत्थान पतन में साथ चले हम आँखे मीचे यूँ ही साथ निभाती रहना हँस हँस कर ढल जाऊंगा मैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
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साहिल पे सर पटक के समंदर चला गया। गोया फ़क़ीर दर से तड़प कर चला गया।। जब साहनी गया तो कई लोग रो पड़े कुछ ने कहा कि ठीक हुआ गर चला गया।। ग़ालिब ने जाके पूछ लिया मीरो-दाग़ से ये कौन मेरे कद के बराबर चला गया।। महफ़िल से उठ के कौन गया देखता है कौन कल कुछ कहेंगे चढ़ गई थी घर चला गया।। अश्क़ों में किसके डूब के खारी हुआ अदीब चश्मा कोई मिठास का अम्बर चला गया।। सुरेश साहनी, अदीब
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मेरी आज की रचना। जन्मदिन मेरी रचनाधर्मिता में बाधक नहीं । समाअत फरमाएं। क्या मिली है ज़िन्दगी तक़दीर में। दिल है दरिया तिश्नगी तक़दीर में।। हर तरफ जलवे मुनव्वर हैं मगर है बला की तीरगी तक़दीर में।। उसने आंखों के उजाले ले लिए और भर दी रोशनी तक़दीर में।। जबकि रांझा ने नहर ला दी मगर क्या बदा था हीर की तकदीर में।। एक दुखियारा सहम कर मर गया इस तरह आयी खुशी तक़दीर में।। सुरेश साहनी, कानपुर
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समय मिले तो इसी प्रेम पर कल इक नई कहानी लिखना। मैं ढाई आखर बाँचुंगा तुम कबीर की बानी लिखना।। मेरे सपनों में तुम अक्सर जब मुझसे मिलने आए हो बिल्कुल परीकथाओं जैसे इक क़िरदार नज़र आये हो अब मिलना तो रोजी रोटी में हैरान जवानी लिखना।। मैं ढाई आखर.... जिस दुनिया मे प्यार मुहब्बत मजहब है वो और कहीं है जिस महफ़िल में प्यार का ऊँचा मनसब है वो और कहीं है यह दुनिया नफरत की लिखना दौलत की मनमानी लिखना।। मैं ढाई आखर ...... आधी उम्र बिताकर हम तुम क्या फिर स्वप्न सजा सकते है पहले जैसे अनजाने बन क्या वे पल दोहरा सकते हैं क्यों फिर वह पागलपन करना किसको राजा रानी लिखना।।मैं ढाई आखर........ सुरेश साहनी, कानपुर
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आँसू से गागर भर भर कर अंतरतम तक सूख चुका हूँ अपनी पनिहारिन से मिलकर पनघट से प्यासा लौटा हूँ प्रणयाकुल तन जलते जलते टूट चुका है खुद को छलते थकी आस ले चलते चलते किस्मत भरी गागरी जैसा मन्ज़िल पर आकर फूटा हूँ चंचल नद सी तुम बौराई यद्यपि देता रहा दुहाई किन्तु न तुमने प्यास बुझाई सागर से टकरा सकता था किन्तु हृदय से हार गया हूँ सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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कविता अच्छी या बुरी नहीं होती पर कवि का छोटा या बड़ा होना सुना है छोटे कवि बहुत बड़े होकर भी छोटे ही रहते हैं बड़े कवि कभी छोटे नहीं रहे होते हैं उनकी कविता से बड़ी उनकी लॉबी होती हैं पहुँच होती हैं शायद शोच भी छोटा कवि किसी पौधे की तरह बरगद के नीचे बढ़ने का प्रयास करता है और एक दिन गुम हो जाता है अपनी कविताओं की तरह
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आँख में फिर वही नमी क्यों है। आज बेचैन आदमी क्यों है ।। ज़श्न होते हैं एहतियात लिए आज खतरे में हर ख़ुशी क्यों है।। हर तरफ ज़िन्दगी मनाज़िर है फिर हवाओं में सनसनी क्यों है।। ऐ शहर तुझसे आशना हूँ मैं पर तेरे लोग अज़नबी क्यों है।। कल तलक मैं तेरी ज़रूरत था यकबयक इतनी बेरुखी क्यों है।। तेरी आँखे तो खुद समंदर हैं तेरी आँखों में तिश्नगी क्यों है।। मौत खुद चल के पास आएगी ज़ीस्त तू तेज भागती क्यों है।। हर तरफ़ हैं हसीन नज़्ज़ारे मेरी आँखों में इक तू ही क्यों है।। सुरेश साहनी
