मैं खोज रहा हूं कविता को वीरानों में वन उपवन में 

किंचित वह बैठी है जाकर कंक्रीटों के वातायन में 


हर भीड़ भरे सन्नाटे में सूनेपन के कोलाहल में 

उद्गारों की नीरवता में या चिंताओं की हलचल में 

वह स्वार्थ भरे दुत्कारों में या त्याग लिए अवगाहन में


उन व्यंग भरी मुस्कानो में या प्यार भरे उस गुस्से में 

कविता को  जा जा खोजा है इस जीवन के हर हिस्से में

शायद वह छिपकर बैठी हो जाकर खुशियों के आंगन में


क्या मौत  बदल हो सकती है इस जीवन के खालीपन का

क्या राज सभाओं में होगा हल मेरे एकाकीपन का

क्यों छंद निरुत्तर बैठे हैं दुनियादारी की उलझन में।।


सुरेशसाहनी, कानपुर

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