हम को सम्हालने चले थे खुद मचल गए।
एक रोज में ही जाने वो कितना बदल गए।।
बातों में तल्खियाँ थीं न जाने कहाँ गयीं
कड़वाहटों के ढेर शकर जैसे गल गए।।
रखते थे जो हरएक कदम एहतियात से
वो इश्क की गली में कहाँ से फिसल गए।।
दावा था हमको ढूंढ़ के लाएंगे एक दिन
अब दांव देके जाने किधर खुद निकल गए।।
बचपन के शौक ,आदतें,दीवानगी जूनून
हैरत है हम न जाने कहाँ से सम्हल गए।।
Suresh sahani
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