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धूप ज्यादा है रोशनी कम है। तम के सूरज की ज़िंदगी कम है।। मयकदे , महफिलें हैं साकी भी सिर्फ़ प्यासों में तिश्नगी कम है।। रात का खौफ़ क्या सताएगा हौसलों से तो तीरगी कम है।। दुश्मनी है तो है बहुत दो पल दोस्ती को तो ज़िन्दगी कम है।। उसकी नज़रों ने ज़िन्दगी दे दी उसको इस बात की खुशी कम है।। उस की आँखों में झाँक कर देखो अजनबी होके अज़नबी कम है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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ऐब मेरे कोई गिनाए मुझे। आईने तो न रास आये मुझे।। ज़िन्दगी कैफ़ से न भर जाए कोई इतना भी ना सताए मुझे।। मैं सही हूँ तो कोई बात नहीं पर गलत हूँ तो वो बताए मुझे।। याद रखने की ज़हमतें छूटे भूलता है तो भूल जाये मुझे।। उसकी ज़न्नत मुझे कुबूल नहीं मेरी दुनिया मे छोड़ जाये मुझे।। मैं कोई मीर कोई दाग़ नहीं किसने बोला वो गुनगुनाये मुझे।। पहले मंथन करे सवालों पर फिर हलाहल कोई पिलाये मुझे।। सुरेश साहनी,कानपुर
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हम को सम्हालने चले थे खुद मचल गए। एक रोज में ही जाने वो कितना बदल गए।। बातों में तल्खियाँ थीं न जाने कहाँ गयीं कड़वाहटों के ढेर शकर जैसे गल गए।। रखते थे जो हरएक कदम एहतियात से वो इश्क की गली में कहाँ से फिसल गए।। दावा था हमको ढूंढ़ के लाएंगे एक दिन अब दांव देके जाने किधर खुद निकल गए।। बचपन के शौक ,आदतें,दीवानगी जूनून हैरत है हम न जाने कहाँ से सम्हल गए।। Suresh sahani
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सत्य छुपाकर कविता लिख। झूठ सजाकर कविता लिख।। लिखना ग़र बीमारी है शौक बताकर कविता लिख।। कौन मरा है भूखे से कौन मरा लाचारी से कौन कर्ज में डूब गया कौन मरा बेगारी से तू सबको नाकारा कह चोर बताकर कविता लिख।। जिस जिस की सरकार बने उनको अच्छा कहता चल सत्ता के विपरीत न चल उस धारा में बहता चल अन्तरात्मा लाख कहे आँख चुराकर कविता लिख।। जो सत्ता में आता है मद-अँधा हो जाता है जन को दुर्बल करता है खुद मोटा हो जाता है तू भी निज नैतिकता का मोल लगाकर कविता लिख।। Suresh sahani
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गो तुम्हें हर्फे वफ़ा याद नहीं। क्या तुम्हें साथ मेरा याद नहीं।। बात के अपनी धनी थे जो तुम क्या तुम्हें अपनी अना याद नहीं।। जिन दुआओं में हमें मांगा था क्या तुम्हें कोई दुआ याद नहीं।। मेरी हर बात बुरी है माना क्यों तुम्हें अपनी ख़ता याद नहीं।। तुम भले कितने बड़े हो जाओ पर न कहना कि ख़ुदा याद नहीं।। Suresh sahani kanpur
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चलो बड़े हो बने रहो सर। ठूंठ के जैसे तने रहो सर।। फिर गरीब की लुटिया थारी जब तक ना बिक जाए सारी तब तक ज़िद पर ठने रहो सर।। जितना जनता से ले पाओ पूंजीपतियों को दे जाओ जनता के झुनझुने रहो सर।। जनता सब कुछ सह सकती है धर्म बिना कब रह सकती है हरदम खाई खने रहो सर!! कोरी नैतिकता क्या होगी थोथी मानवता क्या होगी राजनीति में घने रहो सर!! सुरेश साहनी कानपुर
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वो क्या गया कि रौनके-आराईयां गयीं। खुशियाँ न जाने कौन से अंगनाईयां गयीं।। एहसानमन्द हूँ कि वो कुछ ग़म तो दे गया ग़म और दर्द साथ हैं तन्हाईयाँ गयीं।। अब मेरा हाल आके कोई पूछता नहीं दिल को सुकून है कि मसीहाईयाँ गयीं।। हालात-ए-ग़म का शुक्रिया कैसे अदा करें दुनिया की उलझनें गयीं रुसवाईयाँ गयीं।। मेरी शिफ़ा का राज मेरे चारागर से पूछ ऐंठन के साथ साथ ही अंगड़ाईयाँ गयीं।। Suresh sahani, कानपुर
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बन्ध और अनुबन्ध इन्ही शर्तों पर जीवन अपने हिस्से महज वेदना और समर्पण क्या उनका अपना कोई दायित्व नही है यही वेदना क्यों उनमे अपनत्व नही है? तुमने उनके लिए किया क्या?क्या बोलोगे किया धरा निर्मूल्य हुआ तब क्या बोलोगे तुम अपने प्रति कोई अपेक्षा क्यों करते हो अपना तुमको छोड़ गया तब क्या बोलोगे? खूब समर्पित रहो अंत में यह पाओगे अपनों को सब देकर खाली रह जाओगे बंधु बान्धव और यहां तक कि भार्या भी पूछेंगे क्या किया कहो क्या बतलाओगे? सुरेशसाहनी
