कुछ वज़ह तो मिले मुस्कुराने की फिर।
वक़्त की कोशिशें हैं रुलाने की फिर।।
अपनी ज़िद आशियाना बनाने की फिर।
बर्क की कोशिशें हैं जलाने की फिर।।
थक गए हम भरोसा दिलाते हुए
उनकी फितरत रही आज़माने की फिर।।
आ रहे हैं वो फिर से मनाने हमें
उनमें हसरत जगी है सताने की फिर।।
मौत ने कुछ तसल्ली जगाई मगर
ज़ीस्त ने कोशिशें की डराने की फिर।।
सुरेश साहनी, कानपुर
31/08/22
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