मैं तो बड़े गुलाम साहब का शुरू से फैन रहा हूँ। लेकिन जब से सुना है कि गुलामे- मुस्तफा अपनी छियालीस साल की क़ैदे- बामशक़्क़त से आज़ाद हुए हैं। और उनकी हुब्बुलवतनी वज़ीरे- आज़मे-दोआलम साहब ने आहो ज़ारी के साथ मन्ज़रेआम की है बाखुदा अपने ज़मीर को बेचकर उनका फैन हो गया हूँ। 

 ज़रा सोचिए किस तरह से बिचारे अपना ईमान बेचकर किसी पार्टी में शामिल हुए ,एम पी बने, कश्मीर जैसे सूबे के वज़ीरे आला बने । मजलिसे-आम और मजलिसे खास दोनों के तीस साल तक नुमाईन्दे बने रहे।एक आदमी पर इतना बोझ लादा गया।बिचारे चुपचाप सहते रहे।इतने बोझ में तो एक गधा भी जवाब दे जाता। ख़ैर आप तो पहले से बड़े मेरा मतलब के काबिल और साबिर हैं।

और  कहा भी गया है 

       किस वक़्त बदल जाये भरोसा नहीं कोई

       ये आज का इन्सान भी मौसम की तरह है।।

 आज़् आप की मुल्कपरस्ती और अवाम से मुहब्बत देख कर रोना आ रहा है। कोई बात नहीं जाने दीजिए। मेरे लिए खुशी की बात ये  है कि आपका वो बंगला सही सलामत है जिसमे आप गोल्फ़ खेल सकते हैं। भले इसके लिए कूफ़े की बैयत यज़ीद को देनी पड़ी , जनाब हिज़रत से बच गए।चलिए अदम गोंडवी साहब को याद करते हैं कि,

      "रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ।

       कौम के ग़म में डिनर खाते है हुक्काम के साथ।।

व्यंग

31/08/22

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