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मौत पर सन्ताप कितना है कि इस पर लाभ कितना हानि किस हद तक हुई है दर्द का परिमाप कितना मृत्यु अंतिम सत्य है पर मृत्यु का नगदीकरण भी सत्य है अब आर्थिक - व्यवसाय है जीवन-मरण भी आंसुओं वाले फुटेज भी मृत्यु का लाइव प्रसारण बिक रहे अधिकार सारे कुछ नहीं होता अकारण जब किराये पर रुदाली भीड़ तक मिलने लगी है भावनाएं आज अंतिम स्वांस तब गिनने लगी है।।
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काश्मीर के महाराजा हरिसिंह अपनी हठधर्मी के चलते स्वतंत्र रहना चाहते थे। जब पाकिस्तान की सेना ने पख्तून लड़ाकों के वेश में अपनी सेना से हमला करवाया तब इस राजा ने लार्ड माउंटबेटन से मदद मांगी। गवर्नर जनरल ने भौगोलिक परिस्थितियों का हवाला देते हुए स्वतंत्र राज्य बनने देने का कोई विकल्प स्वीकार नहीं किया। भयभीत महाराज हरिसिंह ने तब भारत से मदद मांगी। भारत ने तब महाराजा के सामने विलय का प्रस्ताव रखा जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया हरि सिंह ने 26 अक्टूबर, 1947 को इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसेशन पर हस्ताक्षर किए और गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने 27 अक्टूबर, 1947 को इसे स्वीकार कर लिया। समझौते के दौरान लॉर्ड माउंटबेटन ने कहा कि “यह मेरी सरकार की इच्छा है कि जैसे ही कश्मीर में कानून-व्यवस्था बहाल हो जाए और उसकी धरती पर आक्रमणकारियों को हटा दिया जाए, तब जनमत संग्रह के जरिए विवाद को सुलझाया जाएगा।” भारत सरकार ने स्थानीय प्रतिनिधि के रूप में जेल से शेख अब्दुल्ला को रिहा करवाकर वहां की बहुसंख्यक जनता का विश्वास बनाना चाहा, जिसमे वह सफल भी हुए।किन्तु बाद में शेख अब्दुल्ला भी आज़ादी की ब...
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जैसे तैसे जिंदगी के साल इतने जी गए। कौन जोड़े कितना खाया और कितनी पी गए।। उसने मुझको याद रखा या मुझे बिसरा दिया कौन इसमें सर खपाता उसने मुझकोक्या दिया हमने जो भी राह छोड़ी फिर उधर कम ही गए।। हम रहे जिस हाल में भी ये दुआ करते रहे वो जहाँ जैसा हो जिसके साथ भी हो खुश रहे हमको क्या अफ़सोस कब जिन्दा थे जो मर भी गए।। वो न आया सिर्फ अपनी याद भिजवाता रहा और क्या था पास अपने सब्र भी जाता खाली हाथों आये थे दुनिया से भी खाली गए।।
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मैं दरिया होके भी प्यासा रहा हूँ। सिला होने का अपने पा रहा हूँ।। मेरे बेदाग कपड़ों पे न जाओ लहद को क्या पता मैं आ रहा हूँ।। इन्ही में दर्द की बारीकियां हैं ख़ुशी के गीत जो मैं गा रहा हूँ।। कभी महफ़िल कभी खलवत मिली है कभी जंगल कभी सहरा रहा हूँ।। तुम्हारी बन्दगी है जानलेवा सनम-ए-संग होता जा रहा हूँ।। पता होता तेरा तो क्यों भटकता अभी दैरो-हरम से आ रहा हूँ।। हमारे इश्क़ में कोई कमी थी तभी तो उम्रभर तन्हा रहा हूँ।। सुरेश साहनी अदीब
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इधर बरसात अच्छी हो रही है। कई दिन से बैठकी हो रही है।। तलब है चाय की पर दूध कम है उधर हलकान बच्ची हो रही है।। कहाँ बरसात में कुछ काम होगा दिहाड़ी रोज सस्ती हो रही है।। वो बनिया आज चिढ़ कर कह रहा था कई दिन से उधारी हो रही है।। उधर आंखों में सबकी जानवर हैं इधर बिटिया सयानी हो रही है।। सुरेश साहनी,कानपुर
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कितनी बार सल्तनत बदली कितनी बार लुटा हूँ यारों। मैँ दिल्ली का लाल किला अब पहली बार बिका हूँ यारों।। लाल किला होने से पहले मै दिल्ली की मिट्टी ही था दिल्ली के होने से पहले मैं दिल्ली की धरती ही था बहुत लड़ा हूँ नहीं थका था लेकिन आज थका हूँ यारों।। मरे हुए अंतर्मन वाले नेताओं ने बहुत छला है जनता को वादों से बढ़कर शायद कुछ भी नही मिला है ऐसे नेताओं से मिलकर बेहद शर्मिंदा हूँ यारों।। मैँ दिल्ली का लाल किला हूँ...... कल मेरी माता के बेटे घर देहरी आंगन बेचेंगे सरकारी सम्पति बेचेंगे सड़कें स्टेशन बेचेंगे देश मगर मत बिकने देना यही दुआ करता हूँ यारों।। मैं दिल्ली का लाल किला हूँ.........
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अभी सदमे से मैं उबरा नही हूँ। ये हैरत है कि मैं टूटा नही हूँ।। किसी झोंके से मैं पाला बदल लूँ कोई टूटा हुआ पत्ता नही हूँ।। हमें मालूम है वह जा चुका है समझता हूँ कोई बच्चा नही हूँ।। सहारा दोस्तों को दे न पाऊं अभी इतना गया गुज़रा नही हूँ।। उसी ने साथ छोड़ा है हमारा मैं अपनी बात से बदला नही हूँ।। अभी कुछ रोज मन भारी रहेगा अभी जी भर के मैं रोया नही हूँ।। अभी से कीमतें लगने लगी हैं अभी बाज़ार में पहुँचा नही हूँ।। #सुरेशसाहनी
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अब के हालात तो न लिक्खूंगा। मैं सियासात तो न लिक्खूंगा।। लाख सरकार ये निकम्मी हो मैं यही बात तो न लिक्खूंगा।। बात होती है जब कराची की यूपी गुजरात तो न लिक्खूंगा।। उसको महफ़िल में भर नज़र देखा ये मुलाकात तो न लिक्खूंगा।। तुमको है शौक तुम ज़हर पी लो खुद को सुकरात तो न लिक्खूंगा।। आसमानों से आग बरसी है इसको बरसात तो न लिक्खूंगा।। मेरे उसके निजी मसाइल हैं इश्तेहारात तो न लिक्खूंगा।। #सुरेशसाहनी
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तू शिकायत कर गया मुझसे न शिकवा हो सका। मैं तेरा तो हो गया पर तू न मेरा हो सका।। दिल की बातों को न था होठों पे लाने का चलन तू न आंखे पढ़ सका मुझसे न ख़ुतबा हो सका।। इश्क़ मेरा आजकल के इश्क़ के जैसा न था हुश्न के बाज़ार में दिल से न सौदा हो सका।। एक ही मन्ज़िल के राही अजनबी से यूँ रहे तू न ऐसा बन सका मैं भी न वैसा हो सका।। ख्वाब में मिलने की चाहत नींद में खोने का डर इस अधूरे इश्क़ का किस्सा न पूरा हो सका।। #सुरेशसाहनी
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चल मुझे भी ले के चल उस गांव प्रीतम धूप भी विश्राम पाती है जहाँ पर रात भर उनकी प्रतीक्षा में थकी सी चांदनी आराम पाती है जहाँ पर पर्वतों के पार ले चल उस जगह तक ओढ़ता है रवि जहां संध्या प्रहर को चल जहाँ मधुमास अलसाता है दिन भर रात में करता है आलिंगन शिशिर को चल समय की वर्जनाओं से परे भी ज़िन्दगी कुछ काम पाती है जहाँ पर... चल जहाँ पर दूर तक फैले नजारे स्वागतम के गीत गाते दिख रहे हों चल जहाँ आकाश में बाहें पसारे चाँद तारे मुस्कुराते दिख रहे हों देह की आसक्ति के बिन काम रति की चाहना अंजाम पाती है जहाँ पर..... #सुरेशसाहनी
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हुस्न इतना भी दागदार न कर। इससे बेहतर है प्यार वार न कर।। फ़ितरतन इश्क़ जान देगा ही तुझको जीना है जाँनिसार न कर।। इश्क़ और मुश्क कब छुपे हैं पर कम से कम ख़त तो इश्तेहार न कर।। इश्क़ इतना भी ताबदार नहीं यूँ अयाँ हो के बेक़रार न कर।। दिल के बदले में दिल ज़रुरी है दिल के मसले में तो उधार न कर।। क्या गए वक़्त से मुतास्सिर है वो न आएगा इन्तिज़ार न कर।। जब तू बाज़ार में नुमाया है दफ़्तरे-दिल तो तारतार न कर।। सुरेश साहनी, कानपुर
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चलो न यूँ करें हम तुम यहीं से लौट चलें सफर से तुम भी थक चुके हो हम भी आज़िज़ है तुम्हारी राह कई देखते हैं हसरत से न जाने कितने सहारे बड़ी मुहब्बत से मैं क्यों कहूँ तुम्हे चाहा है हमने शिद्दत से नहीं है प्यार तो कोई सफर है बेमानी अगर न दिल मिले तो हमसफ़र है बेमानी वो रौनकें-फ़िज़ां-ओ-रहगुज़र है बेमानी चलो कि मुड़ चलें राहों में शाम से पहले चलो कि तुमको नया हमसफ़र तो मिल जाये चलो कि हम भी कोई ग़मगुशार तो पा लें कि मयकदा हमें और तुमको घर तो मिल जाये सफ़र से तुम भी थक गये हो हम भी आज़िज़ हैं......
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भीगा पड़ा शहर सावन है। और टपकता घर सावन है।। अड़चन लिए सफर सावन है कीचड़ भरी डगर सावन है।। झोपड़ियों में जाकर देखो टूट चुका छप्पर सावन है।। कहीं बाढ़ में बह ना जाये गांव गली का डर सावन है।। ठहर गयी है रोजी रोटी ऐसी दिक़्क़त भर सावन है।। राशन पानी खत्म मजूरी हम पर एक कहर सावन है।। कहने वाले कह देते हैं शिव बमबम हरहर सावन है।। हम ऐसा भी कह सकते हैं रोगों का दफ्तर सावन है।। आप भले माने ना माने ऐसे ही मंज़र सावन है।। कैसे माने कैसे कह दें फागुन से बेहतर सावन है।।
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आज की ग़ज़ल समाअत फरमायें।--- गर्दिशों की उठावनी कर दे। खत्म ग़रीब- उल- वतनी कर दे।। उनके हिस्से में चाँद तारे रख कुछ इधर भी तो रोशनी कर दे।। बेहतर है फ़कीर रख मुझको हाँ मुझे बात का धनी कर दे।। ज़िस्म जैसा है ठीक है फिर भी मेरी अर्थी बनी ठनी कर दे।। दिन किसी भी तरह गुज़ार लिया शाम कुछ तो सुहावनी कर दे।। धूप से कब तलक तपायेगा मुझको इतना न कुन्दनी कर दे।। सुरेश साहनी
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मुहब्बत तिश्नगी का नाम है क्या? हमारा हुस्न कोई ज़ाम है क्या? गली में मेरी मिलते हो हमेशा सही कहना तुम्हें कुछ काम है क्या? ये जो तुम इश्क़ बोले हो हवस को इसी से आशिक़ी बदनाम है क्या? चले आये हो मक़तल में भटककर पता है इश्क़ का अंजाम है क्या? कि हमने जान देके दिल लिया था बतायें क्या कि दिल का दाम है क्या? यहाँ दिन रात हम खोए हैं तुममे सुबह क्या है हमारी शाम है क्या? सलीबो-दार ओ जिंदानों-मक़तल सिवा इनके कोई ईनाम है क्या?..... सुरेश साहनी, कानपुर
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कोई कहकर मुहब्बत कर रहा है। कोई स्वीकारने से डर रहा है।। अधूरा लग रहा है सब किसी को कोई सब कुछ मुक़म्मल कर रहा है।। किसी ने तिश्नगी देखी लबों की कोई होठों से प्याले भर रहा है।। रही इक शख़्स को मुझसे भी उलझन मुझे भी दर्द ये अक्सर रहा है।। उसी ने अजनबी मुझको बताया जो मेरे साथ जीवन भर रहा है।। ज़हर पीने से है क्या उज़्र पूछो बताता है कि वो शंकर रहा है।। सुरेश साहनी, अदीब कानपुर
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जिनकी यादों को सिरहाने रखते हैं। अक्सर वो ही लोग भुलाने लगते हैं।। ज़ख़्म जिगर के भरना मुश्किल है कितना कम होने में दर्द ज़माने लगते हैं।। नींद वहीं गायब हो जाती है अक्सर जब ख़्वाबों में उनको पाने लगते हैं।। राज अयाँ हो जाते हैं वो शह करके अक्सर जिनको लोग छुपाने लगते हैं।। इश्क़ वहाँ लगती है इक नेमत लगने जब ज़ख्मों को लोग सजाने लगते हैं।।
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लग रहा है इस शहर में आज था कुछ हाँ अभी दो चार गज़लें कुछ परीशां सी दिखी हैं एक ने तो एक होटल से निकल कर उड़ रही काली घटाओं में उलझती कुछ निगाहों के सवालों को झटक कर बोझ सा अपने सरों पर बाँध कर कुछ पर्स में रखने के जैसा रख लिया है छन्द जैसा रोब रखते चंद मुक्तक कुछ पुरानी शक्ल के दोहे निकलकर जो बिगड़कर सोरठा से हो चुके हैं नए गीतों को कहन समझा रहे हैं उस ज़माने की कहानी जिनको शायद आज अगणित झुर्रियों ने ढक लिया है और अब उन हुस्न के ध्वंसावशेषों की- कथाओं को नए परिवेश में फिर से सुनाकर सोचते हैं ग़ज़ल उन पर रीझकर के ढूंढ़कर फिर सौप देगी कल के उजले और काले कारनामे जो कि अब अस्तित्व अपना खो चुके हैं कल शहर फिर कुछ करेगा.... सुरेश साहनी ,कानपुर
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इस कड़ी सी धूप में इक शामियाना चाहिये। हाँ तुम्हारे साथ बस इक पल सुहाना चाहिए।। चार दिन की ज़िंदगी है एक लंबा सा सफ़र साथ कोई हमसफ़र जाना अज़ाना चाहिये।। अपने पहलू में बिठा कर गेसुओं की छाँव दो उम्र भर किसने कहा दिल मे ठिकाना चाहिए।। और फिर शहरे-ख़मोशा तक चलें किसने कहा उठ के उनको दो कदम तो साथ आना चाहिये।। आपके इनकार की कोई वजह शक या शुबह किसलिये हैं दूरियाँ कुछ तो बताना चाहिए।। लोग देखे हैं, कोई आ जायेगा ,जल्दी में हैं हमसे बचने के लिये कुछ तो बहाना चाहिए।। नाज या नखरे,दिखाना हुस्न का हक़ है मगर इश्क़ जब मरने पे आये मान जाना चाहिए।। सुरेश साहनी, कानपुर
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महका महका मेरा आँगन रहता है। तुम रहती हो गोया गुलशन रहता है।। रातें रजनीगंधा सी महकाती हो दिन भर सारा घर चंदन वन रहता है।। चाँद नहीं आता है कोई बात नहीं मेरा घर तो तुमसे रोशन रहता है।। जिस घर पूजी जाती है प्रातः तुलसी वो घर मंदिर जैसा पावन रहता है।। एक तुम्हारे होने से मेरे घर मे नियमित पूजन अर्चन वंदन रहता है।। तुम कहती हो आप का घर अपने घर को हाँ यह सुनने को मेरा मन रहता है।। मेरा होना है घर का गोकुल होना तुम रहती हो तो वृंदावन रहता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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अभी दुनिया कसैली हो गयी है। हवाएं भी विषैली हो गयी है।। कहूँ कैसे बदन-शफ्फ़ाक़ हूँ मैं नज़र उसकी जो मैली हो गयी है।। जवानी में जो महफ़िल लूटती थी वो अब कितनी अकेली हो गयी है।। वो खुशियां बांटती थी दोस्तों में जो अब ग़म की सहेली हो गयी है।। किसी की आँख का पानी मरा है नज़र अपनी पनीली हो गयी है।। वो नेता बन के आएं हैं ग़मी में ज़नाज़ा है कि रैली हो गयी है।। अभी उनको तवज्जह कौन देगा बिगड़ना उनकी शैली हो गयी है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मैँ अब बेहतर हूँ या पहले अपने को बेहतर पाता था कुछ भी कहलो उस माटी में मेरा बचपन खिल उठता था तब कुछ भी हो लेकिन हम खुद अपने जीवन के मालिक थे अपनी खुशियाँ अपने धन के हम अपने तन के मालिक थे धन भी क्या था घोंघे सीपी गोली कंचे कंकड़ पत्थर चढने को बापू के कंधे सोने को माँ की गोद सुघर जननी धरणी दो दो माएँ दोनों भर अंक खिलाती थीं मानों हम कृष्ण कन्हैया थे दो दो मांयें दुलराती थी खुशियों का कोई छोर न था मुझ पर दुःखों का जोर न था मेरे संगी साथी धन थे उस धन का कोई चोर न था।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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प्रिय ऐसा क्या लिख दूँ जिससे तुम फिर मुझसे रूठ न पाओ।। लिख दूँ श्याम कहानी जिसमे तुम राधा बन निकल न पाओ।। क्या लिख दूँ काले केशों पर शरमा जाएं नैन शराबी रक्तिम अधरों पर क्या कह दूँ दहक उठे ये गाल गुलाबी अपने मध्य प्रिये क्या लिख दुं तुम मुझसे फिर दूर न जाओ।। सागर से लेकर मरुथल तक सबने प्यासा ही लौटाया आज प्रेम के नन्दनवन में मिली प्रतिक्षाओं को छाया क्या लिख दूँ जो युगो युगों तक साथ मेरे तुम भी दोहराओ।। सुरेश साहनी, कानपुर
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प्रिय ऐसा क्या लिख दूँ जिससे तुम फिर मुझसे रूठ न पाओ।। लिख दूँ श्याम कहानी जिसमे तुम राधा बन निकल न पाओ।। क्या लिख दूँ काले केशों पर शरमा जाएं नैन शराबी रक्तिम अधरों पर क्या कह दूँ दहक उठे ये गाल गुलाबी अपने मध्य प्रिये क्या लिख दुं तुम मुझसे फिर दूर न जाओ।। सागर से लेकर मरुथल तक सपने प्यासा ही लौटाया आज प्रेम के नन्दनवन में मिली प्रतिक्षाओं को छाया क्या लिख दूँ जो युगो युगों तक साथ मेरे तुम भी दोहराओ।। सुरेश साहनी, कानपुर
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आज इस बात से बेखबर कौन है। आदमी से बड़ा जानवर कौन है।। छोड़ कर चल दिए तुम कोई गम नहीं साथ देता यहाँ उम्र भर कौन है।। इतना नादान हूँ जान पाया नहीं राहजन कौन है राहबर कौन है।। चाँद उसको बतादे कि उसके लिए याद में जागता रात भर कौन है।। हम से पहले जहाँ छोड़ कर चल दिए अब तुम्ही ये कहो बेसबर कौन है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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बिगड़ा है बर्बाद नही है। घर तो हैं, आबाद नही है।। सोने चांदी की दुनिया में केवल लब आज़ाद नही है।। दिल से दिल की बात करा दे वो तकनीक इज़ाद नही है।। मेरे दिल में दो रह जाएँ इतना भी इफराद नही है।। हम भी अल्ला के बन्दे है तू ही अल्लाज़ाद नही है।। मन मेरा मजबूत है लेकिन तन मेरा फौलाद नही है।। उसके आगे क्या हम रोते वो सुनता फरियाद नही है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कल जाने क्या भूल गया मैं आज बहुत बेचैनी में हूँ। तुम श्लोकों में मत भटको मैं साखी, शबद, रमैनी में हूँ।। कागद कागद आखर आखर भटका काशी कसया मगहर प्रेम न जाना फिर क्या जाना करिया अक्षर भैंस बराबर बस इतने पर भरम हो गया मैं कबीर की श्रेणी में हूँ।। मीरा ने अनमोल बताया वह माटी के मोल बिक गया मैं भी मिट्टी का माधो सुन ढाई आखर बोल बिक गया अब कान्हा के अधरों पर हूँ या राधा की बेनी में हूँ।।
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इस उलझन से कैसे निकलें तुम्हें पता है तुम्ही बता दो पीड़ाओं का अंत नहीं है अगर दवा है तुम्ही बता दो तुमने दर्द सहा होता तो मेरे दिल का दर्द समझते तुमने प्रेम किया होता तो मेरी हालत पर ना हंसते प्यार-मुहब्बत तुम क्या जानो कभी किया है तुम्ही बता दो....इस राधा से लेकर मीरा तक सबने कुछ खोकर पाया है तुमने प्यार किया ही कब है तुमको कब रोना आया है नहीं दिया दिल कि दे दिया है किसे दिया है तुम्ही बता दो..... इस #सुरेश साहनी,कानपुर
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नींद आंखों को लोरी सुनाती रही। याद तेरी मगर कसमसाती रही ।। हिज़्र का ग़म सुनाते तो आख़िर किसे ख़्वाब में तू ही तू मुस्कुराती रही।। चाँद बादल में छुपता निकलता रहा और यादों की बारात आती रही।। गुनगुनी धूप में मन ठिठुरता रहा चाँदनी रात भर तन जलाती रही।। ख़्वाब बनते बिगड़ते रहे रात भर नींद पलकों पे नश्तर चुभाती रही।। सुरेश साहनी
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आपकी छाँव की ज़रूरत थी। प्यार के गांव की ज़रूरत थी।। इश्क़ की बेड़ियों ने बांध दिए। रक़्स को पाँव की जरूरत थी।। ज़ीस्त ने मौत से मुहब्बत की मौत को दाँव की ज़रूरत थी।। सिर्फ़ दो गज़ ज़मीन है मन्ज़िल क्या इसी ठाँव की ज़रूरत थी।। प्यार में डूबना था दोनो को फिर किसे नाव की ज़रूरत थी।। और मैं तू ही तू पुकार उठा बस इसी भाव की ज़रूरत थी।। सुरेश साहनी, कानपुर
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साहिल पे सर पटक के समंदर चला गया। दर से कोई फ़क़ीर तड़प कर चला गया।। अश्क़ों में किसके डूब के खारी हुआ अदीब चश्मा कोई मिठास का अम्बर चला गया।। जब साहनी गया तो कई लोग रो पड़े कुछ ने कहा कि ठीक हुआ गर चला गया।। ग़ालिब ने जाके पूछ लिया मीरो-दाग़ से ये कौन मेरे कद के बराबर चला गया।। महफ़िल से उठ के कौन गया देखता है कौन कल कुछ कहेंगे चढ़ गई थी घर चला गया।।
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रंग इतना भी मौसमी मत दे। गिरगिटों जैसी ज़िन्दगी मत दे।। दर्द भी हैं तेरे कुबूल मुझे उसकी आँखों को ये नमी मत दे।। दिन की हस्ती सियाह हो जाये इस क़दर रात शबनमी मत दे।। मेरा साया न छोड़ दे मुझको इतनी ज़्यादा भी रोशनी मत दे।। सुनके ही दम मेरा निकल जाये इस तरह भी कोई खुशी मत दे।। मेरा क़िरदार कर न कर रोशन उसकी राहों में तीरगी मत दे।। मुझको ख़ुद पर हँसी न आ जाये ग़मज़दा हूँ मुझे हँसी मत दे।। धूप में भी तो मत तपा मुझको ठीक है रात चांदनी मत दे।। माना तन्हा सफ़र नहीं बेहतर हमसफ़र भी तो अजनबी मत दे।। सुरेश साहनी, कानपुर
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न जाने क्या समझकर कह दिया है। जो आदम को पयम्बर कह दिया है।। मेरे पानी से बादल बन के उसने मुझे सिमटा समंदर कह दिया है।। कोई कहकर न वो सब कह सकेगा जो तुमने कुछ न कहकर कह दिया है।। मेरे शीशे से दिल को क्या समझकर तुम्हारे दिल ने पत्थर कह दिया है।। ज़मीं से उठ रहे हैं यूँ बवंडर ज़मीं को कैसे अम्बर कह दिया है।। नहीं है दिल मेरे पहलू में उसने मेरे दिल मे ही रहकर कह दिया है।। वो खाली हाथ लौटेगा यक़ीनन उसे सबने सिकन्दर कह दिया है।। उसे दिक़्क़त है मेरे आँसुओं से मुझे जिसने सितमगर कह दिया है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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हँस के तूफान को हवा दे हम। और मल्लाह को सज़ा दें हम।। जो न बोले उसे मिटा दें हम। जो भी बोले उसे दबा दें हम।। कल न ये भी मशाल बन जायें इन दियों को अभी बुझा दें हम।। काफ़िले हैं ये नौनिहालों के राह इन को गलत बता दें हम।। जो भी हक़ मांगे देश मे अपना उसको रेड इंडियन बना दें हम।। सर उठा कर के जो भी बात करे उसको दुनिया से ही उठा दें हम।। देश विज्ञान से नहीं चलता देश को मध्ययुग में ला दें हम।। सुरेश साहनी, कानपुर
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(#फ्रेंडशिपडे पर) तू किसी शख्स से दगा मत कर या मुझे दोस्त भी कहा मत कर दोस्ती में नहीं जगह इसकी वेवजह शुक्रिया गिला मत कर दुनियादारी भी इक हकीकत है खुद को ख्वाबों में मुब्तिला मत कर जो तुझे प्यार से मिले उससे अजनबी की तरह मिला मत कर तू किसी से बुरा कहा मतकर तू किसी से बुरा सुना मत कर तू भलाई न कर गुरेज नही पर किसी के लिए बुरा मत कर दोस्ती उम्र भर का सौदा है रस्म इक रोज का अदा मत कर #सुरेशसाहनी
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वो ग्वाले वो गोकुल वो गैया कहाँ हैं सुदामा बहुत हैं कन्हैया कहाँ हैं...... वो पनिहारिने और पनघट कहाँ है जो मटकी को फोड़े वो नटखट कहाँ है जो लल्ला पे रीझी थीं मैया कहाँ हैं..... सरेआम पट खींचते हैं दुशासन हैं चारो तरफ गोपिकाओं के क्रंदन पांचाली के पत का रखैया कहाँ है..... अर्जुन को उपदेश अब कौन देगा गीता का सन्देश अब कौन देगा वो मोहन वो रथ का चलैया कहाँ है.. .. बाल होठों पे मुस्कान आने को तरसे बालिकाएं निकलती हैं डर डर के घर से कलियानाग का वो नथैया कहाँ है.... नंदलाला वो बंशी बजैया कहाँ है।....
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हम भला तुमसे और क्या लेते। इक ज़रा हाले-दिल सुना लेते।। तुमको हमपे यक़ीन हो जाता तुम अगर हमको आज़मा लेते।। ये अदावत चलो पुरानी है यार खंजर तो कुछ नया लेते।। हम भी कुछ मुतमईन हो जाते तुम बहाना कोई बना लेते।। हम तुम्हारी नज़र से राजी थे ख्वाब पलकों पे कुछ सजा लेते।। कर गुजरते तेरी रज़ा पे हम हम तुम्ही से तुम्हे चुरा लेते।। ये मेरा दिल हैं इश्कगाह नही और कितनों को हम बसा लेते।। Suresh Sahani, Kanpur
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मुंबई की एक बिल्डिंग में एक गली का कुत्ता बारिश से बचने के लिए घुस आया, गार्ड ने उसे पीटा और कुत्ता बेचारा मर गया.... अब लोगों ने उस मृत कुत्ते का नाम लकी रखा है, और उसके लिए आज क़रीब ५०० लोगों ने प्लेकार्ड्स लेकर प्रोटेस्ट किया है, जिनपे लिखा हुआ है "जस्टिस फ़ोर लकी"। मैं भारत के उच्च मध्यम वर्ग या सो कॉल्ड हाई क्लास की न्यायप्रियता का कायल भी हूँ। वे कभी नहीं चाहते कि कोई कम आय वाला अथवा गरीब बन्दा भूल से भी कोई अपराध करे।इसीलिए जब गार्ड ने कुत्ते को मारा तो पूरे आकुल सोसाइटी के लोग कुत्ते को न्याय दिलाने निकल पड़े।इनके यहाँ सबके हृदय एक साथ झनझनाते हैं। कुत्ते की मार का दुख बच्चे से लेकर बूढ़ों तक समान रूप से व्याप्त है। कुत्ता सर्वहारा है और गॉर्ड शोषक वर्ग का मुक़म्मल रिप्रेजेंटेटिव।आख़िर क्यों ना हो? इन सो कॉल्ड हाई क्लास में आदमी से ज्यादा कुत्तों से प्यार किया जाता है, पर वह कुत्ता विदेशी होना चाहिये। देशी की क्या औकात। धोती पहनने वाले देहाती को तो टीटी भी बन्दे भारत ट्रेन से उसी तरह उतार देता है,जैसे गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन से फेंक दिए गए थे।इन अपर मिडिल क्...
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विष लेकर था आकंठ भरा अमृत पाकर घट रीता भी। मैं जब जीता कुछ हार गया सब हार गया तब जीता भी।। मैं दीपक बन कर जला किन्तु तुमने छाया सा छला किन्तु आजीवन आश्रय दिया तुम्हें मैं ख़ुद अनाथ सा पला किन्तु- मैं साथ निभाकर पत्तित रहा तुम छल कर रही पुनीता भी।। भिक्षुक बन तुमने छला मुझे मैं दाता मेरा हरण हुआ निष्ठा का प्रतिफल परित्याग परिहरण हुआ या मरण हुआ फिर कितनी अग्नि परीक्षाये दे पाती आखिर सीता भी।। यह नारी और पुरुष वाली गाथा कब दोहराओगे परिवाद रहेंगे युग युग तक कितने दिन दोष छुपा लोगे कब पुरुष रहे कब नारी तुम यह बता न पाई गीता भी।।
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आप जब भी जनाब आते थे। मौसमों पर शबाब आते थे।। पूरा कॉलेज आँख से पी ले भर के इतनी शराब आते थे।। हाय क्या दिन थे इश्कबाज़ी के क्या सुहाने से ख़्वाब आते थे।। एक हम ही न थे मरीज वहां कितने खानाख़राब आते थे।। इश्क़ से ही सवाल उठते थे इश्क़ ही को जवाब आते थे।। उनकी साँसे थी या कि बादे- बहार या कि उड़ के गुलाब आते थे।। ऐसे आते थे बाजदम गोया इश्क़ के मास्साब आते थे।। और जाते थे जब भी पहलू से जाने कितने अज़ाब आते थे।। हुस्न हरदम रहा मुनाफे में उसको सारे हिसाब आते थे।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132